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Written By अनिरुद्ध जोशी

Shri Krishna 12 August Episode 102 : सुदामा की पत्नी ने जब श्रीकृष्ण को मारा ताना

Shri Krishna 12 August Episode 102 : सुदामा की पत्नी ने जब श्रीकृष्ण को मारा ताना - Shri Krishna on DD National Episode 102
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 12 अगस्त के 102वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 102 ) में राजा के सैनिकों के द्वारा महल के बाहर फेंके जाने के बाद उनकी पत्नी उनके घावों पर मलहम लगाती हैं और उसन से क्षमा मांगती है। अंत में कहती है कि मुझे मोक्ष की आवश्‍यकता नहीं मुझे तो मेरे बच्चों को लिए थोड़े से अधिक अन्न की आवश्यकता है। आपको एक ऐसी स्त्री की वेदना का ज्ञान नहीं हो सकता जिसकी आंखों के सामने उसके बच्चे भूखे पेट सिसक-सिसक कर सो गए हों। जिसका पति धन कमाने गया था परंतु एक निर्दयी राजा के हाथों घाव लेकर आ गया है। ऐसी मां और ऐसी पत्नी की पीड़ा का ज्ञान आपके किसी शास्त्र में नहीं लिखा होगा। ये समझने के लिए आपको वो शास्त्र छोड़कर जीवनशास्त्र पढ़ना होगा। जीवशास्त्र पढ़िये नाथ और जो मैं कहती हूं उस पर विश्‍वास कीजिये मुझसे अब और सहा नहीं जाता। यह सुनकर श्रीकृष्ण चौंक जाते हैं।
 
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
 
तब सुदामा कहते हैं- नहीं वसुंधरे नहीं, अच्छा जीवनशास्त्र भी पढ़ता हूं। बताओ तुम्हारा जीवनशास्त्र क्या कहता है? तब वसुंधरा कहती है कि देखिये जब आप मेरी खातिर एक भोग-विलास से भरे राजा के पास जा सकते हैं तो फिर मेरी ही खातिर आप अपने श्रीकृष्ण के पास क्यों नहीं जा सकते?...यह सुनकर सुदामा अचरण में पड़ जाता है। तब वह कहती है कि उन द्वारिकाधीश को आप भगवान मानते हैं, उनके परमभक्त भी हैं तो फिर अपने भगवान के पास भक्त को जाने में क्या अड़चन है, क्या हिचकिचाहट है क्या शर्म है? यह सुनकर श्रीकृष्ण प्रसन्न हो जाते हैं।
 
यह सुनकर सुदामा कहता है- शरम! मुझे भगवान से मांगने में कोई शरम नहीं। परंतु हिचकिचाहट है अपने मित्र के सामने हाथ फैलाने में। उससे एक पुरुष की मर्दानगी को चोट लगती है। इसलिए मैं एक मित्र के द्वार पर जाने से हिचकिचा रहा हूं।... श्रीकृष्ण और रुक्मिणी यह संवाद बड़ी रोचकता से सुन रहे होते हैं। 
 
सुदामा की पत्नी कहती है- परंतु क्यों नाथ? आप उनके पास जाने से क्यों हिचकिचा रहे हैं जिनका नाम लेकर सारा संसार जिता है। वो तो दीनों की सुध लेने वाले हैं इसीलिए दिनदयाल कहलाते हैं। देखिये आप इस तीसरेपन में भी इन दयाहिन संसारियों के द्वार पर भिक्षा मांगने जाते हैं परंतु उस दिन दयाल के द्वार पर क्यों नहीं जाते हैं? वो तो मांगे बिना ही सबकुछ देने वाले हैं। वो तो ‍तीनों लोकों में सबसे बड़े दानी है।....यह सुनकर श्रीकृष्ण भावुक हो जाते हैं।
 
