-सुनील जैन
भारत में हाथियों की एकमात्र महिला ट्रेनर
नई दिल्ली। असम के जंगलों के रहस्यमय घेरों में हाथियों के बीच उन्हें मां के प्यार-सा दुलारती, कभी एक प्रशिक्षक की तरह से उन्हें प्रशिक्षण देती और कभी उनसे एक बच्चे की तरह से बात करके उन्हें समझाती!
इस महिला को अगर आप देखें तो हैरान मत होइए। यह कोई साधारण महिला नहीं, बल्कि हाथियों को प्रशिक्षण देने वाली भारत की एकमात्र महिला ट्रेनर है पार्बती बरुआ। असम के गौरीपुर (अब गोलपाड़ा जिले) के बरुआ राजपरिवार की पार्बती बरुआ, जो पिछले कई दशकों से राजपरिवार के एशो आराम के जिंदगी को छोड़ हाथियों के साथ रहती हैं, उन्हें प्रशिक्षण देती, हाथी अब जिसके साथी हैं।
राजधानी में इन दिनों चल रहे भारत अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेले में लगे असम मंडप के प्रवेश द्वार पर एक हाथी पर सवार एक महिला की मूर्ति इन दिनों दर्शकों के विशेष आकर्षण का केंद्र बनी हुई है। यही मूर्ति है पार्बती बरुआ की। गुवाहाटी विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान की स्नातक पार्बती ने शिक्षा क्षेत्र में करियर या कोई सामान्य करियर बनाने की बजाय हाथियों के बीच उनके अपने प्रिय 'महावत' के रूप में रहना, उनका ट्रेनर बनकर उन्हें अपना साथी बनाने को ज्यादा पसंद किया। बचपन से ही वे अपने पिता प्रकृतिश बरुआ जो खुद हाथियों के साथी रहे, उन्हें समझने वाले जानकार रहे, उनके साथ रह कर ही वे उन्हें हाथियों को प्रशिक्षण देते देखती थी, हाथियों के साथ मनुष्य का रिश्ता समझती। धीरे-धीरे यही रुचि उनका प्रेम बन गई, हाथी उनके साथी बन गए, क्रोधी से क्रोधी हाथी अपने प्रति उनकी समझ बूझ को जान उनके सामने शांत होने लगे, उन्हें अपना मानने लगे और वे एक अच्छी 'महावत' बन गई। शायद वो विश्व की गिनी चुनी महिलाओं में से हैं जो हाथियों की ट्रेनर हैं।
आठ भाई-बहनों में से उन्होंने ही पिता की राह चुनी। देवदास फिल्म से प्रसिद्धि की नई बुलंदियां छूने वाले उनके चाचा प्रथमेश बरुआ फ़िल्मी दुनिया के जाने-माने सितारे थे और इस परिवार को विरासत में मिली इसी संवेदनशीलता ने पिता, पुत्री ने प्रकृति के साथ रहकर हाथियों की प्रिय साथी बना दिया।
उनके प्रशंसकों का कहना है कि पार्बती के परिवार में तीन मादा हाथी लक्ष्मीमाला, आलोका, कंचनमाला व समर्पित कार्यकर्ताओं का दल है जो उनके इस असामान्य शौक व व्यवसाय में उनकी मदद करता है, उनका पूरा समय हाथियों को सिखाने में, उनके सरक्षण में व उनसे, जुड़ी गतिविधियों में ही जाता है और शायद इसीलिए उनकी पहचान बनी है, उन्हें हाथियों के विशेषज्ञ के रूप में पहचाने जाने की।
मंडप के प्रभारी अधिकारी बिपुल दास के अनुसार सुश्री पार्बती हाथियों की बहुत ही सहजता से संभाल करती हैं, जहाँ भी हाथी परेशानी में हैं, दिक्क़त में हैं वो अपने दलबल के साथ अपनी सेवाएं देने वहां पहुँच जाती हैं। हाथियों के सरंक्षण, उनके कल्याण से जुड़ी योजनाओं में पार्बती सक्रिय भूमिका निभाती हैं तथा बेकाबू हाथियों को वश में करना, बस्तियों से जंगली हाथियों को निकालकर उनके प्राकृतिक बसेरों में लाने तथा महावतों की ट्रेनिंग में वो सक्रिय और व्यस्त रहती हैं।
उनकी बहादुरी के कितने ही किस्से लोग सुनाते हैं, कैसे कुछ समय पहले एक एक बेकाबू जंगली हाथी ने राज्य के काज़ीरंगा जंगल क्षेत्र में आंतक मचा रखा था उसने महावत समेत बहुत से लोगों को जान से मार डाला। असम वन विभाग के पास उसे गोली मारने के अलावा कोई चारा नहीं था लेकिन पार्बती ने उसे वश में कर न केवल उसकी जान बचाई बल्कि उसे अनुशासित, शांत कर कितने ही जीवन बचाए।
अधिकारी बताते हैं कि पार्बती के बारे में कहा जाता है कि अपूर्व साहस से भरी पार्बती गहन खतरनाक जंगलों में निडर होकर प्रवेश करती हैं। इसे जिंदगी और मौत का खेल मानते हुए उनके मन में कभी-कभी ये बात भी रहती है की शायद वो जीवित नहीं लौटेंगी, लेकिन उनके प्रशंसकों का कहना का है कि हाथियों के साथ उनकी जो समझ बनी है, हाथी उन्हें अपना मानते हैं, जानते हैं उनकी भाषा, और करते हैं अपनी इस ट्रेनर से प्यार।
पार्बती का हाथी मनोविज्ञान के बारे में दर्शन स्पष्ट है- एक हाथी जो की 40-50 लोगों पर भी भारी पड़ सकता है, उसे काबू करने के लिए उसके मनोविज्ञान, उसकी तीव्र बुद्धि, उसकी याददाश्त और उसके बल को ध्यान में रखना होता है। इन चीज़ों का अगर ध्यान रखा जाए तो हाथी की सवारी आपके अपने कमरे में, आराम कुर्सी जैसी आरामदायक हो सकती है। हाथी को समझने में जरा भी चूक जोखिम बन सकती है। जोखिम की बात पर पार्बती कहती हैं जोखिम तो हमारा पूरा जीवन ही है।
पार्बती को 1989 में यूनाइटेड नेशंस एनवायरनमेंट प्रोग्राम ग्लोबल 500 रोल ऑफ़ ऑनर पुरस्कार मिला था। 1996 मे ब्रिटिश राजपरिवार से जुड़े पर्यावरणविद मार्क शैंड की पार्बती बरुआ पर लिखी किताब "हाथियों की रानी" को थॉमस कुक ट्रेवल बुक का सम्मान मिला, इसी किताब पर बीबीसी द्वारा एक डॉक्यूमेंटरी भी बनाई गई थी। पर सवाल है आखिर वे राजमहलों की शानदार, आरामदायक जिंदगी छोड़कर बीहड़ जंगलों में हाथियों को साथी बना जंगलों में जोखिम क्यों उठाती हैं, जवाब में पार्बती यही कहती हैं, ये उनके खून में है, अपनी पढ़ाई के दौरान भी वो पिता के साथ जंगलों में जाती थी।
वर्ष 1988 में पिता की मृत्यु के बाद से तो अब पूरी तरह हाथी ही उनका जीवन हैं। उनके लिए ये व्यवसाय नहीं बल्कि जिंदगी है। हाथियों से दूर जाने की बात वो सोच भी नहीं सकती। उनकी कामना है की वो अंत समय तक हाथियों के बीच में ही रहें, ठीक जैसे उनके पिता रहे। (वीएनआई)