आखिर रावण की श्रीलंका कहां थी? इस बारे में खोजकर्ता अपने-अपने मत रखते हैं जिनमें वे उन ऐतिहासिक तथ्यों को नजरअंदाज कर देते हैं, जो कि रामायण में बताए गए हैं या कि देशभर में बिखरे हुए हैं। एक शोधकर्ता लंका की स्थिति को आंध्रप्रदेश में गोदावरी के मुहाने पर बताते हैं तो दूसरे उसे मध्यप्रदेश के अमरकंटक के पास। हालांकि इनका सराहनीय शोधकार्य आने वाले शोधार्थियों को प्रेरणा दे सकता है। जरूरी है कि भारतीय इतिहास पर समय-समय पर शोधकार्य होते रहे और हम किसी एक निर्णय पर निष्पक्ष रूप में पहुंचे।
अमरकंटक में थी लंका : लंका की स्थिति अमरकंटक में बताने वाले विद्वान हैं इंदौर निवासी सरदार एमबी किबे। इन्होंने सन् 1914 में 'इंडियन रिव्यू' में रावण की लंका पर शोधपूर्ण निबंध में प्रतिपादित किया था कि रावण की लंका बिलासपुर जिले में पेंड्रा जमींदार की पहाड़ी में स्थित है। बाद में उन्होंने अपने इस दावे में संशोधन किया और कहा कि लंका पेंड्रा में नहीं, अमरकंटक में थी।
इस दावे को लेकर उन्होंने सन् 1919 में पुणे में प्रथम ऑल इंडियन ओरियंटल कांग्रेस के समक्ष एक लेख पढ़ा। जिसमें उन्होंने बताया कि लंका विंध्य पर्वतमाला के दुरूह शिखर में शहडोल जिले में अमरकंटक के पास थी। किबे ने अपना ये लेख ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संपन्न इंटरनेशनल कांग्रेस ऑफ ओरियंटलिस्ट्स के 17वें अधिवेशन और प्राच्यविदों की रोम-सभा में भी पढ़ा था। हालांकि उनके दावे में कितनी सचाई है यह तो कोई शोधार्थी ही बता सकता है।
किबे के दावे को दो लोगों ने स्वीकार किया। पहले हरमन जैकोबी और दूसरे गौतम कौल। पुलिस अधिकारी गौतम कौल पहले रावण की लंका को बस्तर जिले में जगदलपुर से 139 किलोमीटर पूर्व में स्थित मानते थे। कौल सतना को सुतीक्ष्ण का आश्रम बताते हैं और केंजुआ पहाड़ी को क्रौंचवन, लेकिन बाद में उन्होंने रावण की लंका की स्थिति को अमरकंटक की पहाड़ी स्वीकार किया। इसी तरह हरमन जैकोबी ने पहले लंका को असम में माना, पर बाद में किबे की अमरकंटक विषयक धारणा को उन्होंने स्वीकार कर लिया। इसी तरह रायबहादुर हीरालाल और हंसमुख सांकलिया ने लंका को जबलपुर के समीप माना, पर रायबहादुर भी बाद में किबे की धारणा के पक्ष में हो गए जबकि सांकलियाजी हीरालाल शुक्ल के पक्ष में हो गए।
अन्य विद्वानों का मत : सन् 1921 में एनएस अधिकारी ने इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप को लंका सिद्ध करने के 20 साल बाद सीएम मेहता ने कहा कि श्री हनुमान ने विमान से समुद्र पार किया था और लंका की खोज ऑस्ट्रेलिया में करनी चाहिए। सन् 1904 में अयप्पा शास्त्री राशि वडेकर ने मत व्यक्त किया कि लंका सम्प्रति उज्जयिनी के समानांतर समुद्र तट से 800 मील दूर कहीं समुद्र में जलमग्न है।
लंका की स्थिति भूमध्य रेखा पर मानने के कारण वाडेर ने आधुनिक मालदीव या मलय को लंका माना जबकि टी. परमाशिव अय्यर ने सिंगापुर से लेकर इन्द्रगिरि रिवेरियन सुमात्रा तक व्याप्त भूमध्यरेखीय सिंगापुर को लंका घोषित किया। 14वीं सदी में ज्योतिर्विद भास्कराचार्य ने लंका को उज्जयिनी की ही अक्षांश रेखा पर भूमध्य रेखा में स्थित माना था। एक विद्वान विष्णु पंत करंदीकर ने लंका को इंदौर जिले में महेश्वर के पास नर्मदा तट पर स्थित माना है।
गोदावरी के डेल्टा पर थी रावण की लंका : मिथकों में इतिहास की खोज करने वाले प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर हीरालाल शुक्ल के अनुसार रावण की लंका गोदावरी के डेल्टा अर्थात जहां गोदावरी समुद्र में मिल जाती है, वहां पर स्थित थी। बंगाल की खाड़ी में आंध्रप्रदेश का दौलेश्वरम् वह स्थान है, जहां गोदावरी 7 भागों में विभाजित होकर समुद्र में मिल जाती है वहीं पर एक द्वीप बनता है जिसे हीरालाल लंका कहते हैं।