इस पर सुदामा कहता है कि तुम ठीक कहती हो वसुंधरे। मेरे श्रीकृष्ण तो ऐसे ही है परंतु वो तो उनका भगवान रूप है लेकिन जैसा मैंने कहा मेरा और उनका एक दूसरा रिश्ता भी है मित्रता का। मित्रता के कुछ आदर्श होते हैं। जहां मित्रता का भाव होता है वहां दोनों में बराबरी का भाव होना चाहिए। भले ही एक धनी हो या एक गरीब हो। फिर भी वे एक-दूसरे के साथ बराबरी का व्यवहार करते हैं। देखो वसुंधरे मैं भगवान की दया सहन कर सकता हूं परंतु एक मित्र की दया सहन नहीं कर सकता।.. श्रीकृष्ण और रुक्मिणी सुन रहे होते हैं। इसलिए बड़ों का कहना है कि किसी मित्र के घर पर खाने तभी जाना चाहिए जब आप भी उसको अपने घर बुलाकर उसे खाना खिला सकते हो। 
 
यह सुनकर सुदामा की पत्नी कहती है कि इसका उत्तर तो उन्होंने बचपन में ही दे दिया था। आपने ही बताया था कि जब आपने उनसे अपनी निर्धनता की बात कही थी तो उन्होंने वचन दिया था कि केवल वे ही मित्रता निभाएंगे, आप पर मित्रता का बोझ कभी ना डालेंगे। बोलो कहा था ना? यह सुनकर सुदामा कहता है- हां कहा था मेरा हाथ पकड़कर। यह सुनकर वसंधुरा कहती है- तो फिर वो अपने वचन के पक्के हैं। फिर क्यों नहीं आप उन त्रिलोकिनाथ के वचनों पर विश्‍वास करते। वे अवश्य ही आपसे मित्रता निभाएंगे। मुझे विश्‍वास है कि आपके पहुंचते ही वह आपका स्वागत एक मित्रता की भांति करेंगे।...यह सुनकर श्रीकृष्ण प्रसन्न हो जाते हैं। फिर वसुंधरा कहती हैं कि एक बार आप वहां पहुंचे तो सही। 
 
तब सुदामा कहता है कि वहां पहुंचना ही तो मुश्‍किल है देवी। तुम क्या समझती हो कि वो मेरी प्रतीक्षा में पहले से ही अपने लंबे हाथ करके बैठे होंगे? नहीं वसुंधरे वो राज राजेश्वर है जहां अनेक राजा, लोकपाल, देवता, गंधर्व, किन्नर द्वार के बाहर इस प्रतीक्षा में खड़े रहते हैं कि कब उन पर उनकी कृपा दृष्टि पड़े की द्वारपाल उन्हें अंदर आने की आज्ञा दें। वहां तक मेरे जैसा फटेहाल दीन व्यक्ति कैसे पहुंच सकता है। यह सुनकर सुदामा की पत्नी कहती है कि सब लोग भले ही वहां प्रतीक्षा में खड़े रहें परंतु आपको तो पता ही है कि वो अंतरयामी है।...यह सुनकर श्रीकृष्ण भावुक हो जाते हैं।... आपके पहुंचने पर वे स्वयं ही जान जाएंगे और सबसे पहले आपसे ही भेंट करेंगे। कोई द्वारपाल आपको नहीं रोकेगा।
 
 
यह सुनकर सुदामा कहता है कि यह सोचो वसुंधरा कि उस समय उनके दरबार में देश-देश के राजे-रजवाड़े, किन्नर-गंधर्व जाने कौन-कौन खड़े होंगे। वहां नंगे पांव और फटे कपड़ों के साथ जब मैं जाऊंगा तो क्या कहकर मेरा परिचय कराएंगे कि वह गर्व से कह सकेंगे कि यह मेरा मित्र है? और यदि मैं स्वयं मित्र कहकर उनसे गले लग जाऊंगा तो सबके सामने उन्हें कितना संकोचित होना पड़ेगा।...यह सुनकर श्रीकृष्ण भावुक हो जाते हैं।... तब सुदामा कहता है कि मेरे कारण उन्हें सबके सामने आंखें नीची करनी पड़े ऐसा मैं कभी नहीं करूंगा। इससे से तो ये ही अच्छा है कि अब तक सुख-दु:ख के दिन जिस प्रकार से काट लिए हैं आगे भी उसी प्रकार काट लेंगे। अब जीवन के अंतिम प्रहर में एक मित्र का अहसान लेकर कनोड़ा क्यों बनाती हो मुझे।...
 
