गुरुवार, 5 दिसंबर 2024
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Written By अनिरुद्ध जोशी

भारत की 9 बहादुर रानियां

भारत की 9 बहादुर रानियां - The Indian Queen
सैकड़ों वर्षों तक हिन्दू राजाओं को एक ओर जहां विदेशी आक्रांताओं से लड़ना पड़ा, वहीं उन्हें अपने पड़ोसी राजाओं से मिल रही चुनौती का सामना भी करना पड़ा। मध्यकाल और अंग्रेज काल में कई राजाओं और रानियों को बलिदान देना पड़ा था। ऐसे कई मौके आए, जब राज्य की बागडोर रानियों को संभालना पड़ी और वे हंसते-हंसते देश पर अपनी जान न्योछावर कर गईं।

1857 की क्रांति में सहयोगी महिलाएं : 1857 की क्रांति में रानी लक्ष्मीबाई, रानी गाइदिन्ल्यू, रानी द्रौपदी, महारानी तपस्विनी के अलावा गोरखपुर के निकट तुलसीपुर की रानी ईश्वर कुमारी, अनूपनगर के राजा प्रताप चंडी सिंह की पत्नी चौहान रानी, मध्यप्रदेश के रामगढ़ रियासत की रानी अवंतिका बाई लोधी, सिकंदर बाग की वीरांगना ऊदा देवी, नाना साहेब पेशवा की पुत्री मैना, झांसी की महिला फौज की एक सैनिक वीरांगना झलकारी देवी, महारानी लक्ष्मीबाई की प्रिय सहेली तथा प्रमुख सलाहकारों में एक मुन्दर, हिंडोरिया (दमोह, मप्र) के ठाकुर किशोर सिंह की रानी, जालौन राज्य की रानी तेजबाई, दक्षिण भारत के कर्नाटक के कित्तूर की रानी चेन्नम्मा, बुंदेलखंड क्षे‍त्र के जैतपुर के राजा परीक्षित की रानी, कानपुर की नर्तकी अजीजन बेगम, अवध के नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल आदि सभी ने 1857 की क्रांति में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह में योगदान दिया था।

गांधार, कंबोज, कुरु, पांचाल, कौशल, काशी, मगध आदि राज्य के विदेशी आक्रांताओं के हाथों में चले जाने के बाद महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के जनपदों के राजाओं ने विदेशी आक्रांताओं से कड़ा मुकाबला कर अपने राज्य की रक्षा की। आओ जानते हैं हम भारत की उन प्रमुख महान महिलाओं के बारे में जिन्होंने विदेशियों और दुश्मनों से अपने राज्य को बचाने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया।

हम यहां आपको बताएंगे उन खास महारानियों के बारे में जिनकी वीरता और संघर्ष को भारतीय इतिहास में गर्व के साथ गाया जाता है और गाया जाता रहेगा।

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महारानी पद्मिनी : रानी पद्मिनी राजा गंधर्व सेन और रानी चंपावती की पुत्री थीं। रानी पद्मिनी का विवाह चित्तौड़ के राजा रत्नसिंह के साथ हुआ था। रानी पद्मिनी की सुंदरता और वीरता के चर्चे दूर-दूर तक थे।

रानी पद्मिनी की सुंदरता पर दिल्ली का सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी मोहित हो गया। रानी को हासिल करने के लिए अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर हमला कर दिया।

चढ़ाई और घेरे के बाद अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर धावा बोल दिया और राजा रत्नसिंह को धोखे से मार गिराया। तब यह देखकर रानी पद्मिनी ने राजपूत वीरांगनाओं के साथ जौहर की अग्नि में 1303 ईस्वी में आत्मदाह कर लिया।

उल्लेखनीय है कि राणा सांगा के पुत्र राणा उदयसिंह की धाय मां पन्ना धाय के बलिदान को भी कोई नहीं भूल सकता।