शुक्ल के अनुसार श्रीलंका रावण की लंका नहीं है। लंका अलग है, सीलोन अलग। लंका और श्रीलंका अलग है। आज का सिंहल द्वीप ही श्रीलंका है जिसे लंका नहीं कहा जा सकता। रावण सिंहल या श्रीलंका का नहीं, लंका का राजा था और यह लंका गोदावरी नदी के मुहाने पर थी। शुक्ल के अनुसार विभिन्न पुराणों में लंका और सिंहल का पृथक उल्लेख मिलता है। दशरथ के काल में सिंहल का राजा चन्द्रसेना था, रावण नहीं। वाल्मीकि रामायण 4.41 के अनुसार रावण के कथानुसार लंका प्रवेश के लिए ताम्रपर्णी नदी को पारकर महेन्द्रगिरि के दक्षिण में चलना पड़ता था। सीलोन को अगर लंका मानें, तो वहां पहुंचने के लिए ताम्रपर्णी नदी नहीं पार करना पड़ती है।
डॉ. कुबेरनाथ राय, हंसमुख धीरजलाल सांकलिया, डॉ. लाल सभी ने उनकी इस बात का समर्थन किया। डॉ. पार्टीजर भी यह मानते हैं कि सीलोन रामायणकालीन नहीं है। हीरालाल कहते हैं कि यह भ्रम तुलसीदास के काल में फैला कि आज का सिंहल या सीलोन ही रावण की लंका है। सवाल यह उठता है कि तुलसीदास ने रामायण और रामायण से संबंधित अन्य कई रामायण पढ़कर ही रामचरित मानस लिखी थी। वे भी तो खोजकर्ता और शोधार्थी थे। रामचरित मानस लिखना हर किसी के बस की बात तो नहीं।
हीरालाल के अनुसार यह मान्यता अति प्रबल है कि रामेश्वरम से अतिदूर सीलोन या श्रीलंका ही रावण की लंका है लेकिन रावण की लंका गोदावरी के डेल्टा में थी जिसे ग्रंथों में त्रिकूट कहा गया है। गोदावरी के मुहाने पर जहां नदी गोमती और वसिष्ठी दो भागों में विभाजित हो जाती है वहीं पर समुद्र में इनके विलय से जो द्वीप बना है उसे आज भी लंका कहते हैं। इसे ही त्रिकूट कहा जाता है। हीरालाल गोदावरी तट पर स्थित नासिक की पंचवटी को रामायणकालीन नहीं मानते हैं। वे इस तथ्य को नकारते हैं कि जहां लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी थी उसी के कारण इस स्थान का नाम नासिक पड़ा।
हीरालाल से पहले सर्वप्रथम सन् 1876 में डॉ. केन ने संकेत दिया था कि भद्राचलम (खम्मण) के टेकापल्ली तालुका के रेकापल्ली गांव के वासी मानते हैं कि रावण समीपवर्ती एक भूखंड में निवास करता था। बाद में सुरवरि प्रताप रेड्डी ने तेलुगु ग्रंथ 'रामायण विशेषमुलु' (हैदराबाद 1930) में मत व्यक्त किया कि लंका कृष्णा और गोदावरी के मध्य कहीं स्थित थी और हनुमान ने संभवत: गोदावरी की किसी शाखा को पार किया था। सन् 1932 में पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र ने महाकोशल हिस्टोरिकल रिसर्च सोसायटी के शोधपत्र (बिलासपुर 1932, खंड 1 पृष्ठ 20) में संक्षिप्त उल्लेख किया था कि आंध्रप्रदेश के इस क्षेत्र में लंका मानना चाहिए, जो समुद्र तट से संलग्न है।
खंडन : यदि हम डॉ. हीरालाल शुक्ल की बातों को मानते हैं तो लंका ही नहीं, प्रत्येक वह स्थान बदलना होगा, जो रामायणकाल से जुड़ा है। मसलन कि फिर समुद्र, धनुषकोडी, रामसेतु और किष्किंधा कहां थे? फिर राम के रामेश्वरम् जाकर शिवलिंग की स्थापना करने का क्या औचित्य? रामेश्वरम् के पास कोडीकरई वह स्थान था, जहां हनुमान और सुग्रीव से मिलने के बाद श्रीराम ने अपनी सेना का गठन किया और लंका की ओर चल पड़े थे। महाकाव्य रामायण के अनुसार भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करने के पहले यहां भगवान शिव की पूजा की थी। ...तो क्या यह मानें कि दौलेश्वरम् से 1,000 किलोमीटर दूर श्रीराम ने पहले रामेश्वरम् में पूजा-अर्चना की फिर लंका पर चढ़ाई की?
