निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 7 जुलाई के 66वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 66 ) में जरासंध का मथुरा पर आक्रमण की योजना को असफल करते हुए उसके पड़ाव पर मथुरा के सैनिक हमला कर देते हैं और फिर अंतत: कृष्ण और बलराम से युद्ध करके वह और उसके सभी साथी भाग जाते हैं। फिर बताते हैं कि जरासंध को फिर से उसके साथी राजाओं द्वारा जोश दिलाया जाता है तो वह फिर से सेना एकत्रित करके मथुरा पर चढ़ाई कर देता है लेकिन हर बार वह मुंह की खाता है। युद्ध चलता रहता है यूं ही कई बार और असुरों का संहार होता रहता है। हार हार कर जरासंध अंतत: युद्ध की हिम्मत हार जाता है।
श्रीकृष्ण और बलराम के हाथों 17 बार हारने के बाद जरासंध और उसके साथ बहुत दुखी थे। परंतु सभी ये स्वीकार करने को तैयार नहीं थे कि ये उनकी अंतिम हार है। जरासंध सभी के समक्ष खड़ा होकर कहता है कि सबसे बड़ा दुख तो यह कि हम जीत तो ना सके परंतु युद्ध भूमि में हम वीरों की भांति मर भी नहीं सके। शल्य कहता है कि मैं आपकी मानसिक अवस्था समझता हूं परंतु आपके जैसा वीर ही 17 बार तो क्या 100 बार भी हारने के बाद 101वीं बार युद्ध जीत सकता है।
यह सुनकर राजकुमार रुक्म (रुक्मी का भाई) कहता है परंतु भैया क्या युद्ध करना आवश्यक है? यह सुनकर सभी क्रोधित हो जाते हैं। फिर वह आगे कहता है कि हम लोग ये क्यों नहीं सोचते कि अंतत: युद्ध में किसी को कोई लाभ नहीं होता। दूसरी बात यह विचार करने योग्य बात है कि मथुरा के मुकाबले हमारे पास कई गुना सैन्य शक्ति है फिर भी हम हर बार क्यों हारते हैं? मथुरा के पास ऐसी कौनसी शक्ति है जो हमें हराती है? ये बात भी हम सब जानते हैं परंतु उसे मानता कोई नहीं।..सभी उसकी ओर क्रोधित होकर देखते हैं तब वह कहता है क्षमा कीजिये मैं आपसे छोटा होते हुए भी ये प्रश्न पूछने की धृष्टता करता हूं। हम सब जानते हैं कि श्रीकृष्ण अलौकिक शक्तियों के स्वामी हैं फिर हम उनसे युद्ध की बजाए संधि क्यों नहीं कर लेते हैं?
यह सुनकर शिशुपाल क्रोधित होकर कहता है संधि! कृष्ण से संधि.. ये बात तुमने सोची भी कैसे राजकुमार रुक्म। तब रुक्म कहता है, कृष्ण आपका शत्रु नहीं बल्कि आपके सगे मामा वसुदेवजी का पुत्र है और मैं समझता हूं कि इस नाते का लाभ उठाकर ये काम आप ही को करना चाहिए। दोनों पक्षों में संधि कराके इस वृथा और रक्तपात को रोक दें। यह सुनकर शिशुपाल कहता है राजकुमार रुक्मी लगता है कि तुम्हारा छोटा भाई रुक्म वीरों की सभा में कभी नहीं बैठा है।..अरे हार कर संधि करना तो मृत्यु से भी बुरा है। इसलिए ऐसी फिर कभी ऐसी कायरता वाली बात मत करना। और रही बात कृष्ण की तो रिश्ता मन से होता है। मन से मैं महाराज जरासंध को अपना पिता माता मानता हूं इसलिए कृष्ण मेरा परम शत्रु है। आज काल हमारे विपरित है कल जब हमारे साथ होगा तो हम फिर युद्ध करेंगे।
उधर, श्रीकृष्ण यह सुनकर बलरामजी से कहते हैं, दाऊ भैया लगता है कि अब हमें मथुरा नगरी को छोड़कर कहीं ओर जाना पड़ेगा। बलराम और अक्रूरजी यह सुनकर चौंक जाते हैं। अक्रूरजी कहते हैं ये आप क्या कह रहे हैं प्रभु! आप मथुरा नगरी को छोड़ जाएंगे। श्रीकृष्ण कहते हैं हां अक्रूरजी। तब अक्रूरजी पूछते हैं परंतु क्यों? इस पर कृष्ण कहते हैं कि इसलिए कि जब तक हम मथुरा में रहेंगे मथुरा संकट में रहेगी। यह सुनकर अक्रूरजी कहते हैं प्रभु मैं कुछ समझा नहीं।