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रानी दुर्गावती : वीरांगना महारानी दुर्गावती का जन्म 1524 में हुआ था। उनका राज्य गोंडवाना में था। महारानी दुर्गावती कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की एकमात्र संतान थीं। राजा संग्राम शाह के पुत्र दलपत शाह से उनका विवाह हुआ था। दुर्भाग्यवश विवाह के 4 वर्ष बाद ही राजा दलपतशाह का निधन हो गया। उस समय दुर्गावती का पुत्र नारायण 3 वर्ष का ही था अतः रानी ने स्वयं ही गढ़मंडला का शासन संभाल लिया। वर्तमान जबलपुर उनके राज्य का केंद्र था।

दुर्गावती के वीरतापूर्ण चरित्र को भारतीय इतिहास से इसलिए काटकर रखा गया, क्योंकि उन्होंने मुस्लिम शासकों के विरुद्ध कड़ा संघर्ष किया था और उनको अनेक बार पराजित किया था। अंग्रेज शासनकाल में लिखे गए इतिहास और बाद में वामपंथियों द्वारा लिखे गए इतिहास में तथाकथित अकबर को महान बताया गया।

अकबर के कडा मानिकपुर के सूबेदार ख्वाजा अब्दुल मजीद खां ने रानी दुर्गावती के विरुद्ध अकबर को उकसाया था। अकबर अन्य राजपूत घरानों की विधवाओं की तरह दुर्गावती को भी रनवासे की शोभा बनाना चाहता था। अकबर ने अपनी कामुक भोग-लिप्सा के लिए एक विधवा पर जुल्म किया। लेकिन धन्य है रानी दुर्गावती का पराक्रम कि उसने अकबर के जुल्म के आगे झुकने से इंकार कर स्वतंत्रता और अस्मिता के लिए युद्ध भूमि को चुना और अनेक बार शत्रुओं को पराजित करते हुए 1564 में बलिदान दे दिया। उनकी मृत्यु के पश्चात उनका देवर चन्द्रशाह शासक बना व उसने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली।

रानी रूपमती के प्यार में अंधे हुए स्त्री-लोलुप सूबेदार बाजबहादुर ने भी रानी दुर्गावती पर बुरी नजर डाली थी लेकिन उसको मुंह की खानी पड़ी। दूसरी बार के युद्ध में दुर्गावती ने उसकी पूरी सेना का सफाया कर दिया और फिर वह कभी पलटकर नहीं आया। महारानी ने 16 वर्ष तक राज संभाला। इस दौरान उन्होंने अनेक मंदिर, मठ, कुएं, बावड़ी तथा धर्मशालाएं बनवाईं।

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रानी कर्णावती (कर्मवती) : राजस्थान के मेवाड़ की रानी कर्णावती को कौन नहीं जानता। एक ओर जहां मुगल सम्राट हुमायूं अपने राज्य का विस्तार करने में लगा था तो दूसरी ओर गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने 1533 ईस्वी में चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया था। रानी कर्णावती चित्तौड़ के राजा की विधवा थीं। रानी के दो पुत्र थे- राणा उदयसिंह और राणा विक्रमादित्य।

ऐसे में महारानी कर्णावती ने राजपूतों और मुस्लिमों के संघर्ष के बीच हुमायूं के सामने प्रस्ताव रखा कि हम परस्पर संधि करके अपने समान शत्रु बहादुरशाह का मिलकर सामना करें। मुगल सम्राट हुमायूं ने रानी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। हालांकि हूमायूं किसी को भी नहीं बख्शता था लेकिन उसके दिल में रानी कर्णावती का प्यार अच्छे से उतर गया और उसने रानी का साथ दिया। हुमायूं को रानी ने अपना धर्मभाई बनाया था इसलिए हुमायूं ने भी राखी की लाज रखते हुए उनके राज्य की रक्षा की।

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महारानी तपस्विनी : झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की भतीजी और बेलूर के जमींदार नारायण राव की बेटी महारानी तपस्विनी की वीरता की प्रसिद्धि भी दूर-दूर तक थी। उन्हें 'माताजी' के नाम से बुलाया जाता था। वे एक बाल विधवा थीं। उनके बचपन का नाम सुनंदा था। बचपन से ही उनमें राष्ट्रप्रेम की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी। वे हमेशा ईश्वर का पूजा-पाठ करतीं और शस्त्रों का अभ्यास करती थीं।