बंगाल की खाड़ी में दौलेश्वरम् वह स्थान है, जहां गोदावरी 7 भागों में विभाजित होकर समुद्र में मिल जाती है वहीं पर एक द्वीप बनता है जिसे हीरालाल लंका कहते हैं। दौलेश्वरम् आंध्रप्रदेश के राजमुंदरी जिले में आता है। दौलेश्वरम् से रामेश्वरम की दूरी करीब-करीब 1,000 किलोमीटर है। अब सवाल यह उठता है कि श्रीराम क्यों पहले उल्टे रामेश्वरम् गए फिर दौलेश्वरम आए, वह भी 1,000 किलोमीटर दूर जबकि उनके पास संकटकाल में इतना समय नहीं था कि वहां जाएं।
हीरालाल शुक्ल माल्यवान पर्वत को रत्नागिरि (महाराष्ट्र), अनागुंदू (मैसूर) या रायचूर में न मानकर बस्तर में तुलसी डोंगरी में मानते हैं। माल्यवान पर्वत पर ही राम ने सीता के विरह में कुछ दिन बिताए थे। शुक्लजी इसी तरह क्रोंचगिरि को शबरी नदी से थोड़ी दूर कोरापुर में स्थित मानते हैं और ऋष्यमूक जहां सुग्रीव ने बाली के भय से अपना निवास स्थान बनाया था, को गोदावरी तट पर उत्तर में स्थित किष्किंधा में मानते हैं।
जबकि हमारे मतानुसार ऋष्यमूक पर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकट स्थित था। यह किष्किंधा कर्नाटक में स्थित है। इसी पर्वत पर श्रीराम की हनुमान से भेंट हुई थी। बाद में हनुमान ने राम और सुग्रीव की भेंट करवाई, जो एक अटूट मित्रता बन गई। जब महाबली बाली अपने भाई सुग्रीव को मारकर किष्किंधा से भागा तो वह ऋष्यमूक पर्वत पर ही आकर छिपकर रहने लगा था। यह ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किंधा नगर कर्नाटक के हम्पी, जिला बेल्लारी में स्थित है।
एमबी किबे और उनके अनुयायियों ने रीवा संभाग में कंधों ग्राम को प्राचीन किष्किंधा मानने से इंकार किया है। वे कहते हैं कि गोदावरी और पंपालेख के संगम से थोड़ी दूर पापीकोंडा (पंपा पर्वत) की उपत्यका में स्थित आधुनिक किक्किडा ही किष्किंधा है। दरअसल, यह आंध्रप्रदेश का आधुनिक काकीनाडु है, जो गोदावरी के डेल्टा के पास स्थित है। बाली किष्किंधावासी था लेकिन उसकी वानरसेना दंडकारण्य तक छाई हुई थी।
हीरालाल मानते हैं कि वाल्मीकि गोदावरी के दक्षिण में स्थित प्रदेशों से अपरिचित थे। हीरालाल यह भी कह चुके हैं कि लंका के बारे में भ्रम तुलसीदास के काल में फैला। इसका मतलब यह कि उनकी नजरों में ये दोनों विद्वान अल्पज्ञ थे। हीरालाल के मतानुसार आंध्र में खम्मण जिले में भद्राचलम से 44 मील दक्षिण पूर्व में स्थित रामगिरि की रघुवंश में वर्णित रामगिरि है। वर्तमान का अबूझमाड़ राकसमेटा पर्वत है। भद्राचलम से 3 मील दूर एटपक (जटपक) में जटायु का आवास था और दुम्मगुड़ेम में उसने रावण से संघर्ष किया था। यह संघर्ष इतना विकराल था कि धूल के बादल उड़े और गांव का नाम ही दुम्मे (धूल) गुड़ेम (गांव) पड़ गया। वे यह भी कहते हैं कि रावण के रथ के आघात के कारण समीपवर्ती पहाड़ी का नाम रादपु (रथ) गुट्टा (पहाड़ी) पड़ा।
वर्तमान में खम्मण और पूर्वी गोदावरी की सहायक नदी पंपालेरू ही रामायण की पंपा नदी है। शुक्ल के अनुसार शबरी नदी दंडकारण्य में मिलती है। पंपा भी गोदावरी में विलीन होती है। आगे गोदावरी पापी पहाड़ियों में बहती है, जहां उसकी गहराई 200 फुट तक है। पापी (पंपा) कुंड की रचना कर वह पोलावरम के समीप मैदानी क्षेत्र में प्रकट होती है। महेन्द्र पर्वत के समीप राजहेंद्र में उसका पाट 2 मील और दोवलेश्वर के पास 4 मील चौड़ा हो जाता है। यहां गोदावरी मुख्यत: 2 शाखाओं में विभक्त और समुद्र से घिरा हुआ गोदावरी का डेल्टा ही रावण की लंका है। ऐसा लगता है कि गोदावरी के पास ही नल के मार्गदर्शन में सेतुबंध बना था लेकिन वह सेतु कहां है? डॉ. शुक्ल के अनुसार वैद्यराज सुषेण के कहने से सुदूर उत्तर में हिमालय में गंधमादन से जड़ी-बूटी उठा लाए थे। वे समीपवर्ती गंधमादन (पूर्व परिमलगिरि) जो उड़ीसा में संबलपुर और बलांगीर की सीमा बनाता है, से लक्ष्मण के मूर्छित होने के बाद औषध ले गए थे।