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि जरासंध को केवल हमसे बैर है मथुरा से नहीं। इसलिए जब तक हम यहां रहेंगे वो किसी न किसी बहाने से आक्रमण करता रहेगा। इस पर अक्रूरजी कहते हैं परंतु प्रभु अब उसमें आक्रमण करने की शक्ति ही कहां रही है? मैंने सुना है कि उनकी सभा में यह निर्णय हुआ है कि अभी समय अनुकूल नहीं है। इसलिए सब साथी अपने अपने राज्य लौट जाएं।
यह सुनकर कृष्ण कहते हैं अर्थात उन्होंने युद्ध के त्याग की बात नहीं की है। केवल परिस्थिति के बदलने की बात की है। इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि मथुरा का संकट केवल टल गया है। अभी समाप्त नहीं हुआ। यह सुनकर बलराम कहते हैं मैं समझता हूं कि जरासंध के साथ तितर बितर हो रहे हैं जिससे उनकी जो शक्ति संगठित थी वह अब बिखर गई है। अब वह मथुरा की ओर आंख उठाकर नहीं देखेगा।
तब श्रीकृष्ण कहते हैं फिर आप जरासंध को नहीं जानते दाऊ भैया। वो ऐसा अद्भुत प्राणी है कि आप तलवार से उसके दो हिस्से कर दो और उन्हें मुर्दा समझकर उन हिस्सों को फेंक दो तो वो दोनों हिस्से फिर से आपसे में जुड़ जाएंगे और जरासंध फिर से जीवित होकर खड़ा हो जाएगा।... यह सुनकर बलराम और अक्रूरजी चौंक जाते हैं।
अक्रूरजी कहते हैं प्रभु ये बात तो असंभव है। इस पर कृष्ण कहते हैं ये असंभव बात नहीं अक्रूरजी ये सत्य बात है। वास्तव में उसका शरीर एक तांत्रिक माया से जुड़ा हुआ है। वास्तव में ये एक विचित्र घटना है। उसके पिता महाराज वृद्धरथ की दो पत्नियां थीं। छोटी की संतान थी परंतु बड़ी रानी की संतान नहीं थी। इसलिए वे दोनों पति-पत्नी साधु-महात्माओं की बहुत सेवा किया करते थे। एक बार उनकी सेवा से प्रसन्न होकर एक परमसिद्ध ऋषि ने बड़ी रानी को एक फल दिया और कहा कि इस फल को खा लेना। प्रभु की कृपा से तुम्हें बड़े ही पराक्रमी पुत्र की प्राप्ति होगी।
बड़ी रानी उस फल को लेकर चली जाती है। बाद में वह छोटी रानी से कहती है कि क्यों न आधा फल तुम खा लो तो तुम्हें भी प्रतापी पुत्र होगा। यह सुनकर पहले तो छोटी रानी मना करती है लेकिन फिर आग्रह करने पर मान जाती है और वे दोनों आधा आधा फल खा लेती है। उस अभिमंत्रित फल के प्रभाव से दोनों रानियां गर्भवती हो गई। परंतु दसवें महीने में बड़ी विचित्र घटना घटी। जब रानियों के गर्भ से जो बालक उत्पन्न हुए उनके आधे आधे शरीर थे। ऐसा लगता था जैसे किसी तलवार एक बालक को दोनों हिस्सों में काट दिया हो। जब ये दोनों आधे आधे शरीर राजा के सामने लाए गए तो राज बहुत दुखी हुआ। महाराज की आज्ञा अनुसार उन दोनों टूकड़ों को जंगल में फिंकवा दिया गया। उसी समय उस वन से जरा नाम की एक राक्षसी जा रही थी। उसकी दृष्टि उन दोनों अर्ध शरीरों पर पड़ी और वह उन्हें उठाकर ले गई और अपनी तंत्र किया से उसने दोनों शरीर को जोड़ दिया। फिर जरा राक्षसी ने उस बालक को उसके पिता वृद्धरथ को जाकर दे दिया। क्योंकि जरा राक्षसनी ने उन दोनों टूकड़ों की संधि करके उसे एक कर दिया था इसलिए महाराज वृद्धरथ ने उसका नाम जरासंध रख दिया।
यह कथा सुनाने के बाद कृष्ण कहते हैं ये वही जरासंध है इसके आज भी यदि दो टूकड़े कर दो तो तत्काल फिर से आपस में जुड़ जाएंगे और जरासंध फिर से लड़ने के लिए तैयार हो जाएगा। इसीलिए मैं फिर कहता हूं कि जब तक जरासंध है मथुरा का संकट समाप्त नहीं होगा। जरासंध जितनी बार हारेगा उतनी बार वह और खतरनाक होता जाएगा। बल्कि अब जो मैं देख रहा हूं वह तो बिल्कुल एक नई चाल है।
अक्रूरजी पूछते हैं चाल! प्रभु कैसी नई चाल? तब कृष्ण कहते हैं कि अब वह किसी मलेच्छ शक्ति की सहायता से आक्रमण करेगा। यह सुनकर बलराम कहते हैं मलेच्छ शक्ति, कौन है वह? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कालयवन। यह सुनकर अक्रूरजी चौंककर कहते हैं कालयवन?
