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Written By अनिरुद्ध जोशी

Shri Krishna 8 June Episode 37 : मथुरा में जब श्रीकृष्ण ने एक कुरूप महिला को कहा 'सुंदरी'

Shri Krishna 8 June Episode 37 : मथुरा में जब श्रीकृष्ण ने एक कुरूप महिला को कहा 'सुंदरी' - Shri Krishna on DD National Episode 37
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 8 जून के 37वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 37 ) में...फिर चाणूर बताता है कि किस तरह कृष्ण की हत्या की जाएगी ताकि जनता हमें हत्यारा न मानें। आज सारी रात आपके हाथी कवंलियापिड़ को मदिरा पिलाकर मदमस्त कर दिया जाएगा। ताकि कृष्‍ण जब रंगशाला से उस नगर चौक से गुजरेगा तो उस पागल हाथी को उस पर छोड़ दिया जाएगा। यदि वह भाग भी जाए तो रंगशाला आते ही आपके पहलवान जिनमें सौ-सौ हाथियों का बल है वे उसे ललकारेंगे और वह लड़ने से इनकार करता है तो वह लोगों की नजरों में गिर जाएगा कि ये कैसा तारणहार है जो एक पहलवान से ही नहीं लड़ सकता और यदि वह लड़ना स्वीकार करता है तो उसकी मृत्यु निश्‍चित है। महाराज आपके पहलवानों में अकेला मुष्ठिक ही इतना बलवान है कि एक ही दांव में उसके शरीर के चिथड़े उड़ा देगा। दूसरे पहलवानों की तो बारी ही नहीं आएगी। यह सुनकर कंस कहता है शाबास चाणूर, इसे कहते हैं सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।
 
 
उधर, मथुरा में आग की तरह चौपाल-चौपाल पर यह चर्चा चल पड़ती है कि हमारा तारणहार आ रहा है अक्रूरजी के साथ। यह सुनकर मथुरा में खुशी की लहर दौड़ जाती है। लोग चर्चा करते हैं कि गोकुल वालों ने तो कमाल कर दिया। कितने वार्षों तक उस बालक को छुपा कर रखा। दूसरा व्यक्ति कहता है अब वह बालक नहीं रहा। तरूण हो गया है तरूण। वह इतना सुंदर है कि तीनों लोक में ऐसी छवि देखने को नहीं मिलेगी।...फिर संपूर्ण नगरवासी उसके भव्य स्वागत की तैयारी में जुट जाते हैं।
 
उधर, अक्रूरजी कहते हैं वो देखिये मथुरा नगरी का प्रवेश द्वार दिखाई दे रहा है। श्रीकृष्ण देखते हैं कि द्वार पर कई लोग और सैनिक खड़े हैं। कृष्ण कहते हैं आह, कैसी पवित्र नगरी है। कैसा दिव्य स्थान है। अक्रूरजी कहते हैं जी। फिर श्रीकृष्‍ण कहते हैं अक्रूरजी इस नगरी को पहले मदुरा नामक राक्षस ने बसाया था। शिवजी का भक्त था वह। उसी के नाम से पहले मदुरा और अब मथुरा कहलाती हैं। वस्तुत: यह पुण्य धरती भक्तराज ध्रुव की तपोभूमि है। इसलिए इस पवित्र धरती को प्रणाम कीजिये। अक्रूरजी और बलराम उसे प्राणाम करते हैं।
 
प्रवेश द्वार के कुछ दूर जाने पर ही द्वार के ऊपर खड़ा एक व्यक्ति कुछ संकेत करता है तो एक घुड़सवार जाकर अक्रूरजी को एक पत्र थमा देता है जिसमें लिखा होता है कि मथुरा नरेश की ओर से राजकुमार कृष्‍ण का स्वागत है। महाराज की आज्ञा से एक विशेष अतिथिगृह में राजकुमार के निवास का प्रबंध किया गया है। स्वयं महाराज आपसे कल प्रात: रंगशाला में भेंट करेंगे। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं अच्छा प्रबंध है। दाऊ भैया हम अतिथिगृह में थोड़ा विश्राम करके फिर नगर की शोभा देखने चलेंगे। बलरामजी कहते हैं अवश्य।
 