जब 1857 ईस्वी में क्रांति का बिगुल बजा, तब रानी तपस्विनी ने भी अपनी चाची के साथ इस क्रांति में सक्रिय रूप से भाग लिया। उनके प्रभाव के कारण अनेक लोगों ने इस क्रांति में अहम भूमिका निभाई। 1857 की क्रांति की विफलता के बाद उन्हें तिरुचिरापल्ली की जेल में रखा गया। बाद में वे नाना साहेब के साथ नेपाल चली गईं, जहां उन्होंने नाम बदलकर काम शुरू किया।

नेपाल पहुंचकर माताजी ने वहां बसे भारतीयों में देशभक्ति की भावना की अलख जगाई। नेपाल के प्रधान सेनापति चन्द्र शमशेर जंग की मदद से उन्होंने गोला-बारूद व विस्फोटक हथियार बनाने की एक फैक्टरी खोली ताकि क्रांतिकारीयों की मदद की जा सके। लेकिन सहयोगी खांडेकर के एक मित्र ने धन के प्रलोभन में आकर अंग्रेजों को तपस्विनी के बारे में सब कुछ बता दिया। तब तपस्विनी नेपाल छोड़कर कलकत्ता चली गईं।

कलकत्ता में उन्होंने 'महाभक्ति पाठशाला' खोलकर बच्चों को राष्ट्रीयता की शिक्षा दी। 1902 ईस्वी में बाल गंगाधर तिलक कलकत्ता आए तो उनकी माताजी से मुलाकात हुई। 1905 ई. में जब बंगाल विभाजन के विरुद्ध आंदोलन प्रारंभ हुआ था, तब रानी ने उसमें सक्रिय भूमिका निभाई थी। 1907 ईस्वी में माताजी की मृत्यु हो गई।

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झांसी की रानी : झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी में 19 नवंबर 1835 में हुआ था। बचपन में उनका नाम मणिकर्णिका था। सब उनको प्यार से 'मनु' कहकर पुकारा करते थे। सिर्फ 4 साल की उम्र में ही उनकी माता की मृत्यु हो गई थी इसलिए मनु के पालन-पोषण की जिम्मेदारी उनके पिता पर आ गई थी।

1842 में मनु की शादी झांसी के राजा गंगाधर राव से हुई। शादी के बाद मनु को 'लक्ष्मीबाई' नाम दिया गया। 1851 में इनको एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई लेकिन मात्र 4 महीने बाद ही उनके पुत्र की मृत्यु हो गई। उधर उनके पति का स्वास्थ्य बिगड़ गया तो सबने उत्तराधिकारी के रूप में एक पुत्र गोद लेने की सलाह दी। इसके बाद दामोदर राव को गोद लिया गया। 21 नवंबर 1853 को महाराजा गंगाधर राव की भी मृत्यु हो गई। इस समय लक्ष्मीबाई 18 साल की थीं और अब वे अकेली रह गईं, लेकिन रानी ने हिम्मत नहीं हारी व अपने फर्ज को समझा।

जब दामोदर को गोद लिया गया उस समय वहां अंग्रेजों का राज था। ब्रिटिश सरकार ने बालक दामोदर को झांसी का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और वे झांसी को ब्रितानी राज्य में मिलाने का षड्यंत्र रचने लगे। उस वक्त भारत में डलहौजी नामक वायसराय‍ ब्रितानी सरकार का नुमाइंदा था। जब रानी को पता लगा तो उन्होंने एक वकील की मदद से लंदन की अदालत में मुकदमा दायर किया, लेकिन ब्रितानियों ने रानी की याचिका खारिज कर दी।

मार्च 1854 में ब्रिटिश सरकार ने रानी को महल छोड़ने का आदेश दिया, लेकिन रानी ने निश्चय किया कि वे झांसी नहीं छोड़ेंगी। उन्होंने प्रण लिया कि वे झांसी को आजाद कराकर के ही दम लेंगी। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उनके हर प्रयास को विफल करने का प्रयास किया।