इस तरह सुदामा और उसकी पत्नी के बीच कई तरह का संवाद होता रहता है और अंत में सुदामा नहीं मानता है और कहता है- धर्म कहता है कि विपत्ति के समय मित्र के यहां न जाइये। उसकी पत्नी बहुत ही निराश होकर दीया लेने चली जाती है और सुदामा लेटकर कराहने लगता है। तब वह दीये का तेल उसके घाव पर लगाती है तो सुदामा कहता है कि यह तेल मत लगाओ यदि कल भिक्षा ना मिली तो घर में दीपक भी नहीं जलेगा। यह सुन और देखकर श्रीकृष्ण बहुत भावुक हो जाते हैं।
 
फिर सुदामा की पत्नी श्रीकृष्ण की मूर्ति से कहती है- ऐसे हठी ब्राह्मण की आप भी‍ कुछ सहायता नहीं कर सकते? कैसे भगवान हो आप? ये मुझसे सेवा ना कराते ना सही, आप ही इनके घाव भर दो। आपके भक्त भी हैं और मित्र भी। यह सुनकर सुदामा कहते हैं- इसे क्षमाकर देना प्रभु पगली है। यह सुन और देखकर वसुंधरा दीया बुझाकर सो जाती है। दोनों सो जाते हैं।
 
फिर श्रीकृष्ण रुक्मिणी से कहते हैं- लो देवी पत्नी ने आदेश दे दिया कि मैं स्वयं जाकर सुदामा की सेवा करूं और सुदामा उसके लिए प्रार्थना कर रहा है कि पगली समझकर उसे क्षमा कर दूं। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- तो अब किसकी बात मानेंगे प्रभु? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- दोनों की। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- अर्थात मैं समझी नहीं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- अर्थात एक की सेवा कर दूंगा और दूसरे को क्षमा कर दूंगा। 
 
फिर श्रीकृष्ण सोए हुए सुदामा के समक्ष प्रकट होकर अपने हाथों से उनके हाथ के घावों पर माखन लगाते हैं। सुदामा नींद में ही कहता है रहने दे। मैंने मना किया था ना कि तेल मत लगाओ, फिर क्यों लगा रही हो? उधर सुदामा की पत्नी कहती है- ये नींद में किससे बातें कर रहे हो? तब सुदामा कहता है- तुम्हीं से तो कह रहा हूं तेल मत लगाओ। श्रीकृष्ण उसके घावों पर माखन लगाते रहते हैं। रुक्मिणी यह देखती रहती है।...फिर वसुंधरा कहती है- परंतु मैं कब तेल लगा रही हूं। इस पर सुदामा कहता है कि तेल नहीं लगा रही हो तो फिर क्या लगा रही हो? यह सुनकर सुदामा की पत्नी सुदामा की ओर करवट बदलकर कहती है- मैं तो सो रही हूं। 
 
यह सुनकर सुदामा आंख खोलकर देखता है और कहता है वसुंधरे अभी-अभी तुमने मेरे घाव पर तेल लगाया है। फिर वह अपने हाथ से माखल को छूकर कहता है- ये देखो तेल की चिकनाहट। यह सुनकर वसुंधरा उठकर कहती है- क्या कह रहे हैं आप किचनाहट! चिकनाहट कहां से आ गई? यह सुनकर तब सुदामा भी उठ जाता है और कहता है- ये देखो। 
 
तब उसकी पत्नी आकर उसके हाथ देखती है तो वह आश्चर्य से कहती है- अरे ये तो! तब सुदामा कहता है- ये तो क्या?...तब वह कहती है- ये तो माखन है। यह सुनकर सुदामा कहता है ये कैसा चमत्कार है? यह सुनकर उसकी पत्नी कहती है- ये चमत्कार नहीं दिव्य घटना है। इस पर सुदामा कहता है- दिव्य घटना कैसी? तब उसकी पत्नी पास रखे माखन के कटोरे को उठाकर कहती है- ये देखिये माखन की कटोरी। ये अपने आप तो यहां नहीं आ सकती, इसे कोई लाया होगा। सुदामा उस कटोरी को अपने हाथ में लेकर देखता है और फिर कहता है- कौन लाया होगा?
 