खंडन : अब यदि शुक्ल के इस मत को मानें तो फिर केरल की पंपा नदी को भुलना होगा। वहां पंपा सरोवर को भी भुलना होगा। वहां के सभी तीर्थों को भी भूलना होगा। विरुपाक्ष मंदिर के पास से ऋष्यमूक पर्वत तक के लिए मार्ग जाता है। यहां तुंगभद्रा नदी (पम्पा) धनुष के आकार में बहती है। श्रीराम पम्पा नदी के पास शबरी आश्रम भी गए, जो आजकल केरल में स्थित है। तुंगभद्रा नदी में पौराणिक चक्रतीर्थ माना गया है। पास ही पहाड़ी के नीचे श्रीराम मंदिर है। पास की पहाड़ी को 'मतंग पर्वत' माना जाता है। पौराणिक ग्रंथ 'रामायण' में भी हम्पी का उल्लेख वानर राज्य किष्किंधा की राजधानी के तौर पर किया गया है। इसी पर्वत पर मतंग ऋषि का आश्रम था। केरल से आगे जाकर श्रीराम ने रामेश्वरम में पूजा-अर्चना की और बाद में वहीं कुछ और आगे जाकर रामसेतु बनवाया जिसके अवशेष आज भी मौजूद हैं।
दण्डकारण्य में मुनियों के आश्रमों में रहने के बाद श्रीराम कई नदियों, तालाबों, पर्वतों और वनों को पार करने के पश्चात नासिक में अगस्त्य मुनि के आश्रम गए। मुनि का आश्रम नासिक के पंचवटी क्षेत्र में था। उस काल में पंचवटी जनस्थान के अंतर्गत आता था। मरीच का वध पंचवटी के निकट ही मृगव्याधेश्वर में हुआ था। गिद्धराज जटायु से श्रीराम की मैत्री भी यहीं हुई थी। वाल्मीकि रामायण, अरण्यकांड में पंचवटी का मनोहर वर्णन मिलता है।
वाल्मीकि रामायण पर आधारित वर्तमान शोधानुसार रामेश्वरम् के पास कोडीकरई में हनुमान और सुग्रीव से मिलने के बाद श्रीराम ने अपनी सेना का गठन किया और लंका की ओर चल पड़े। मलय पर्वत, चंदन वन, अनेक नदियों, झरनों तथा वन-वाटिकाओं को पार करके राम और उनकी सेना ने समुद्र की ओर प्रस्थान किया। श्रीराम ने पहले अपनी सेना को कोडीकरई में एकत्रित किया था। तमिलनाडु की एक लंबी तट रेखा है, जो लगभग 1,000 किमी तक विस्तारित है। कोडीकरई समुद्र तट वेलांकनी के दक्षिण में स्थित है, जो पूर्व में बंगाल की खाड़ी और दक्षिण में पाल्क स्ट्रेट से घिरा हुआ है। लेकिन राम की सेना ने उस स्थान के सर्वेक्षण के बाद जाना कि यहां से समुद्र को पार नहीं किया जा सकता और यह स्थान पुल बनाने के लिए उचित भी नहीं है, तब श्रीराम की सेना ने रामेश्वरम् की ओर कूच किया। रामेश्वरम् समुद्र तट एक शांत समुद्र तट है और यहां का छिछला पानी तैरने और सन बेदिंग के लिए आदर्श है।
सुकेश के 3 पुत्र थे- माली, सुमाली और माल्यवान। माली, सुमाली और माल्यवान नामक 3 दैत्यों द्वारा त्रिकुट सुबेल (सुमेरु) पर्वत पर बसाई गई थी लंकापुरी। माली को मारकर देवों और यक्षों ने कुबेर को लंकापति बना दिया था। रावण की माता कैकसी सुमाली की पुत्री थी। अपने नाना के उकसाने पर रावण ने अपनी सौतेली माता इलविल्ला के पुत्र कुबेर से युद्ध की ठानी थी और लंका को फिर से राक्षसों के अधीन लेने की सोची।
रावण ने सुंबा और बाली द्वीप को जीतकर अपने शासन का विस्तार करते हुए अंगद्वीप, मलय द्वीप, वराह द्वीप, शंख द्वीप, कुश द्वीप, यव द्वीप और आंध्रालय पर विजय प्राप्त की थी। इसके बाद रावण ने लंका को अपना लक्ष्य बनाया। लंका पर कुबेर का राज्य था, परंतु पिता ने लंका के लिए रावण को दिलासा दी तथा कुबेर को कैलाश पर्वत के आसपास के त्रिविष्टप (तिब्बत) क्षेत्र में रहने के लिए कह दिया। इसी तारतम्य में रावण ने कुबेर का पुष्पक विमान भी छीन लिया।
आज के युग के अनुसार रावण का राज्य विस्तार, इंडोनेशिया, मलेशिया, बर्मा, दक्षिण भारत के कुछ राज्य और संपूर्ण श्रीलंका पर रावण का राज था। श्रीलंका की श्रीरामायण रिसर्च कमेटी के अनुसार रामायण काल से जुड़ी लंका वास्तव में श्रीलंका ही है। कमेटी के अनुसार श्रीलंका में रामायण काल से जुड़ी 50 जगहों पर रिसर्च की गई है और इसकी ऐतिहासिकता सिद्ध की है।
डॉ. शुक्ल की लंका का वर्णन : गोदावरी जब समुद्र में विलीन होती है तो मुख्यत: 2 शाखाओं में विभाजित हो जाती है। गोदावरी की एक शाखा गौमती और दूसरी वसिष्ठी कहलाती है। गौमती गोदावरी पूर्वान्मुख होकर रामचन्द्रपुरम और काकिनाडु की दक्षिण सीमा में प्रभावित होकर उन्हें राजोल और ममलापुरम से पृथक कर अनेक धाराओं में विभक्त होकर समुद्र में प्रवेश करती है तो वसिष्ठी गोदावरी दक्षिणोन्मुखी हो राजोल की पश्चिमी सीमा बनाती हुई नरसापुर के पास समुद्र में समाहित हो जाती है। जिला मुख्यालय काकिनाडु से
40 मीर दूर राजोल तालुका चारों और से जल प्रवास से घिरा है। पूर्व में बंगाल खाड़ी उत्तर में गौमती और दक्षिण में वासिष्ठी से घिरे इस त्रिकूट को ही क्षेत्रीय जनता लंका मानती हैं।
