हिन्दू धर्म वेदों पर आधारित धर्म है। वेदों से ही स्मृति और पुराणों की उत्पत्ति हुई है। वेदों के सार को उपनिषद और उपनिषदों के सार को गीता कहते हैं। श्रुति के अंतर्गत वेद आते हैं बाकी सभी ग्रंथ स्मृति ग्रंथ हैं। रामायण और महाभारत इतिहास ग्रंथ हैं।
वेद की प्राचीनकाल की परंपरा के चलते कई सारे रहस्यमयी ज्ञान या पथों का उद्भव होता गया और इनमें कई तरह के संशोधन भी हुए। दरअसल, यह ज्ञान को एक व्यवस्थित रूप देने की कवायद ही थी। आओ जानते हैं कि वेदों से उत्पन्न इस ज्ञान के कितने रहस्यमयी ज्ञान विकसित हो गए हैं।
1. गीता : वेदों के ज्ञान को नए तरीके से किसी ने व्यवस्थित किया है तो वह हैं भगवान श्रीकृष्ण। वेदों के सार को वेदांत या उपनिषद कहते हैं और उसके भी सार तत्व को गीता में समेटा गया है।
गीता में भक्ति, ज्ञान और कर्म मार्ग की चर्चा की गई है। उसमें यम-नियम और धर्म-कर्म के बारे में भी बताया गया है। गीता ही कहती है कि ब्रह्म (ईश्वर) एक ही है। गीता को बार-बार पढ़ेंगे तो आपके समक्ष इसके ज्ञान का रहस्य खुलता जाएगा।
2. योग : वेदों से ही योग की उत्पत्ति हुई। समय-समय पर इस योग को कई ऋषि-मुनियों ने व्यवस्थित रूप दिया। आदिदेव शिव और गुरु दत्तात्रेय को योग का जनक माना गया है। शिव के 7 शिष्यों ने ही योग को संपूर्ण धरती पर प्रचारित किया। योग का प्रत्येक धर्म पर गहरा प्रभाव देखने को मिलता है। भगवान श्रीकृष्ण को योगेश्वर कहा गया है। वशिष्ठ, पराशर, व्यास, अष्टावक्र के बाद पतंजलि और गुरु गोरखनाथ ने योग को एक व्यवस्थित रूप दिया।
योग का उपदेश सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने सनकादिकों को, पश्चात विवस्वान (सूर्य) को दिया। बाद में यह दो शाखाओं में विभक्त हो गया। एक ब्रह्मयोग और दूसरा कर्मयोग। ब्रह्मयोग की परंपरा सनक, सनन्दन, सनातन, कपिल, आसुरि, वोढु और पच्चंशिख नारद-शुकादिकों ने शुरू की थी। यह ब्रह्म योग लोगों के बीच में ज्ञान, अध्यात्म और सांख्य योग नाम से प्रसिद्ध हुआ।
दूसरी कर्मयोग की परंपरा विवस्वान की है। विवस्वान ने मनु को, मनु ने इक्ष्वाकु को, इक्ष्वाकु ने राजर्षियों एवं प्रजाओं को योग का उपदेश दिया। उक्त सभी बातों का वेद और पुराणों में उल्लेख मिलता है। वेद को संसार की प्रथम पुस्तक माना जाता है जिसका उत्पत्ति काल लगभग 10,000 वर्ष पूर्व का माना जाता है। पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार योग की उत्पत्ति 5000 ईपू में हुई। गुरु-शिष्य परंपरा के द्वारा योग का ज्ञान परंपरागत तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मिलता रहा।
भारतीय योग जानकारों के अनुसार योग की उत्पत्ति भारत में लगभग 5,000 वर्ष से भी अधिक समय पहले हुई थी। योग की सबसे आश्चर्यजनक खोज 1920 की शुरुआत में हुई। 1920 में पुरातत्व वैज्ञानिकों ने 'सिन्धु-सरस्वती सभ्यता' को खोजा था जिसमें प्राचीन हिन्दू धर्म और योग की परंपरा होने के सबूत मिलते हैं। सिन्धु घाटी सभ्यता को 3300-1700 बीसीई पूराना माना जाता है।