झांसी के पड़ोसी राज्य ओरछा व दतिया ने 1857 में झांसी पर हमला किया, लेकिन रानी ने उनके इरादों को नाकामयाब कर दिया। 1858 में ब्रिटिश सरकार ने झांसी पर हमला कर उसको घेर लिया व उस पर कब्जा कर लिया, लेकिन रानी ने साहस नहीं छोड़ा। उन्होंने पुरुषों की पोशाक धारण की, अपने पुत्र को पीठ पर बांधा। दोनों हाथों में तलवारें लीं व घोडे़ पर सवार हो गईं व घोड़े की लगाम अपने मुंह में रखी व युद्ध करते हुए वे अंत में अपने दत्तक पुत्र व कुछ सहयोगियों के साथ वहां से भाग निकलीं और तात्या टोपे से जा मिलीं।

अंग्रेज और उनके चाटुकार भारतीय भी रानी की खोज में उनके ‍पीछे लगे हुए थे। तात्या से मिलने के बाद रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर के लिए कूच किया। देश के गद्दारों के कारण रानी को रास्ते में फिर से शत्रुओं का सामना करना पड़ा। वीरता और साहस के साथ रानी ने युद्ध किया और युद्ध के दूसरे ही दिन (18 जून 1858) को 22 साल की महानायिका लक्ष्मीबाई लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गईं।

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रानी द्रौपदी : रानी द्रौपदीबाई धार क्षेत्र की क्रांति की सूत्रधार थी। 22 मई 1857 को धार के राजा का देहावसान हो गया। राजा की बड़ी रानी द्रौपदीबाई को ही राज्यभार संभालना पड़ा, क्योंकि आनंदराव बाला साहब नाबालिग थे।

अन्य राजवंशों के विपरीत अंग्रेजों ने धार के नाबालिग राजा आनंदराव को मान्यता प्रदान कर दी। वह इसलिए कि ब्रितानी चाहते थे कि क्रांति में धार क्रांतिकारियों का साथ न दें, लेकिन रानी द्रौपदी के हृदय में तो क्रांति की ज्वाला धधक रही थी। रानी के कार्यभार संभालते ही समस्त धार क्षेत्र में क्रांति लपटें फैल गईं।

रानी द्रौपदीबाई ने रामचंद्र बापूजी को अपना दीवान नियुक्त किया। बापूजी ने सदा उनका समर्थन किया। इन दोनों ने 1857 की क्रांति में ब्रितानियों का विरोध किया। क्रांतिकारियों की हरसंभव सहायता रानी ने की। रानी के भाई भीमराव भोंसले भी देशभक्त थे।

ब्रिटिश सैनिकों ने 22 अक्टूबर 1857 को धार का किला घेर लिया। यह किला मैदान से 30 फुट ऊंचाई पर लाल पत्थर से बना था। किले के चारों ओर 14 गोल तथा 2 चौकोर बुर्ज बने हुए थे। क्रांतिकारियों ने उनका डटकर मुकाबला किया। ब्रितानियों को आशा थी कि वे शीघ्र आत्मसमर्पण कर देंगे, पर ऐसा न हुआ। 24 से 30 अक्टूबर तक संघर्ष चलता रहा। किले की दीवार में दरार पड़ने के कारण ब्रितानी सैनिक किले में घुस गए। रानी द्रौपदी सहित क्रांतिकारी सैनिक गुप्त रास्ते से निकल भागे।

कर्नल डूरेंड तो पहले से ही रानी का विरोधी था। उसने किले को ध्वस्त कर दिया। धार राज्य को जब्त कर लिया गया। दीवान रामचंद्र बापू को बना दिया गया।