तब कृष्ण कहते हैं यवनदेश का राजा कालयवन। जन्म से ब्राह्मण। कर्म से मलेच्छ। उसकी कहानी बड़ी रोचक है और अद्भुत भी है। फिर कभी सुनाऊंगा। इस समय जरासंध और शल्य भी उसी की बातें कर रहे हैं। शल्य उसे समझा रहा है कि यदि वह कालयवन को अपने साथ ले लें तो वह हम पर अवश्य विजय पा सकता है।
शल्य जरासंध से कहता है सम्राट मुझे पूर्ण विश्वास है कि यदि कालयवन हमारी सहायता करने के लिए तैयार हो जाए तो
फिर मथुरा को जीतना कोई मुश्किल काम नहीं। क्योंकि जरासंध को किसी भी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारा जा सकता। यहां तक की कृष्ण का वह दिव्य सुदर्शन चक्र भी उसके सामने व्यर्थ है। यह कालयवन वास्तव में यवन नहीं ऋषि पुत्र की संतान है। ऋषि ने अपने इस पुत्र को यवन देश के राजा को दत्तक पुत्र दे दिया था। इसलिए यह यवन कहलाता है। जरासंध पूछता है कि वह ऋषि कौन थे। तब शल्य बताता है त्रिगत राज्य के कुलगुरु ऋषि शेशिरायण। जो महामुनि गर्ग के गोत्र से होने के कारण गार्गियत मुनि भी कहलाते हैं।
एक बार शेशिरायण किसी सिद्धि की प्राप्ति के लिए एक यौगिक अनुष्ठान कर रहे थे। जिसके लिए 12 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करना आवश्यक था। उन्हीं दिनों एक गोष्ठी में उनके साले ने हंसी-हंसी में उन्हें नपुंसक होने के ताना दे किया। मुनि इस ताने से बड़े विचलित हो गए। तब उन्होंने निश्चिय किया की वो एक ऐसा पुत्र पैदा करेंगे तो संसार में अजेय होगा। बस ऐसा वर पाने के लिए वे भगवान शिव की तपस्या करने लगे।
उन्होंने भगवान शिव की तपस्या की और उनसे एक अजेय पुत्र की मांग की। शिव ने कहा- 'तुम्हारा पुत्र संसार में अजेय होगा। कोई अस्त्र-शस्त्र से हत्या नहीं होगी। सूर्यवंशी या चंद्रवंशी कोई योद्धा उसे परास्त नहीं कर पाएगा। हमारे वरदान से तुम्हारा शरीर एक राजा के भांति हो जाएगा और तुम ठाटबाट से जीवन यापन करोगे।'
वरदान प्राप्ति के पश्चात ऋषि शेशिरायण की काया पलट गए और तब वे चलते चलते एक झरने के पास पहुंचे। उसी समय उन्होंने एक स्त्री को जल नहाते हुए देखा, जो अप्सरा रम्भा थी। दोनों एक-दूसरे पर मोहित हो गए और उनका पुत्र कालयवन हुआ। 'रंभा' समय समाप्ति पर स्वर्गलोक वापस चली गई और अपना पुत्र ऋषि को सौंप गई। रंभा के जाने से शेशिरायण को बहुत दुख हुआ और वे फिर तपस्या करने चले गए। साथ में वे उस पुत्र को भी वन में ले गए। जय श्रीकृष्णा।