फिर नगर के प्रवेश द्वार में प्रवेश करते ही उनका भव्य स्वागत होता है। सभी राजकुमार कृष्‍ण की जय-जयकार के नारे लगाकर फूल बरसाते हैं। दोनों भाई नगरवासियों का हाथ जोड़कर अभिवादन करते हैं। यह देखकर अक्रूरजी प्रसन्न हो जाते हैं। नगर में उनका रथ जिधर से भी गुजरता है वहां फूलों से उनका स्वागत होता है।
 
उधर, कारागार में देवकी को कृष्‍ण की जय-जयकार सुनाई देती है तो वह कहती है वसुदेवजी से वह आ गया। वसुदेवजी भी नगरवासियों की ये जयकारे सुनकर प्रसन्न हो जाते हैं। देवकी प्रसन्न कहती हैं मेरा पुत्र आ गया। मेरा पुत्र आ गया यह कहते हुए वह खड़ी होकर उजालदान से देखने का प्रयास करती है लेकिन देख नहीं पाती है तो वसुदेवजी कहते हैं मैं तुम्हें वहां नहीं पहुंचा सकता वह मेरी पहुंच से दूर है। देवकी कहती हैं कि मैं एक बार उसे जी भरकर देखना चाहती हूं जिसे अब तक नहीं देखा। फिर तो वह कंस के पास जा रहा है। पता नहीं कंस उसका क्या करेगा। हे भगवान ये कैसी परीक्षा ले रहे हो? इसके बाद दोनों ही उजालदान से देखने में असमर्थ होकर रोने लगते हैं। वसुदेवजी कहते हैं यदि भगवान पर विश्वास करती हो तो उसकी शक्ति पर भी विश्‍वास करो। देख नहीं रही हो कि यह कितना बड़ा चमत्कार है कि कंस की नगरी में उसकी जय-जयकार हो रही है।
 
फिर उधर एक बूढ़ा व्यक्ति कृष्ण को हार पहनाने के लिए उतावला होता है। वह श्रीकृष्‍ण के रथ के आगे गिर पड़ता है। श्रीकृष्ण सारथी से रथ रोकने के लिए कहते हैं। श्रीकृष्ण रथ से नीचे उतरकर उस बुढ़े व्यक्ति को उठाते हैं। वह श्रीकृष्ण के गले में हार पहनाकर रोते हुए उनके हाथ जोड़कर कहता है कि एक दिन में गर्गमुनि के पास गया था मैंने पूछा था कि मैंने ऐसा कौनसा पाप किया है जो मुझे कंस के लिए रोज माला बनाना पड़ती है तो उन्होंने कहा था कि एक दिन मैं जगत के तारणहार श्रीकृष्ण के गले में फूलों की माला डालूंगा तो मेरे सारे पाप कट जाएंगे। आज उनका वचन सत्य हो गया। प्रभु मेरा जन्म सफल हो गया। यह कहते हुए वह माली श्रीकृष्ण के चरणों में लेट जाता है। श्रीकृष्ण उसे उठाकर कहते हैं आज से हम तुम्हारे ही हाथों की बनी माला पहनेंगे। यह कहकर श्रीकृष्ण पुन: रथ पर सवार हो जाते हैं।
 
उधर, कारागार में देवकी घबराती है कि अब न जाने कंस मेरे लाल के साथ क्या करेगा। तब वसुदेवजी कहते हैं कि देवी मुझे लगता है कि जो आकाशवाणी हुई थी उसके सत्य होने का समय आ गया है। चिंता के अंधकार से निकलो। आशा का सवेरा होने वाला है।
 