पतंजलि का योग सूत्र योग का सबसे उत्तम ग्रंथ है। भगवान कृष्ण ने योग के 3 प्रकार बताए हैं- ज्ञान योग, कर्म योग और भक्ति योग। जबकि योग प्रदीप में योग के 10 प्रकार बताए गए हैं- 1. राज योग, 2. अष्टांग योग, 3. हठ योग, 4. लय योग, 5. ध्यान योग, 6. भक्ति योग, 7. क्रिया योग, 8. मंत्र योग, 9. कर्म योग और 10. ज्ञान योग। इसके अलावा होते हैं- धर्म योग, तंत्र योग, नाद योग आदि।
3. आयुर्वेद : आयुर्वेद हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा दिया गया अनमोल उपहार है। 'आयुर्वेद' शब्द दो शब्दों आयुष्+वेद से मिलकर बना है जिसका अर्थ है जीवन विज्ञान। संसार की प्राचीनतम पुस्तक ऋग्वेद में भी आयुर्वेद के अतिमहत्वपूर्ण सिद्धांतों का वर्णन है। आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद एवं विश्व का आदिचिकित्सा विज्ञान है। आयुर्वेद के प्रथम उपदेशक धन्वंतरि ऋषि को माना जाता है। उसके बाद कई ऋषि और मुनियों ने आयुर्वेद का प्रचार-प्रसार किया। बाद में च्यवन, सुश्रुत और चरक ऋषि का नाम उल्लेखनीय है।
चरक मत के अनुसार मृत्युलोक में आयुर्वेद के अवतरण के साथ अग्निवेश का नाम उल्लेखनीय है। सर्वप्रथम ब्रह्मा से प्रजापति ने, प्रजापति से अश्विनी कुमारों ने, उनसे इन्द्र ने और इन्द्र से भारद्वाज ने आयुर्वेद का अध्ययन किया। फिर तदनंतर पुनर्वसु आत्रेय ने अग्निवेश, भेल, जतू, पाराशर, हारीत और क्षारपाणि नामक 6 शिष्यों को आयुर्वेद का उपदेश दिया। इन 6 शिष्यों में सबसे अधिक बुद्धिमान अग्निवेश ने सर्वप्रथम एक संहिता का निर्माण किया- अग्निवेश तंत्र का, जिसका प्रति संस्कार बाद में चरक ने किया और उसका नाम चरक संहिता पड़ा, जो आयुर्वेद का आधार स्तंभ है।
सुश्रुत के अनुसार काशीराज देवीदास के रूप में अवतरित भगवान धन्वंतरि के पास अन्य महर्षियों के साथ सुश्रुत जब आयुर्वेद का अध्ययन करने हेतु गए और उनसे निवेदन किया। उस समय भगवान धन्वंतरि ने उन लोगों को उपदेश करते हुए कहा कि सर्वप्रथम स्वयं ब्रह्मा ने अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद को एक सहस्र अध्याय-शत सहस्र श्लोकों में प्रकाशित किया। धन्वंतरि ने कहा कि ब्रह्मा से दक्ष प्रजापति, उनसे अश्विनी कुमार तथा उनसे इन्द्र ने आयुर्वेद का अध्ययन किया। चरक संहिता तथा सुश्रुत संहिता में वर्णित इतिहास एवं आयुर्वेद के अवतरण के क्रम में क्रमश: आत्रेय संप्रदाय तथा धन्वंतरि सम्प्रदाय ही मान्य है।
4. षड्दर्शन : 6 भारतीय दर्शन की उत्पत्ति भी वेदों से है। ये 6 दर्शन हैं- 1. न्याय, 2. वैशेषिक, 3. मीमांसा, 4. सांख्य 5. वेदांत और 6. योग। सांख्य एक द्वैतवादी दर्शन है। महर्षि वादरायण, जो संभवतः वेदव्यास ही हैं, का 'ब्रह्मसूत्र' और उपनिषद वेदांत दर्शन के मूल स्रोत हैं।
महर्षि पतंजलि का 'योगसूत्र' योग दर्शन का प्रथम व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन है। वैशेषिक दर्शन के प्रणेता महर्षि कणाद ने इस दार्शनिक मत द्वारा ऐसे धर्म की प्रतिष्ठा का ध्येय रखा है, जो भौतिक जीवन को बेहतर बनाए और लोकोत्तर जीवन में मोक्ष का साधन हो। न्याय दर्शन नाम से तर्क प्रधान इस प्रत्यक्ष विज्ञान की शुरुआत करने वाले अक्षपाद गौतम हैं।