डॉ. शुक्ल के अनुसार गोदावरी के त्रिकूट में 101 उपद्वीप या लंकाएं हैं। कुछ लंकाओं के नाम इस प्रकार हैं- लंका, बीसन लंका, पिलंका, कोयलंका, मूर लंका, गोदि लंका, वक्क लंका, वोद्दवरि लंका, चिंता लंका, येदुरलंका, बेलम लंका, पसरपुड़ि लंका, वंतेलंका, वेसिसुअरि लंका, मडिमवल्ल लंका आदि। राक्षसराज इन सभी 101 लंका का स्वामी था और लकड़ी, ईंट, पत्थर आदि से बने दुर्ग उसके राज्य को अभेद्य सुरक्षा प्रदान करते थे।
यदि यहां की लंकाओं का व्यापक सर्वेक्षण और उत्खनन किया जाए तो प्राचीन लंका की स्थिति का ज्ञान हो सकता है। माना जाता है कि राजोल तालक में वैनतेमय नदी के पार्श्व में स्थित लंका ही मूल लंका थी। इसके दक्षिण में बादिलंका और एक ओर अकलापुरम 6 मील दूर है। यहां वडपल्ले, काडलि, पालिवेला आदि ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व के गांव हैं। यहां के एक गांव का नाम लक्ष्मणेश्वर है, जहां राम और लक्ष्मण के बहुत ही प्राचीन मंदिर हैं। इसके अलावा प्रत्येक उपद्वीपीय ग्राम में आज भी रामालयम, आंजनेयालयम, अगत्स्येश्वशलम और अम्मालयम है। द्राक्षाराम और राजुल के देवालय अत्यंत प्राचीन हैं।
श्रीलंका के शोध : श्रीलंका में वह स्थान ढूंढ लिया गया है, जहां रावण की सोने की लंका थी। ऐसा माना जाता है कि जंगलों के बीच रानागिल की विशालका पहाड़ी पर रावण की गुफा है, जहां उसने तपस्या की थी। यह भी कि रावण के पुष्पक विमान के उतरने के स्थान को भी ढूंढ लिया गया है। ऐसी खबरें भी पढ़ने को मिलीं कि रामायणकाल के कुछ हवाई अड्डे भी ढूंढ लिए गए हैं।
श्रीलंका का इंटरनेशनल रामायण रिसर्च सेंटर और वहां के पर्यटन मंत्रालय ने मिलकर रामायण से जुड़े ऐसे 50 स्थल ढूंढ लिए हैं जिनका पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्व है और जिनका रामायण में भी उल्लेख मिलता है। श्रीलंका सरकार ने 'रामायण' में आए लंका प्रकरण से जुड़े तमाम स्थलों पर शोध कराकर उसकी ऐतिहासिकता सिद्ध कर उक्त स्थानों को पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित करने की योजना बना ली है। इसके लिए उसने भारत से मदद भी मांगी है। श्रीलंका में मौजूद जिन स्थलों का 'रामायण' में जिक्र हुआ है, उन्हें चमकाए जाने की योजना है। इस योजना के तहत यहां आने वाले विदेशी, खासकर भारतीय पर्यटकों को 'रावण की लंका' के कुछ खास स्थलों को देखने का मौका मिलेगा।
अभी तक मिली जानकारी के अनुसार, "श्रीलंकाज रामायण ट्रेल" नामक "स्प्रिच्युअल टूरिज्म" की योजना को लेकर श्रीलंका सरकार के पास 2008 में काफी पत्र और ज्यादा जानकारी मांगने के लिए लोग पहुंचे। इसी क्रम में भारत से एक संत 400 शिष्यों के साथ इस "ट्रेल" के लिए पहुंचे। तीन सप्ताह में इस "ट्रेल" में 25 स्थान घुमाए गए।
मगर क्या ये बात सच है कि टेलीविजन चैनलों ने अथवा श्रीलंका सरकार ने ऊंचे पर्वत पर स्थित था। मगर समय के साथ दो तिहाई लंका सागर में समा चुकी है। आज भी दक्षिण एशिया की ओर जाने वाले जहाज सागर में कुछ हिस्सों में जाने से बचते हैं, क्योंकि पानी के नीचे मौजूद पहाड़ के हिस्सों से टकराने का खतरा होता है। जहां हनुमान जी ने अपनी पूंछ की आग बुझायी थी वह स्थान आज भी मौजूद है।
श्रीलंका पर अपने विस्तृत अध्ययन के बाद डॉ. विद्यासागर ने सर्चलाइट नामक अखबार में अपनी खोज का विवरण चार कड़ियों में प्रकाशित कराया था। बाद में उस पर अंग्रेजी में किताब भी लिखी- रामायणाज लंका। फिर उन्होंने ही इसका हिन्दी में रामायण की लंका नाम से अनुवाद किया जिसे श्री बालेश्वर अग्रवाल ने 1980 में प्रकाशित कराया। बालेश्वर जी उस समय भारत भारती संस्था के सचिव थे। पुस्तक में डॉ. विद्यासागर ने रामायण के वे अंश दिए हैं जिनमें लंका स्थित अनेक स्थानों का जिक्र आता है और उन स्थानों पर डॉ. विद्यासागर ने जो देखा उसका वर्णन भी किया है। मगर अपने इतिहास और संस्कृति को झुठलाने वाले लोगों ने इस पुस्तक पर न खास ध्यान दिया, न ही इसका उतना प्रसार होने दिया। उनकी 31 पृष्ठ की पुस्तक रामायण की श्रीलंका में अनेक अंश हैं जिनमें वाल्मीकि रामायण के वर्णन के अनुसार विभिन्न स्थानों की भौतिक स्थितियों और स्थानीय मान्यताओं का स्पष्ट उल्लेख है। यहां हम उस पुस्तक से कुछ अंश पुस्तक की भाषा में विशेष बदलाव किये बिना प्रकाशित कर रहे हैं- शासकीय अभिलेखों में:-