दूसरी ओर कंस का एक सेवक अतिथिगृह में आकर श्रीकृष्ण और बलराम से कहता है कि महाराज की आज्ञा है कि आपकी सुख-सुविधा में कोई त्रुटि ना हो इसलिए आप कोई भी इच्छा व्यक्त करने में संकोच न करें। चारों ओर सेवक हर घड़ी उपस्थित रहेंगे। श्रीकृष्‍ण यह सुनकर कहते हैं कि महाराज को हमारी ओर से धन्यवाद कह दीजिएगा। सेवक के जाने के बाद बलरामजी कहते हैं सुंदर, क्या आवभगत हो रही है वाह।
 
तब अक्रूरजी कहते हैं कि लगता है कंस कोई गहारी चाल चल रहा है। श्रीकृष्‍ण मुस्कुरा देते हैं। तभी विशेश्वर नामक गुप्तचर भेष बदलकर कक्ष में आकर अक्रूरजी को बताता है कि विशाल बगीचे में और नरोत्तम रसोई में नौकरी कर रहा है। तब अक्रूरजी कहते हैं कि नरोत्तम से कहना की वह दृष्टि रखें कहीं कंस के लोग भोजन में कुछ मिला न दें। गुप्तचर कहता है, स्वामी इसलिए तो उसे वहां नौकरी पर लगाया गया है। 
 
यह सुन और देखकर श्रीकृष्ण बलरामजी से कहते हैं। दाऊ भैया अक्रूरजी तो अपने कार्य में व्यस्त है, चलिये हम चलकर तब तक रंगशाला देख आते हैं। देखें तो कि कल के उत्सव की क्या तैयारी हो रही है। यह सुनकर गुप्तचर कहता है कि आप अकेले जाएंगे? कृष्‍ण कहते हैं हां। तब गुप्तचर कहता है नहीं-नहीं वहां जाना ठीक नहीं। उसी जगह वह दिव्य धनुष रखा हुआ है जिसकी कल पूजा की जाएगी। इस समय कंस के सैनिकों का पहरा है। तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि कोई बात नहीं हम दूर से ही उसके दर्शन कर लेंगे। क्यूं अक्रूरजी? इनसे कहिये ना कि हमारी चिंता ना करें। यह सुनकर अक्रूजी विशेश्वर से कहते हैं तुम चिंता न करो विशेश्वर इनकी चिंता का भार हम पर नहीं। हमारी रक्षा का भार इन पर है। यह सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए कहते हैं जो चलें दाऊ भैया।
 
दोनों अकेले ही बाहर निकल जाते हैं। बाहर एक कुबड़ निकली कुरूप महिला हाथ में डलिया लिए चुपचाप कहीं जा रही थीं। श्रीकृष्‍ण को सुगंध आती है तो वे बलराम से कहते हैं कि आह आह, कैसी मधुर सुगंध आ रही है। दाऊ भैया ये सुगंध कहां से आ रही है? दाऊ भैया कहते हैं कि सुगंध! यहां तो कहीं सुगंध की कोई वस्तु दिखाई नहीं देती। फिर वे कहते हैं हां केवल वो एक कुबड़ी आ रही है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि हो सकता है कि उसी के पास से यह सुगंध आ रही हो। चलो देखते हैं।
 
श्रीकृष्ण उस कुबड़ी महिला का रास्ता रोक देते हैं। वह कुबड़ी दूसरी ओर से निकलने के प्रयास करती है तो श्रीकृष्ण उसे उधर से भी नहीं निकलने देते हैं। वह कुबड़ी कहती है हटो यहां से हटो, रास्ता छोड़ो। श्रीकृष्ण कहते हैं कि कैसे छोड़ दें रास्ता तुम्हारी इस डलिया से बड़ी दिव्य सुंगध आ रही है। क्या छिपा रखा है इसमें? वह कुबड़ी कहती हैं ये तुम्हारे काम का नहीं है हटो मेरे मार्ग से। तब श्रीकृष्ण कहते हैं अरे सुंदरी! तुम्हें इतना क्रोध शोभा नहीं देता। यह सुनकर वह कुबड़ी दंग रह जाती है कि मुझे सुंदरी कहा।
 
श्रीकृष्ण फिर पूछते हैं कौन हो तुम सुंदरी? क्रोध में भी तुम इतनी सुंदर लग रही हो। यह सुनकर वह कुबड़ी श्रीकृष्ण को देखने लगती है। श्रीकृष्ण कहते हैं बोलो ना सुंदरी कौन हो तुम?
 