5. ज्योतिष : ज्योतिष विद्या के कई अंग हैं जैसे सामुद्रिक शास्त्र, हस्तरेखा विज्ञान, लाल किताब, अंक शास्त्र, अंगूठा शास्त्र, ताड्पत्र विज्ञान, नंदी नाड़ी ज्योतिष, पंच पक्षी सिद्धांत, नक्षत्र ज्योतिष, वैदिक ज्योतिष, रमल शास्त्र, पांचा विज्ञान आदि। भारत की इस प्राचीन विद्या के माध्यम से जहां अंतरिक्ष, मौसम और भूगर्भ की जानकारी हासिल की जाती है वहीं इसके माध्यम से व्यक्ति का भूत और भविष्य भी जाना जा सकता है।
वेदों के 6 अंग है जिन्हें वेदांग कहा गया है। इन 6 अंगों में से एक ज्योतिष है। वेदों और महाभारतादि ग्रंथों में नक्षत्र विज्ञान अधिक प्रचलित था। ऋग्वेद में ज्योतिष से संबंधित 30 श्लोक हैं, यजुर्वेद में 44 तथा अथर्ववेद में 162 श्लोक हैं। यूरेनस को एक राशि में आने के लिए 84 वर्ष, नेप्चून को 1,648 वर्ष तथा प्लूटो को 2,844 वर्षों का समय लगता है।
वैदिक ज्ञान के बल पर भारत में एक से बढ़कर एक खगोलशास्त्री, ज्योतिष व भविष्यवक्ता हुए हैं। इनमें गर्ग, आर्यभट्ट, भृगु, बृहस्पति, कश्यप, पाराशर वराहमिहिर, पित्रायुस, बैद्धनाथ आदि प्रमुख हैं।
ज्योतिष शास्त्र के 3 प्रमुख भेद हैं- सिद्धांत ज्योतिष, संहिता ज्योतिष और होरा शास्त्र।
* सिद्धांत ज्योतिष के प्रमुख आचार्य- ब्रह्मा, आचार्य, वशिष्ठ, अत्रि, मनु, पौलस्य, रोमक, मरीचि, अंगिरा, व्यास, नारद, शौनक, भृगु, च्यवन, यवन, गर्ग, कश्यप और पाराशर हैं।
* संहिता ज्योतिष के प्रमुख आचार्य- मुहूर्त गणपति, विवाह मार्तण्ड, वर्ष प्रबोध, शीघ्रबोध, गंगाचार्य, नारद, महर्षि भृगु, रावण, वराहमिहिराचार्य हैं।
* होरा शास्त्र के प्रमुख आचार्य- पुराने आचार्यों में पाराशर, मानसागर, कल्याण वर्मा, दुष्टिराज, रामदैवज्ञ, गणेश, नीपति आदि हैं।
भारतीय ज्योतिष शास्त्र में अलग-अलग तरीके से भाग्य या भविष्य बताया जाता है। माना जाता है कि भारत में लगभग 150 से ज्यादा ज्योतिष विद्या प्रचलित हैं। कुंडली ज्योतिष, लाल किताब की विद्या, गणितीय ज्योतिष, नंदी नाड़ी ज्योतिष, पंच पक्षी सिद्धांत, हस्तरेखा ज्योतिष, नक्षत्र ज्योतिष, अंगूठा शास्त्र, सामुद्रिक विद्या, रमल शास्त्र, वैदिक ज्योतिष आदि।
6. वास्तु शास्त्र : वास्तु शास्त्र की उत्पत्ति भी वेदों से हुई है। वास्तु शास्त्र के अनुसार ही यज्ञ मंडप, मंदिर, देवालय, घर और शहर का निर्माण किया जाता है। यदि शहर निर्माण में वास्तु का ध्यान नहीं रखा गया है तो उस शहर की आबोहवा ठीक नहीं रहती जिसके चलते मानसिक क्लेश उत्पन्न होता है। वास्तु विज्ञान का स्पष्ट अर्थ है चारों दिशाओं से मिलने वाली ऊर्जा तरंगों का संतुलन...। यदि ये तरंगें संतुलित रूप से आपको प्राप्त हो रही हैं, तो घर में स्वास्थ्य व शांति बनी रहेगी। घर बनाने या लेने में तिथि, माह और नक्षत्रों पर विचार करने के बाद ही उसके वास्तु (दशा और दिशा) पर विचार किया जाता है। जीवन में सुख और दुख का कारण घर और शहर का चयन होता है।
दक्षिण भारत में वास्तु विज्ञान की नींव मय दानव ने रखी थी तो उत्तर भारत में विश्वकर्मा ने। दोनों को ही शिल्पकार, निर्माणकर्ता और यंत्र निर्माता माना जाता है। भृगु, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वकर्मा, मय, नारद, नग्नजित, भगवान शंकर, इन्द्र, ब्रह्मा, कुमार, नन्दीश्वर, शौनक, गर्ग, वासुदेव, अनिरुद्ध, शुक्र तथा बृहस्पति- ये 18 वास्तुशास्त्र के उपदेष्टा माने गए हैं। इन्होंने ही महाराजा मनु को वास्तु का उपदेश दिया था। वास्तु का विवरण अथर्ववेद में भी मिलता है।