*श्रीलंका में रामायण से सम्बन्धित प्रसंग शासकीय इतिहास व अभिलेखों में थोड़े ही मिलते हैं। लेकिन ये सभी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रसंग इस द्वीप को "रामायण की लंका" संबंधी प्रचलित मान्यताओं की ओर इंगित करते हैं।
*महावंसा- सिंहल इतिहास एवं संस्कृति की दृष्टि से श्रीलंका के सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ महावंसा में मातले के पास लंकापुरा का नाम आता है। रावण के शासनकाल में यह नगर बहुत महत्वपूर्ण था।
*4 फरवरी 1969 को कैंडी, जहां अंतिम सिंहल राजा का राज था, में श्रीलंका की स्वतंत्रता की। श्रीलंका संसद में 29 सितम्बर 1969 को हुई एक बहस के दौरान यह प्रश्न उठाया गया था कि श्रीलंका में पहला विदेशी यात्री कौन था? श्री लीलारत्ने विजयसिंघे का विचार था कि द्वीप में पहला विदेशी यात्री होने का श्रेय पुर्तगाली व्यक्ति को मिलना चाहिए। सरकारी प्रवक्ता, श्री जस्टिन रिचर्ड जयवर्धने, जो उस समय शासन में एक प्रमुख मंत्री थे, ने कहा कि "इसका श्रेय सीता को मिलना चाहिए।"
लंका का आकार : शोधानुसार ईसा पूर्व 2,387 में रावण की मृत्यु के तुरन्त बाद लंका का कुछ अंश जलमग्न हो गया था। इस घटना के पूर्व लंका की परिधि 5,120 मील थी और बाद में इसकी परिधि केवल 2992 मील रह गई। महावंसा के द्वितीय शासक पांडुवा (जिन्होंने ईसा पूर्व 504 से 474 तक शासन किया) के काल में दुबारा श्रीलंका का कुछ क्षेत्र जलमग्न हो गया। इसके बाद श्रीलंका पर एक गंभीर विपत्ति देवानाम पिया तिस्सा और उसके सामन्त केलनिया तिस्सा (ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी) के काल में आई। इसके फलस्वरूप लंका का आकार केवल 928 मील रह गया।
प्रसिद्ध यात्री मार्कोपोलो, जिन्होंने सन 1293 ई. में श्रीलंका की यात्रा की थी, ने इस देश के बारे में लिखा है- "यह देश परिधि में 2,400 मील है परन्तु प्राचीन काल में यह और बड़ा था, उस समय इसकी परिधि 3600 मील थी।"
कुछ प्रमुख स्थल : वेरांगटोक, जो महियांगना से 10 किलोमीटर दूर है वहीं पर रावण ने सीता का हरण कर पुष्पक विमान को उतारा था। महियांगना मध्य श्रीलंका स्थित नुवारा एलिया का एक पर्वतीय क्षेत्र है। इसके बाद सीता माता को जहां ले जाया गया था उस स्थान का नाम गुरुलपोटा है जिसे अब 'सीतोकोटुवा' नाम से जाना जाता है। यह स्थान भी महियांगना के पास है। एलिया पर्वतीय क्षेत्र की एक गुफा में सीता माता को रखा गया था जिसे 'सीता एलिया' नाम से जाना जाता है। यहां सीता माता के नाम पर एक मंदिर भी है। इसके अलावा और भी स्थान श्रीलंका में मौजूद हैं, जिनका ऐतिहासिक महत्व है।
रावणैला गुफा : आज भी श्रीलंका में रावणैल या रावण इला नाम से एक गुफा मौजूद है। वैलाव्या और ऐला के बीच सत्रह मील लम्बे मार्ग का 16 मई 1970 को उस समय के तात्कालीन राज्यमंत्री ने उद्घाटन कहते हुए कहा था कि '... उस मार्ग पर एक बहुत सुन्दर स्थान, जिसने उनका ध्यान खींचा है, रावणैला गुफा है। रावण ने सीता से भेंट करने के लिए उस गुफा में प्रवेश करने का प्रयत्न किया था, परन्तु वह न तो गुफा के अन्दर जा सका और न सीता के ही दर्शन कर सका।'
रावण का महल : कहा जाता है कि लंकापति रावण के महल, जिसमें वह अपनी पटरानी मंदोदरी के साथ निवास करता था, के अब भी अवशेष मौजूद हैं। यह वही महल है जिसे पवनपुत्र हनुमान ने लंका के साथ जला दिया था।
लंकादहन को रावण के विरुद्ध राम की पहली बड़ी रणनीतिक जीत माना जा सकता है, क्योंकि महाबली हनुमान के इस कौशल से वहां के सभी निवासी भयभीत होकर कहने लगे कि जब सेवक इतना शक्तिशाली है तो स्वामी कितना ताकतवर होगा। ...और जिस राजा की प्रजा भयभीत हो जाए तो वह आधी लड़ाई तो यूं ही हार जाता है।
गुसाईं जी पंक्तियां देखिए- 'चलत महाधुनि गर्जेसि भारी, गर्भ स्रवहि सुनि निसिचर नारी'। अर्थात लंकादहन के पश्चात जब हनुमान पुन: राम के पास जा रहे थे तो उनकी महागर्जना सुनकर राक्षस स्त्रियों का गर्भपात हो गया।
अशोक वाटिका : अशोक वाटिका लंका में स्थित है, जहां रावण ने सीता को हरण करने के पश्चात बंधक बनाकर रखा था। ऐसा माना जाता है कि एलिया पर्वतीय क्षेत्र की एक गुफा में सीता माता को रखा गया था जिसे 'सीता एलिया' नाम से जाना जाता है। यहां सीता माता के नाम पर एक मंदिर भी है।