तब वह कुबड़ी क्रोधित होकर कहती है तुमने मुझे सुंदरी कहा, मुझे। श्रीकृष्ण कहते हैं हां। तब वह कहती है पहले तुम ये बताओं की कौन हो तुम निर्दयी, जो एक कुरूप और कुबड़ी स्त्री को सुंदकर कहकर उसकी हंसी उड़ा रहे हो। जिसका लोग कुब्जा कहके उपहास करते हैं और जो लोगों के ताने सुनकर अकेली छिप-छिपकर इन सुनी गलियों से जाती है ताकि ये घृणित शब्द बार-बार मुझे ना सुनना पड़े। फिर भी किसी न किसी घर से कहीं न कहीं से ये व्यंगबाण तो आ ही जाता है कि देखो वो कुब्जा जा रही है। परंतु ऐसा क्रूर उपहास मुझे कभी किसी ने नहीं किया जो तुमने मुझे सुंदरी कहकर किया है। यह कहते हुए वह रोने लगती है। फिर वह कहती है, छेड़ना ही था तो तुम मुझे कुब्जा कह लेते तो मैं सह लेती। परंतु ऐसा शब्द कहकर तुमने मेरे हृदय पर घाव कर दिया है। किसी दुखी व्यक्ति का ऐसा उपहास नहीं करना चाहिए जिससे उसका हृदय छलनी हो जाए।
 
तब श्रीकृष्ण कहते हैं मैंने हंसी तो नहीं उड़ाई सुंदरी। मैंने तो केवल वही कहा है जो सत्य है। तब वह कुबड़ी कहती है ये सत्य है कि एक कुबड़ शरीर और कुरूप मुख तुम्हें सुंदर लगता है? तब श्रीकृष्ण कहते हैं हां। यह सुनकर वह कहती है, हां? फिर कृष्ण कहते हैं देवी मैं किसी के शरीर को कभी नहीं देखता। मैं तो केवल आत्मा देखता हूं। यह सुनकर कुबड़ी आश्चर्य से देखती है। फिर कृष्ण कहते हैं कि तुम्हारे अंदर जो सुंदर आत्मा है लोग उसे नहीं देखते। परंतु मैं तुम्हारी वो परम सुंदर आत्मा देख रहा हूं। इसीलिए तुम्हें सुंदरी कहा मैंने।
 
तब वह कुबड़ी कहती है आत्मा की सुंदरता को किसने देखा है? शरीर तो कुरूप है मेरा, लोग तो उसीको देखते हैं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि शरीर की कुरुपता और सुंदरता प्राणी के अपने कर्मों के अनुसार होती है। ये सदा नहीं रहती। जब कर्मों के पुण्य फल का उदय होता है तब एक कुरूप शरीर भी कमल की भांति सुंदर लगने लगता है। मैं वही देख रहा हूं। तुम्हारी कुरुपता के अंत का समय आ गया है देवी। जिस श्राप के कारण तुम्हें यह कुबड़ा शरीर प्राप्त हुआ था उस श्राप की अवधि समाप्त हो गई है देवी। यह सुनकर वह कुबड़ी आश्चर्य में पड़ जाती है।
 
श्रीकृष्ण कहते हैं हमारा विश्वास करो सुंदरी तनिक स्थिर हो फिर हम अभी दिखाते हैं। फिर श्रीकृष्ण उसके साथ से लाठी छुड़ाकर फेंक देते हैं और उसका हाथ थाम लेते हैं। तब वह कुबड़ी कहती हैं कि ये चंदन और ये अंगराग मैं महाराज कंस के लिए ले जा रही हूं। सब मिट्टी में मिल जाएगा। वे तो मेरी गर्दन ही काट देंगे। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि जिसका हाथ मैंने पकड़ लिया हो उसका महाराज कंस भी कुछ नहीं बिगाड़ सकते। यह सुनकर वह कुबड़ी कुछ भी समझ नहीं पाती है। फिर कृष्ण कहते हैं हमारा विश्वास करो सुंदरी। हमारे पास आ गई हो तो अब कंस के पास जाना नहीं होगा। यदि इस अंगराग का डर है तो ये डलिया हमें दे दो। कुबड़ी के दूसरे हाथ में डलिया होती है।
 