7. यज्ञ : यज्ञ कर्म विज्ञान है, कर्मकांड नहीं। इसके विज्ञान को समझे बगैर इसे नकारा नहीं जा सकता। समिधा की लकड़ी और घी से हजारों टन ऑक्सीजन का निर्माण होता है। यज्ञ को पूजा-पाठ नहीं समझना चाहिए।
यज्ञ करने के नियम भी होते हैं। वेदों में जिन यज्ञों की चर्चा की गई है, वही असल में यज्ञ होते हैं। वेदानुसार यज्ञ 5 प्रकार के होते हैं- 1. ब्रह्मयज्ञ, 2. देवयज्ञ, 3. पितृयज्ञ, 4. वैश्वदेव यज्ञ और 5. अतिथि यज्ञ। देवयज्ञ को ही अग्निहोत्र कर्म कहते हैं। यज्ञों का विवरण यजुर्वेद में मिलता है।
8. तंत्र शास्त्र : तंत्र एक रहस्यमयी विद्या है। हिन्दू धर्म के साथ ही बौद्ध और जैन धर्म में भी इस विद्या का प्रचलन है। तंत्र को मूलत: शैव आगम शास्त्रों से जोड़कर देखा जाता है, लेकिन इसका मूल अथर्ववेद में पाया जाता है। तंत्र शास्त्र 3 भागों में विभक्त है आगम तंत्र, यामल तंत्र और मुख्य तंत्र। तंत्र शास्त्र के मंत्र और पूजा अलग किस्म के होते हैं।
तंत्र विद्या के माध्यम से व्यक्ति अपनी आत्मशक्ति का विकास करके कई तरह की शक्तियों से संपन्न हो सकता है। यही तंत्र का उद्देश्य है। तंत्र के माध्यम से ही प्राचीनकाल में घातक किस्म के हथियार बनाए जाते थे, जैसे पाशुपतास्त्र, नागपाश, ब्रह्मास्त्र आदि।
इसी तरह तंत्र से ही सम्मोहन, त्राटक, त्रिकाल, इंद्रजाल, परा, अपरा और प्राण विद्या का जन्म हुआ है। इसी तरह मनुष्य से पशु बन जाना, गायब हो जाना, एकसाथ 5-5 रूप बना लेना, समुद्र को लांघ जाना, विशाल पर्वतों को उठाना, करोड़ों मील दूर के व्यक्ति को देख लेना व बात कर लेना जैसे अनेक कार्य ये सभी तंत्र की बदौलत ही संभव हैं। तंत्र के प्रथम उपदेशक भगवान शंकर और उसके बाद भगवान दत्तात्रेय हुए हैं। बाद में सिद्ध, योगी, शाक्त और नाथ परंपरा का प्रचलन रहा है।
तंत्र का मांस, मदिरा और संभोग से किसी भी प्रकार का संबंध नहीं है, जो व्यक्ति इस तरह के घोर कर्म में लिप्त है, वह कभी तांत्रिक नहीं बन सकता। तंत्र को इसी तरह के लोगों ने बदनाम कर दिया है। तांत्रिक साधना का मूल उद्देश्य सिद्धि से साक्षात्कार करना है। इसके लिए अंतर्मुखी होकर साधनाएं की जाती हैं। तांत्रिक साधना को साधारणतया 3 मार्ग- वाम मार्ग, दक्षिण मार्ग और मध्यम मार्ग कहा गया है।
तंत्र विज्ञान- जिसमें यंत्रों के स्थान पर मानव अंतराल में रहने वाली विद्युत शक्ति को कुछ ऐसी विशेषता संपन्न बनाया जाता है जिससे प्रकृति से सूक्ष्म परमाणु उसी स्थिति में परिणित हो जाते हैं जिसमें कि मनुष्य चाहता है। पदार्थों की रचना, परिवर्तन और विनाश का बड़ा भारी काम बिना किन्हीं यंत्रों की सहायता के तंत्र द्वारा हो सकता है। विज्ञान के इस तंत्र भाग को 'सावित्री विज्ञान' तंत्र-साधना, वाममार्ग आदि नामों से पुकारते हैं। तंत्र-शास्त्र में जो पंच प्रकार की साधना बतलाई गई है, उसमें मुद्रा साधन बड़े महत्व का और श्रेष्ठ है। मुद्रा में आसन, प्राणायाम, ध्यान आदि योग की सभी क्रियाओं का समावेश होता है।