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सिंध के राजा दाहिर की पत्नियों और पुत्रियों का बलिदान : सिंध के दीवान गुन्दुमल की बेटी ने सर कटवाना स्वीकर किया, पर मीर कासिम की पत्नी बनना नहीं। इसी तरह वहां के राजा दाहिर और उनकी पत्नियों और पुत्रियों ने भी अपनी मातृभूमि और अस्मिता की रक्षा के लिए अपनी जान दे दी। सिंध देश के सभी राजाओं की कहानियां बहुत ही मार्मिक और दुखदायी हैं। आज सिंध देश पाकिस्तान का एक प्रांत बनकर रह गया है। राजा दाहिर अकेले ही अरब और ईरान के दरिंदों से लड़ते रहे। उनका साथ किसी ने नहीं दिया बल्कि कुछ लोगों ने उनके साथ गद्दारी की। दाहर (दाहिर) सन्‌ 679 में सिंध के राजा बने।

सिंधु देश पर राजपूत वंश के राजा राय साहसी का राज्य था। राय साहसी का कोई उत्तराधिकारी नहीं था अत: उन्होंने अपने प्रधानमंत्री कश्मीरी ब्राह्मण चच को अपना राज्य सौंपा। राजदरबारियों एवं रानी सोहन्दी की इच्छा पर राजा चच ने रानी सोहन्दी से विवाह किया। राजा दाहिर चच के पुत्र थे। राजा चच की मृत्यु के बाद उनका शासन उनके भाई चंदर ने संभाला, जो कि उनके राजकाल में प्रधानमंत्री थे। राजा चंदर ने 7 वर्ष तक सिंध पर राज्य किया। इसके बाद राज्य की बागडोर महाराजा दाहिर के हाथ में आ गई।

सिंध का समुद्री मार्ग पूरे विश्व के साथ व्यापार करने के लिए खुला हुआ था। सिंध के व्यापारी उस काल में भी समुद्र मार्ग से व्यापार करने दूर देशों तक जाया करते थे और अरब, इराक, ईरान से आने वाले जहाज सिंध के देवल बंदर होते हुए अन्य देशों की तरफ जाते थे। जहाज में सवार अरब व्यापारियों के सुरक्षाकर्मियों ने देवल के शहर पर बिना कारण हमला कर दिया और शहर से कुछ बच्चों और औरतों को जहाज में कैद कर लिया। जब इसका समाचार सूबेदार को मिला तो उसने अपने रक्षकों सहित जहाज पर आक्रमण कर अपहृत औरतों ओर बच्चों को बंधनमुक्त कराया। अरबी जान बचाकर अपना जहाज लेकर भाग खड़े हुए।

उन दिनों ईरान में धर्मगुरु खलीफा का शासन था। हजाज उनका मंत्री था। खलीफा के पूर्वजों ने सिंध फतह करने के मंसूबे बनाए थे, लेकिन अब तक उन्हें कोई सफलता नहीं मिली थी। अरब व्यपारी ने खलीफा के सामने उपस्थित होकर सिंध में हुई घटना को लूटपाट की घटना बताकर सहानुभूति प्राप्त करनी चाही। खलीफा स्वयं सिंध पर आक्रमण करने का बहाना ढूंढ रहा था। उसे ऐसे ही अवसर की तलाश थी। उसने अब्दुल्ला नामक व्यक्ति के नेतृत्व में अरबी सैनिकों का दल सिंध विजय करने के लिए रवाना किया। युद्ध में अरब सेनापति अब्दुल्ला को जान से हाथ धोना पड़ा। खलीफा अपनी हार से तिलमिला उठा।

दस हजार सैनिकों का एक दल ऊंट-घोड़ों के साथ सिंध पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया। सिंध पर ईस्वी सन् 638 से 711 ई. तक के 74 वर्षों के काल में 9 खलीफाओं ने 15 बार आक्रमण किया। 15वें आक्रमण का नेतृत्व मोहम्मद बिन कासिम ने किया। सिंधी शूरवीरों को सेना में भर्ती होने और मातृभूमि की रक्षा करने के लिए सर्वस्व अर्पण करने का आह्वान किया। कई नवयुवक सेना में भर्ती किए गए। सिंधु वीरों ने डटकर मुकाबला किया और कासिम को सोचने पर मजबूर कर दिया।