वेरांगटोक, जो महियांगना से 10 किलोमीटर दूर है वहीं पर रावण ने सीता का हरण कर पुष्पक विमान को उतारा था। महियांगना मध्य श्रीलंका स्थित नुवारा एलिया का एक पर्वतीय क्षेत्र है। इसके बाद सीता माता को जहां ले जाया गया था उस स्थान का नाम गुरुलपोटा है जिसे अब 'सीतोकोटुवा' नाम से जाना जाता है। यह स्थान भी महियांगना के पास है।
एलिया पर्वतीय क्षेत्र की एक गुफा में सीता माता को रखा गया था जिसे 'सीता एलिया' नाम से जाना जाता है। यहां सीता माता के नाम पर एक मंदिर भी है। इसके अलावा और भी स्थान श्रीलंका में मौजूद हैं, जिनका ऐतिहासिक महत्व है।
सीता एलिया में रावण की भतीजी त्रिजटा, जो सीता की देखभाल के लिए रखी गई थी, के साथ सीता को रखा गया था। यह स्थान न्यूराऐलिया से उदा घाटी तक जाने वाली एक मुख्य सड़क पर पांच मील की दूरी पर स्थित है। इसी सड़क पर हक्गला उद्यान के पास एक छोटा मन्दिर बना है। यह "सीता अम्मन कोविले" कहलाता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि यह स्थान "अशोकवन" जहां सीता ने अपने बंदी जीवन के अंतिम दिन बिताए थे।
रावण के विमान और एयरपोर्ट : रावण ने कुबेर को लंका से हटाकर वहां खुद का राज्य कायम किया था। धनपति कुबेर के पास पुष्पक विमान था जिसे रावण ने छीन लिया था। रावण के इस पुष्पक विमान में प्रयोग होने वाले ईंधन से संबंधित जानकारियों पर मद्रास की ललित कला अकादमी के सहयोग से भारत अनुसंधान केंद्र द्वारा बड़े पैमाने पर शोध कार्य किया गया। श्रीलंका की श्रीरामायण रिसर्च कमेटी के अनुसार रावण के 4 हवाई अड्डे थे।
उसके 4 हवाई अड्डे ये हैं- उसानगोड़ा, गुरुलोपोथा, तोतूपोलाकंदा और वारियापोला। सिंहली में वारियापोला का अर्थ है हवाई अड्डा। कुरनांगला जिले में था एक अड्डा, दूसरा अड्डा मातली जिले में था। सबसे अहम था वेरेगनटोटा हवाई अड्डा। एक हवाई अड्डे का मालिक अहिरावण था। अहिरावण का हवाई अड्डा था तोतूपोलाकंदा, हालांकि तोतूपोलाकंदा पर भी रावण का अधिकार था।
उसानगोड़ा हवाई अड्डा : इन 4 में से एक उसानगोड़ा हवाई अड्डा नष्ट हो गया था। कमेटी के अनुसार सीता की तलाश में जब हनुमान लंका पहुंचे तो लंकादहन में रावण का उसानगोड़ा हवाई अड्डा नष्ट हो गया था। उसानगोड़ा हवाई अड्डे को स्वयं रावण निजी तौर पर इस्तेमाल करता था। यहां रनवे लाल रंग का है। इसके आसपास की जमीन कहीं काली तो कहीं हरी घास वाली है। यह लड़ाकू जहाजों के लिए इस्तेमाल होता था।
रिसर्च कमेटी के अनुसार पिछले 4 साल की खोज में ये हवाई अड्डे मिले हैं। कमेटी की रिसर्च के मुताबिक रामायण काल से जुड़ी लंका वास्तव में श्रीलंका ही है। कैंथ ने बताया कि श्रीलंका में 50 जगहों पर रिसर्च की गई है।
वेरांगटोक जो महियांगना से 10 किलोमीटर दूर है वहीं पर रावण ने सीता का हरण कर पुष्पक विमान को उतारा था। महियांगना मध्य श्रीलंका स्थित नुवारा एलिया का एक पर्वतीय क्षेत्र है। इसके बाद सीता माता को जहां ले जाया गया था, उस स्थान का नाम गुरुलपोटा है जिसे अब 'सीतोकोटुवा' नाम से जाना जाता है। यह स्थान भी महियांगना के पास है। वेरांगटोक में था रावण का वायुसेना मुख्यालय।
एलिया पर्वतीय क्षेत्र की एक गुफा में सीता माता को रखा गया था जिसे 'सीता एलिया' नाम से जाना जाता है। यहां सीता माता के नाम पर एक मंदिर भी है। इसके अलावा और भी स्थान श्रीलंका में मौजूद हैं जिनका ऐतिहासिक महत्व है।
रावण का झरना : 'रावण एल्ला' नाम से एक झरना है, जो एक अंडाकार चट्टान से लगभग 25 मीटर अर्थात 82 फुट की ऊंचाई से गिरता है। रावण एल्ला वॉटर फॉल घने जंगलों के बीच स्थित है। यहां सीता नाम से एक पुल भी है। इसी क्षेत्र में रावण की एक गुफा भी है जिसे 'रावण एल्ला गुफा' के नाम से जाना जाता है। यह गुफा समुद्र की सतह से 1,370 मी. की ऊंचाई पर स्थित है। यह स्थान श्रीलंका के बांद्रावेला से 11 किलोमीटर दूर है।
रावण का शव : ईसा पूर्व 5076 साल से पहले से आज तक रावण का शव श्रीलंका की रानागिल (रैगला) की गुफा में सुरक्षित रखा है यानी आज उसे 7 हजार 90 वर्ष हो चुके हैं। अंतरिक्ष एजेंसी नासा के 'प्लेनेटेरियम सॉफ्टवेयर' की गणणा के अनुसार ईसा पूर्व 5076 साल पहले राम ने रावण का संहार किया था।