9. मंत्र मार्ग : मंत्र साधना भी कई प्रकार की होती है। मंत्र से किसी देवी या देवता को साधा जाता है। मंत्र का अर्थ है- मन को एक तंत्र में लाना। मन जब मंत्र के अधीन हो जाता है तब वह सिद्ध होने लगता है। ‘मंत्र साधना’ भौतिक बाधाओं का आध्यात्मिक उपचार है।
मुख्यत: 3 प्रकार के मंत्र होते हैं- 1. वैदिक मंत्र, 2. तांत्रिक मंत्र और 3. शाबर मंत्र। मंत्र जप के भेद- 1. वाचिक जप, 2. मानस जप और 3. उपाशु जप।
वाचिक जप में ऊंचे स्वर में स्पष्ट शब्दों में मंत्र का उच्चारण किया जाता है। मानस जप का अर्थ मन ही मन जप करना। उपांशु जप का अर्थ जिसमें जप करने वाले की जीभ या ओष्ठ हिलते हुए दिखाई देते हैं लेकिन आवाज नहीं सुनाई देती। बिलकुल धीमी गति में जप करना ही उपांशु जप है।
10. जाति स्मरण मार्ग : पूर्व जन्म को जानने का यह मार्ग है। जब चित्त स्थिर हो जाए अर्थात मन भटकना छोड़कर एकाग्र होकर श्वासों में ही स्थिर रहने लगे, तब जाति स्मरण का प्रयोग करना चाहिए। जाति स्मरण के प्रयोग के लिए ध्यान को जारी रखते हुए आप जब भी बिस्तर पर सोने जाएं, तब आंखें बंद करके उल्टे क्रम में अपनी दिनचर्या के घटनाक्रम को याद करें। जैसे सोने से पूर्व आप क्या कर रहे थे, फिर उससे पूर्व क्या कर रहे थे, तब इस तरह की स्मृतियों को सुबह उठने तक ले जाएं।
दिनचर्या का क्रम सतत जारी रखते हुए 'मेमोरी रिवर्स' को बढ़ाते जाएं। ध्यान के साथ इस जाति स्मरण का अभ्यास जारी रखने से कुछ माह बाद जहां मेमोरी पॉवर बढ़ेगा, वहीं नए-नए अनुभवों के साथ पिछले जन्म को जानने का द्वार भी खुलने लगेगा। जैन धर्म में जाति स्मरण के ज्ञान पर विस्तार से उल्लेख मिलता है।
उपनिषदों में जाग्रत, स्वप्न और सुसुप्ति के बारे में विस्तार से उल्लेज्ञ मिलता है। इसको जानकर पूर्व जन्म को जाना जा सकता है।
हमारा संपूर्ण जीवन स्मृति-विस्मृति के चक्र में फंसा रहता है। उम्र के साथ स्मृति का घटना शुरू होता है, जो कि एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, अगले जन्म की तैयारी के लिए। यदि मोह-माया या राग-द्वेष ज्यादा है तो समझो स्मृतियां भी मजबूत हो सकती हैं। व्यक्ति स्मृति-मुक्त होता है तभी प्रकृति उसे दूसरा गर्भ उपलब्ध कराती है। लेकिन पिछले जन्म की सभी स्मृतियां बीज रूप में कारण शरीर के चित्त में संग्रहीत रहती हैं। विस्मृति या भूलना इसलिए जरूरी होता है कि यह जीवन के अनेक क्लेशों से मुक्ति का उपाय है।
योग में अष्ट सिद्धि के अलावा अन्य 40 प्रकार की सिद्धियों का वर्णन मिलता है। उनमें से ही एक है पूर्व जन्म ज्ञान सिद्धि योग। इस योग की साधना करने से व्यक्ति को अपने अगले पिछले सारे जन्मों का ज्ञान होने लगता है। यह साधना कठिन जरूर है, लेकिन योगाभ्यासी के लिए सरल है।
कैसे जानें पूर्व जन्म को : योग कहता है कि सर्वप्रथम चित्त को स्थिर करना आवश्यक है तभी इस चित्त में बीज रूप में संग्रहीत पिछले जन्मों का ज्ञान हो सकेगा। चित्त में स्थित संस्कारों पर संयम करने से ही पूर्व जन्म का ज्ञान होता है। चित्त को स्थिर करने के लिए सतत ध्यान क्रिया करना जरूरी है।
अन्य तरीके जैसे सम्मोहन क्रिया, कायोत्सर्ग विधि और अनुप्रेक्षा विधि के द्वारा भी पूर्व जन्म को जाना जा सकता है। (समाप्त)