सूर्यास्त तक अरबी सेना हार के कगार पर खड़ी थी। सूर्यास्त के समय युद्धविराम हुआ। सभी सिंधुवीर अपने शिविरों में विश्राम हेतु चले गए। ज्ञानबुद्ध और मोक्षवासव नामक दो लोगों ने कासिम की सेना का साथ दिया और ‍रात्रि में सिंधुवीरों के शिविर पर हमला बोल दिया गया।

महाराज की वीरगति और अरबी सेना के अलोर की ओर बढ़ने के समाचार से रानी लाडी अचेत हो गईं। सिंधी वीरांगनाओं ने अरबी सेनाओं का स्वागत अलोर में तीरों और भालों की वर्षा के साथ किया। कई वीरांगनाओं ने अपने प्राण मातृभूमि की रक्षार्थ दे दिए। जब अरबी सेना के सामने सिंधी वीरांगनाएं टिक नहीं पाईं तो उन्होंने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए जौहर किया।

बच गईं दोनों राजकुमारियां सूरजदेवी और परमाल ने युद्ध क्षेत्र में घायल सैनिकों की सेवा की। तभी उन्हें दुश्मनों ने पकड़कर कैद कर लिया। सेनानायक मोहम्मद बिन कासिम ने अपनी जीत की खुशी में दोनों राजकन्याओं को भेंट के रूप में खलीफा के पास भेज दिया। खलीफा दोनों राजकुमारियों की खूबसूरती पर मोहित हो गया और दोनों कन्याओं को अपने जनानखाने में शामिल करने का हुक्म दिया, लेकिन राजकुमारियों ने अपनी चतुराई से कासिम को सजा दिलाई। लेकिन जब राजकुमारियों के इस धोखे का पता चला ‍तो खलीफा ने दोनों को कत्ल करने का आदेश दिया तभी दोनों राजकुमारियों ने खंजर निकाला और अपने पेट में घोंप लिया और इस तरह राजपरिवार की सभी महिलाओं ने अपने देश के लिए बलिदान दे दिया।

अगले पन्ने पर आठवीं महारानी...
राजकुमारी रत्नावती : जैसलमेर नरेश महारावल रत्नसिंह ने जैसलमेर किले की रक्षा अपनी पुत्री रत्नावती को सौंप दी थी। इसी दौरान दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन की सेना ने किले को घेर लिया जिसका सेनापति मलिक काफूर था। किले के चारों ओर मुगल सेना ने घेरा डाल लिया किंतु राजकुमारी रत्नावती इससे घबराईं नहीं और सैनिक वेश में घोड़े पर बैठी किले के बुर्जों व अन्य स्थानों पर घूम-घूमकर सेना का संचालन करती रहीं। अतत: उसने सेनापति काफूर सहित 100 सैनिकों को बंधक बना लिया।

सेनापति के पकड़े जाने पर मुगल सेना ने किले को घेर लिया। किले के भीतर का अन्न समाप्त होने लगा। राजपूत सैनिक उपवास करने लगे। रत्नावती भूख से दुर्बल होकर पीली पड़ गईं किंतु ऐसे संकट में भी राजकुमारी रत्नावती द्वारा राजधर्म का पालन करते हुए अपने सैनिकों को रोज एक मुट्ठी और मुगल बंदियों को दो मुट्ठी अन्न रोज दिया जाता रहा।

अलाउद्दीन को जब पता लगा कि जैसलमेर किले में सेनापति कैद है और किले को जीतने की आशा नहीं है तो उसने महारावल रत्नसिंह के पास संधि-प्रस्ताव भेजा। राजकुमारी ने एक दिन देखा कि मुगल सेना अपने तम्बू-डेरे उखाड़ रही है और उसके पिता अपने सैनिकों के साथ चले आ रहे हैं। मलिक काफूर जब किले से छोड़ा गया तो उसने कहा- 'यह राजकुमारी साधारण लड़की नहीं, यह तो वीरांगना के साथ देवी भी हैं। इन्होंने खुद भूखी रहकर हम लोगों का पालन किया है। ये पूजा करने योग्य आदरणीय हैं।'