ऐसा माना जाता है कि रैगला के जंगलों के बीच एक विशालकाय पहाड़ी पर रावण की गुफा है, जहां उसने घोर तपस्या की थी। उसी गुफा में आज भी रावण का शव सुरक्षित रखा हुआ है। रैगला के घने जंगलों और गुफाओं में कोई नहीं जाता है, क्योंकि यहां जंगली और खूंखार जानवरों का बसेरा है। रैगला के इलाके में रावण की यह गुफा 8,000 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। जहां 17 फुट लंबे ताबूत में रखा है रावण का शव। इस ताबूत के चारों तरफ लगा है एक खास लेप जिसके कारण यह ताबूत हजारों सालों से जस का तस रखा हुआ है।
गौरतलब है कि मिस्र में प्राचीनकाल में ममी बनाने की परंपरा थी, जहां आज भी पिरामिडों में हजारों साल से कई राजाओं के शव रखे हुए हैं। यह भी जानना जरूरी है कि उस समय शैव संप्रदाय में समाधि देने की रस्म थी। रावण शैवपंथी था।
डांडू मोनरया : देश के शिक्षा प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित सिंहल रीडर- भाग 3, में रावण पर दो पाठ दिए गए हैं। पाठ पांच का शीर्षक है "डांडू मोनरया" (अर्थात मयूर रूपी विमान) और पाठ छह का शीर्षक "राम-रावण युद्ध" है। लोरानी सेनारत्ने, जो लम्बे समय तक श्रीलंका के इतिहास और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से संबंधित रही हैं और श्रीलंका की इटली में राजदूत भी रह चुकी हैं, ने अपनी पुस्तक "हेअरस टू हिस्ट्री" में पहले दो भाग रावण पर ही लिखे हैं। उनके अनुसार रावण 4,000 वर्ष ईसा पूर्व हुआ था। रावण चमकते हुए दरवाजे वाले 900 कमरों के महल में निवास करता था। देश के अन्य भागों में उसके पच्चीस महल या आरामगाहें थीं। अगस्त, 1971 में एक बौद्ध भिक्षु ने दावा किया था कि एक पर्वत शिखर पर बने सुदृढ़ किले में रावण का शव अपनी पूर्व अवस्था में अब भी सुरक्षित रखा हुआ है।
रामसेतु : रामसेतु जिसे अंग्रेजी में एडम्स ब्रिज भी कहा जाता है, भारत (तमिलनाडु) के दक्षिण-पूर्वी तट के किनारे रामेश्वरम् द्वीप तथा श्रीलंका के उत्तर-पश्चिमी तट पर मन्नार द्वीप के मध्य बनी एक श्रृंखला है। भौगोलिक प्रमाणों से पता चलता है कि किसी समय यह सेतु भारत तथा श्रीलंका को भू-मार्ग से आपस में जोड़ता था। यह पुल करीब 18 मील (30 किलोमीटर) लंबा है।
भारत के दक्षिण में धनुषकोटि तथा श्रीलंका के उत्तर-पश्चिम में पम्बन के मध्य समुद्र में 48 किमी चौड़ी पट्टी के रूप में उभरे एक भू-भाग के उपग्रह से खींचे गए चित्रों को अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (नासा) ने जब 1993 में दुनियाभर में जारी किया तो भारत में इसे लेकर राजनीतिक वाद-विवाद का जन्म हो गया था।
रामसेतु का चित्र नासा ने 14 दिसंबर 1966 को जेमिनी-11 से अंतरिक्ष से प्राप्त किया था। इसके 22 साल बाद आईएसएस-1 ए ने तमिलनाडु तट पर स्थित रामेश्वरम और जफना द्वीपों के बीच समुद्र के भीतर भूमि-भाग का पता लगाया और उसका चित्र लिया। इससे अमेरिकी उपग्रह के चित्र की पुष्टि हुई।
भारत के दक्षिण-पूर्व में रामेश्वरम् और श्रीलंका के पूर्वोत्तर में मन्नार द्वीप के बीच उथली चट्टानों की एक चेन है। समुद्र में इन चट्टानों की गहराई सिर्फ 3 से लेकर 30 फुट के बीच है। इस पुल की लंबाई लगभग 48 किमी है। यह ढांचा मन्नार की खाड़ी और पाक जलडमरू मध्य को एक-दूसरे से अलग करता है। इस इलाके में समुद्र बेहद उथला है।
रामसेतु पर कई शोध हुए हैं। कहा जाता है कि 15वीं शताब्दी तक इस पुल पर चलकर रामेश्वरम् से मन्नार द्वीप तक जाया जा सकता था, लेकिन तूफानों ने यहां समुद्र को कुछ गहरा कर दिया। 1480 ईस्वी सन् में यह चक्रवात के कारण टूट गया और समुद्र का जलस्तर बढ़ने के कारण यह डूब गया। प्राचीनकाल से ही इस पुल जैसे भू-भाग को राम का पुल या रामसेतु कहा जाता था, लेकिन श्रीलंका के मुसलमानों ने इसे आदम पुल कहना शुरू किया। फिर ईसाई या पश्चिमी लोग इसे एडम ब्रिज कहने लगे। दोनों धर्मों के अनुसार 'आदम' इस पुल से होकर गुजरे थे।
संदर्भ :
* पांचजञ्य पत्रिका
* वैदिक युग और रामायण काल की ऐतिहासिकता : समुद्री की गहराइयों से आकाश की ऊंचाइयों तक के वैज्ञानिक प्रमाण (सरोज बाला, अशोक भटनागर, कुलभूषण मिश्रा)
छत्तीसगढ़ से प्रकाशित पत्रिका 'दुनिया इन दिनों'
(समाप्त)