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Written By ND

लिव इन रिलेशन : अपनी-अपनी नैतिकता

एक अंतहीन बहस

Live in relationship | लिव इन रिलेशन : अपनी-अपनी नैतिकता
ND
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मंगलवार को 'लिव इन रिलेशनशिप' के समर्थन में की गई टिप्पणी के बाद एक बार फिर 'परिवार' नामक सामाजिक संस्था के अस्तित्व पर बहस छिड़ गई है। विदेशी संस्कृति का अंधाधुंध अनुसरण कर रही हमारी युवा पीढ़ी को इस टिप्पणी के जरिए एक और बहाना मिल गया है। भारत जैसे परंपरावादी देश में जहाँ आमतौर पर आबादी का बड़ा हिस्सा भगवान राम के 'एक पत्नी सिद्धांत' को ही आदर्श मानता है, रामनवमी की पूर्व संध्या पर आई सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी उसके गले नहीं उतर रही है।

सवाल यह है कि अगर हम आधुनिकता के नाम पर इस रिश्तों को अमली जामा पहनाते भी हैं तो युगों से सहेजी गई भारतीय संस्कृति और संस्कारों का क्या होगा? इस मुद्दे पर जब बात की विभिन्न वर्ग के लोगों से तो चौंकाने वाली प्रतिक्रिया सामने आई।

क्लिंटन-मोनिका की तुलना राधा-कृष्ण से नहीं-
70 वर्षीय व्यवसायी रामचंद्र मूंदड़ा लिव इन रिलेशनशिप को पूरी तरह बकवास बताते हुए कहते हैं कि इससे हमारे समाज में बिखराव आ जाएगा। हमारी संस्कृति में इस तरह के संबंधों की कोई जगह नहीं है। क्लिंटन-मोनिका की तुलना राधा-कृष्ण से किसी कीमत पर नहीं की जा सकती।

पहले भी रहे हैं ऐसे रिलेशंस-
मध्यम वर्ग की प्रौढ़ महिला ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा कि हमारे समाज में इस तरह की रिलेशनशिप धीरे-धीरे सामने आ रही है। यह नई बात भी नहीं है। सदियों से हमारे यहाँ इस तरह के रिलेशंस मेंटेन होते रहे हैं। हालाँकि इन्हें किसी भी नजरिए से सही नहीं ठहराया जा सकता।

गलत क्या है-
पीएचडी कर रहे अंकित कहते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी युवाओं के लिए सुकून भरी है। पहले भी इस तरह के रिश्ते दबे-छुपे मेंटेन होते थे। आज खुले दिमाग से सोचने की आवश्यकता है। न्यायालय द्वारा लिव इन रिलेशनशिप के समर्थन पर बवाल उठने का प्रश्न ही नहीं है। इसमें गलत क्या है।

अपनी-अपनी नैतिकता-
उच्च मध्यम वर्ग के 40 वर्षीय व्यक्ति नाम नहीं छापने की शर्त पर बताते हैं कि इस तरह के संबंधों को सामाजिक स्वीकारोक्ति मिलना चाहिए। कानूनी उलझनों के कारण यह संबंध उजागर नहीं हो पाते हैं। जहाँ तक सवाल नैतिकता का है, वह व्यक्तिगत मामला है। जरूरी नहीं कि सभी के लिए नैतिकता के मायने समान हों।

झेलना पड़ता है विरोध-
मुंबई में एक साथी के साथ रह रही शहर की अस्मिता बताती हैं कि इस तरह के रिलेशंस को लंबे समय तक मेंटेन करना मुश्किल होता है, साथ ही आपको समाज का विरोध भी झेलना पड़ता है। धीरे-धीरे परिस्थितियाँ बदल रही हैं। महानगरों में किसी लड़की का अकेला रहना इतना आसान नहीं होता, ऐसे में किसी पुरुष साथी की आवश्यकता होती ही है। जरूरत सिर्फ इस बात की है कि दोनों पार्टनर्स एक-दूसरे को समझें और स्वयं पर काबू रखें।

महिलाएँ समझती हैं भावनाएँ-
नई दिल्ली में रह रहे शहर के प्रशांत बताते हैं कि महानगरों में इस तरह की रिलेशनशिप आम है। फ्लैट्स के महँगे किराए और अन्य परेशानियों के चलते युवा इसे प्राथमिकता देते हैं। किसी पुरुष के साथ साझा रहने से बेहतर होता है किसी युवती के साथ रहा जाए। महिलाएँ पुरुषों के मुकाबले कहीं अधिक विश्वसनीय, भावनाओं को समझने वाली होती हैं।

भारत में अँगरेजों के शासनकाल में पहली बार 1927 और फिर 1929 में लिव इन रिलेशनशिप के सवाल पर प्रीवी काउंसिल ने न्यायिक व्यवस्था दी थी। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने प्रीवी काउंसिल की व्यवस्था के आलोक में ही 1952 और 1 978 में एक बार फिर न्यायिक व्यवस्था दी।