अगले पन्ने पर नौवीं महारानी...
वीर बाला चम्पा : महाराणा प्रताप वन-वन भटक रहे थे किंतु उन्होंने मुगलों के सामने झुकना मंजूर नहीं किया। महाराणा के साथ उनके बच्चों को दिन-रात पैदल चलना पड़ता था। बच्चों को उपवास भी करना पड़ता था। 3-3, 4-4 दिन जंगली बेर व घास की रोटियों पर निकल जाते।

महाराणा की पुत्री चम्पा 11 वर्ष की थी। चम्पा एक दिन अपने 4 वर्षीय भाई के साथ नदी किनारे खेल रही थी। कुमार को भूख लगी थी। वह रोटी मांगते हुए रोने लगा। उस 4 वर्ष के बच्चे में समझ कहां थी कि उसके माता-पिता के पास अपने युवराज के लिए रोटी का टुकड़ा भी नहीं है। चम्पा ने अपने भाई को कहानी सुनाकर व फूलों की माला पहनाकर बहला दिया। राजकुमार भूखा ही सो गया।

चम्पा जब अपने छोटे भाई को गोद में लेकर माता के पास सुलाने आई तो महाराणा को चिंता में डूबे हुए देखकर बोली, 'पिताजी! आप चिंतित क्यों हैं?' 'बेटी! हमारे यहां एक अतिथि पधारे हैं। आज ऐसा भी दिन आ गया है कि चित्तौड़ के राणा के यहां से अतिथि भूखा चला जाए।' महाराणा ने उत्तर दिया।

चम्पा बोली, 'पिताजी! आप चिंता न करें! हमारे यहां से अतिथि भूखा नहीं जाएगा। आपने मुझे कल जो दो रोटियां दी थीं, वे मैंने भाई के लिए बचाकर रखीं थीं, वह सो गया है। मुझे भूख नहीं है। आप उन रोटियों को अतिथि को दे दीजिए।' पत्थर के नीचे दबाकर रखी घास की रोटियां पत्थर हटाकर चम्पा ले आई। थोड़ी-सी चटनी के साथ वे रोटियां अतिथि को दे दी गईं। अतिथि रोटी खाकर चला गया।

महाराणा बेटी के त्याग को देखकर द्रवित हो उठे, उनसे अपने बच्चों का कष्ट देखा नहीं गया। उस दिन उन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए पत्र लिखा। 11 वर्षीय सुकुमार बालिका चम्पा 2-4 दिन में तो घास की रोटी पाती थी और उसे भी बचाकर रख लिया करती थी। अपने भाग की रोटी वह अपने भाई को थोड़ी-थोड़ी करके खिला देती थी। भूख के मारे वह स्वयं दुर्बल व कृशकाय हो गई थी। एक दिन वह भूख से मूर्छित हो गई।

महाराणा ने उसे गोद में उठाते हुए रोकर कहा- 'मेरी बेटी! अब मैं तुझे और कष्ट नहीं दूंगा। मैंने अकबर को पत्र लिख दिया है।' यह सुनकर चम्पा मूर्छा में भी चौक पड़ी, बोली, 'पिताजी! आप यह क्या कहते हैं? हमें मरने से बचाने के लिए आप अकबर के दास बनेंगे? पिताजी! हम सब क्या कभी मरेंगे नहीं? पिताजी! देश को नीचा मत दिखाइए! आपको मेरी शपथ है, आप अकबर की अधीनता कभी स्वीकार न करें।' इन वचनों के साथ ही मासूम चम्पा महाराणा की गोद में ही सदा के लिए चुप हो गई।

कहा जाता है कि जब अकबर के दरबार में महाराणा का पत्र पहुंचा तो पत्र देखकर पृथ्वीराजजी ने पत्र की विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हुए महाराणा को पत्र लिखा और उसे पढ़कर महाराणा ने अकबर की अधीनता स्वीकार करने का विचार त्याग दिया। लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि बालिका चम्पा ने अपने बलिदान से ही महाराणा को दृढ़ता देकर भारतीय गौरव की रक्षा की।