तभी उसकी पत्नी मुंह पर हाथ रखकर रोने लगती है और कहती है- अभी तक नहीं समझे नाथ? मैंने जो ताना दिया था। आपके मित्र श्रीकृष्ण को कि वह स्वयं आकर आपकी सेवा क्यों नहीं करते। तो इसके उत्तर में वो सचमुच ही माखन की कटोरी लेकर सचमुच ही चले आए। यह सुनकर सुदामा अवाक रह जाता है।...श्रीकृष्ण भी भावुक हो जाते हैं।
 
तब सुदामा की पत्नी कहती है- मुझसे भूल हो गई मुझे क्षमा कर दीजिये नाथ। मुझसे पाप हो गया। यह सुनकर सुदामा भी रोने लगता है और कहता है- पापी तुम नहीं वसुंधरे पापी तो मैं हूं। जिसने अपने हठ के कारण अपने स्वामी को अपने प्रभु को यहां आने पर विवश कर दिया।... यह सुनकर श्रीकृष्ण की भी आंखों में आंसू आ जाते हैं।... सुदामा रोते हुए कहता है- इतना कष्ट दिया उन्हें। मैं पापी हूं, मुझे क्षमा कर दो प्रभु।... यह सुन और देखकर रुक्मिणी की आंखों से आंसू बहने लगते हैं।
 
वसुंधरा अपने रोते हुए पति को संभालकर कहती है- मेरी बात सुनिये। मुझे तो कुछ और ही लगता है। तब सुदामा रोते हुए कहता है क्या लगता है तुम्हें? इस पर वसुंधरा कहती है कि इसमें तो मुझे प्रभु का एक संदेश लगता है। तब सुदामा पूछता है- कैसा संदेश? तब वह कहती है कि यही कि जैसे वह कह रहे हो कि यदि तुम मेरे पास न आने का हठ करते रहोगे तो मुझे स्वयं तुम्हारे पास आना पड़ेगा। यह सुनकर सुदामा चौंककर कहता है- स्वयं आना पड़ेगा! यह सुनकर वसुंधरा कहती है- हां। यह सुनकर सुदामा कहता है- नहीं प्रभु नहीं। प्रभु तुम्हें यहां आने की आवश्यकता नहीं, मैं स्वयं आऊंगा प्रभु, मैं स्वयं आऊंगा। प्रभु मेरे हठ को क्षमा कर दो प्रभु। मैं स्वयं आपके चरणों में आऊंगा प्रभु। 
 
यह सुनकर रुक्मिणी प्रसन्न होकर कहती है- प्रभु बधाई हो, बधाई हो प्रभु। वो आ रहा है आप यही चाहते थे ना? लो भगवान की जीत हो गई। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- ये भगवान की जीत नहीं रुक्मिणी एक मित्र की जीत है। एक मित्र पर निस्वार्थ मित्रता के प्रेम की जीत है। 
 
फिर प्रात: सुदाम स्नान के बाद जनेऊ साफ करता है तब उसकी पत्नी उत्तरीय लेकर देती है तब वह उसे गले में डालकर फिर श्रीकृष्ण की मूर्ति के समक्ष उन्हें फूल अर्पित करता है और फिर वह वसुंधरा से कहता है- वसुंधरे एक बात का संकोच हो रहा है। तब उसकी पत्नी कहती है- फिर संकोच। अब कैसा संकोच हो रहा है? तब वह कहता है कि देखो किसी मित्र के घर जाओ तो कहते हैं कि खाली हाथ नहीं जाना चाहिए। और कुछ ना हो तो पान-सुपारी ही लेकर जाओ। परंतु हमारे पास तो पान-सुपारी है ही नहीं। वो हमसे पूछेंगे के मित्र भाभी ने मेरे लिए क्या भेजा है? कम से कम चावल के चार दाने पकाकर तो जरूर भेंजे होंगे, तो क्या उत्तर दूंगा?
 