यह सुनकर वह कुबड़ी कुछ देर श्रीकृष्ण को देखने के बाद कहती हैं, कौन हो तुम? तुम्हें देखकर ऐसा लगता है कि जैसे जीवनभर ये अंगराग मैं तुम्हारे लिए ही बनाती रही हूं। अंदर से ऐसा लग रहा है जैसे मैं कई जन्मों से तुम्हारी ही प्र‍तीक्षा कर रही हूं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं हां यही सत्य है। कई जन्मों से तुमने हमसे कोई नाता जोड़ रखा है। तभी तो हम आए हैं।...कुबड़ी कहती हैं मैं जानती नहीं हूं परंतु अंदर से ऐसा महसूस हो रहा है ये अंगराग क्या अपना सर्वस्व समर्पण कर दूं। ले लो प्रभु ये सर्वस्व तुम्हारा ही है। जी चाहता है आज मैं अपने हाथ से तुम्हारे शरीर पर इस अंगराग का लेप करूं। जिस प्रकार आज तक मैं उस पापी के शरीर पर लेप करती आ रही हूं। 
 
फिर श्रीकृष्ण उस कुबड़ी की ठुड्डी पर हाथ लागकर उसे सीधा खड़ा कर देते हैं। वह कुबड़ी यह चमत्कार देखकर अचंभित हो जाती है। फिर श्रीकृष्ण उसे आशीर्वाद देते हुए उसके चेहरे की कुरुपता समाप्त कर देते हैं और वह एक अति सुंदर स्त्री बन जाती है। वह आंखों में आंसू भरकर खुद को अपने पैरों से ऊपर तक अपने शरीर को देखती है। सुंदर वस्त्र और सुंदर शरीर देखकर वह कुछ भी कहने में अक्षम हो जाती है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि सुंदरी मैंने कहा था न कि तुम्हारी कुरुपता का समय समाप्त हो गया है।
 
वह सुंदरी श्रीकृष्‍ण के चरणों में बैठकर कुछ इशारा करती हैं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं बोलो क्या चाहिये। तब वह कहती हैं प्रभु आप ही ने तो मेरे मन में यह संकल्प जगाया है कि मैं अपनी कुटिया में अपने हाथों से आपके सुंदर शरीर पर लेप कर दूं। अब मुझे आपके अलावा क्या चाहिए। मुझे और कुछ नहीं चाहिए। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि हमें तुम्हारा ये संकल्प स्वीकार है। हम वचन देते हैं कि हम तुम्हें एक दिन इस सेवा का अवसर अवश्‍य प्रदान करेंगे। हम स्वयं तुम्हारी कुटिया में आएंगे। असल में तुम्हारे पिछले जनम का ऋण है ये हम पर, जब राम अवतार के समय धरती पर आए थे, तो तुमने हमारे लिए बड़ी तपस्या की थी। तुम्हारी वो तपस्या इस जन्म में अवश्य सफल होगी। परंतु आज नहीं।
 
वह सुंदरी कहती हैं आज नहीं तो कोई बात नहीं प्रभु। जब मैंने इतने जन्मों तक प्रतीक्षा की है तब इस जनम में भी मैं अपनी कुटिया में बैठी आपके चरणों की प्रतीक्षा करूंगी। यह कहने के बाद वह सुंदरी प्रभु के चरणों में अंगराग लगा देती है। फिर वह उनके चरणों में अपना सिर रख देती हैं। प्रभु वहां से चले जाते हैं। जय श्रीकृष्ण।
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
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