तब वसुंधरा कहती है- तनिक ठहरिये स्वामी। मैं अभी पास वाली पंडिताईन से कुछ मांग कर लाती हूं। फिर वसुंधरा दो मुठ्ठी चावल लेकर आती है और वह देखती है कि सुदामा अपने चारों बच्चों को प्यार कर रहे हैं। फिर वह सुदामा को वह चावल की पोटली देते हुए कहती है- ये लीजिये मेरी ओर से द्वारिकाधीश को यही भेंट कर देना। वह अंतरयामी हैं मेरी भावना से ही प्रसन्न हो जाएंगे। सुदामा वह चावल की पोटली अपनी कमर में बांध लेता है और श्रीकृष्ण की मूर्ति की ओर देखकर कहता है- मेरे पास इतना ही है प्रभु।....यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- इतना भी बहुत है मित्र। फिर रुक्मिणी कहती है- अरे वाह प्रभु! आपकी भाभी ने तो आपके मजे करा दिए, अकेले मत खा जाना।
 
फिर श्रीकृष्ण हंसते हुए कहते हैं- सोच रहा हूं कि यह लड़खड़ाता हुआ ब्राह्मण द्वारिका तक पहुंचेगा कैसे? तब रुक्मिणी कहती है- क्या बात है प्रभु कोई नई लीला करने का विचार है? यह सुनकर श्रीकृष्ण हंसते हुए कहते हैं- मित्रों में तो चुगलबाजी होती ही रहती है। 
 
फिर उधर, सुदामा और उसकी पत्नी पास के एक विष्णु मंदिर में जाते हैं। फिर मूर्ति के दर्शन करके वह कहता है- प्रभु मैं एक लंबी यात्रा पर जा रहा हूं। द्वारिका कब पहचूंगा और वहां से कब लौट कर आऊंगा कुछ पता नहीं। सो अपने पीछे मैं अपनी पत्नी और बच्चों को आपके संवरक्षण में छोड़कर जा रहा हूं। इनकी हर प्रकार से रक्षा करना प्रभु। और ये आशीर्वाद दो कि जब मैं लौटकर आऊं तो इनको और अपने समस्त नगरवासियों को सकुशल देखूं। ऐसा कहकर वह मंदिर की देहली पर अपना सिर टिकाकर प्रणाम करता है। 
 
फिर उसकी पत्नी कहती है- देव मेरे पति कठिन यात्रा पर जा रहे हैं। इनकी पग-पग पर रक्षा करना। इनके पास यात्रा के लिए कोई साधन नहीं है। पांव में कोई चप्पल नहीं, सिर पर पगड़ी नहीं। अपनी कृपा की छांव इन पर बनाए रखना। ऐसा आशीर्वाद दो प्रभु की रास्ते में जो भी कंकर और कांटे हो वो इनके चरणों से दूर रहें और इनकी यात्रा सफल हो।... फिर वसुंधरा मूर्ति के चरणों से एक फूल उठाकर उन्हीं के चरणों का कंकूं निकालकर वह अपने पति के माथे पर लगाकर उनके सिर पर वह फूल रख देती है और फिर अपने पति के चरण पड़ती है। तब सुदामा कहता है- तुम्हारा कल्याण हो। फिर वह कहती है कि मां भगवती की कृपा से मैं शीघ्र ही आपका हंसता हुआ मुख फिर से देखूंगी।
 
फिर सुदामा कहता है- वसुंधरे अपना ध्यान रखना। तब वसुंधरा भी कहती है- आप भी अपना ध्यान रखना। किसी अनजान व्यक्ति की बातों में मत आ जाना। सुना है रास्तें में निर्जन रास्ते पड़ते हैं जहां चोर यात्रियों का सामान लूटने के लिए घुमते रहते हैं। तब सुदामा कहता है- मेरे पास है ही क्या जो चुराएगा। मेरे पास भक्ति के अलावा है ही क्या? अब जाओ बच्चों के जागने का समय हो गया है उनसे कहना कि मैं द्वारिका से अच्छी-अच्छी मिठाइयां लेकर आऊंगा।...
 
फिर वह वहां से चला जाता है। उसकी पत्नी उसे पीछे से देखती है। कुछ दूर जाकर वह भी पलटकर देखता है। ऐसा वह दो से तीन बार करता है। फिर सुदामा उसकी नजरों से दूर चला जाता है। सुदामा को आसमान से सभी देवता देखकर भावुक हो नमस्कार करते हैं। श्रीकृष्ण उसे अपनी द्वारिका की ओर आता देख बहुत ही प्रसन्न होते हैं। जय श्रीकृष्णा। जय श्रीकृष्णा। 
 
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