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Story of Shaktipeeth : माता दुर्गा के शक्तिपीठ बनने की पौराणिक कथा

Story of Shaktipeeth | माता दुर्गा के शक्तिपीठ बनने की पौराणिक कथा
देवी भागवत पुराण में 108, कालिकापुराण में छब्बीस, शिवचरित्र में इक्यावन, दुर्गा शप्तसती और तंत्रचूड़ामणि में शक्ति पीठों की संख्या 52 बताई गई है। साधारत: 51 शक्ति पीठ माने जाते हैं। तंत्रचूड़ामणि में लगभग 52 शक्ति पीठों के बारे में बताया गया है। आओ जानते हैं शक्तिपीठ बनने की सरल कथा।
 
राणों के अनुसार दक्ष प्रजापति परमपिता ब्रह्मा के पुत्र थे। प्रजापति दक्ष की दो पत्नियां थीं- प्रसूति और वीरणी। प्रसूति से दक्ष की 24 कन्याएं थीं और वीरणी से 60 कन्याएं। इस तरह दक्ष की 84 पुत्रियां थीं।
 
कहते हैं कि शिव को औघड़ जानकर और शिव द्वारा चंद्रदेव को शिव के द्वारा श्रापमुक्त करने के चलते दक्ष को शिवजी पसंद नहीं थे। परंतु माता सती तो शिव से ही विवाह करना चाहती थी। दक्ष सती का विवाह शिव से नहीं करना चाहते थे अत: उन्होंने सती के स्वयंवर करने का निर्णय लिया। दक्ष ने सभी गंधर्व, यक्ष, देव को आमंत्रित किया, लेकिन शिव को नहीं। कहते हैं कि शिवजी का अपमान करने के लिए उन्होंने शिवजी की मूर्ति बनाकर द्वार के निकट लगा दी थी। स्वयंवर के समय जब यह बात सती को पता चली तो उन्होंने जाकर उसी शिवमूर्ति के गले में वरमाला डाल दी। तभी शिवजी तत्क्षण वहीं प्रकट हो गए। भगवान शिव ने सती को पत्नी रूप में स्वीकार किया और कैलाशधाम चले गए। इस पर दक्ष बहुत कुपित हुए।
 
फिर एक बार राजदक्ष ने अपने राज्य क्षेत्र कनखनाल में महायज्ञ रखा। जिसमें सभी ऋषि, मुनी, देवी और देवताओं को बुलाया था। इस यज्ञ में दक्ष ने शिव और सती को नहीं बुलाया था। फिर भी माता सती ने वहां जाने के लिए कहा परंतु शिवजी ने कहा कि उन्होंने हमें निमंत्रण नहीं दिया है तो हम कैसे जाएं? परंतु सती नहीं मानी और वह अकेली ही अपने पिता के यज्ञ में चली गई।
 
वहां उन्होंने जाकर देखा कि सभी देवी, देवताओं के लिए आसन सजा है। सभी का आह्‍वान किया जा रहा है परंतु मेरे पति का नहीं। दूसरा यह कि उनके पिता ने सती के आने पर ना केवल उन्हें अनदेखा किया बल्कि अपमानीत भी किया। अपने और अपने पति शंकर का अपमान होने के कारण सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में कूदकर अपनी देहलीला समाप्त कर ली थी। 
 
यह बात जब शिवजी को पता चली को वे बहुत क्रोधित हुए और उन्हेंने अपने गण वीरभद्र को भेजा। वीरभद्र राजा दक्ष को सजा देने के लिए उनके यक्ष स्थल पर तक्षण ही पहुंच गए। कहते हैं कि जब वीरभद्र ने दक्ष का यज्ञ ध्वंस कर दिया तब प्रजापती दक्ष ने विष्णु को युद्ध करने के लिए बुलाया। विष्णु ने युद्ध करने का वचन दिया।
 
वीरभद्र भगवान विष्णु से युद्ध करते वक्त तनिक भी विचलित नहीं हुए। किन्तु अंत में भगवान विष्णु ने उन्हें एक पाश में बांध लिया। तब भगवान शिव ने अपनी जटाओं से भद्रकाली को अवतरित कर वीरभद्र की सहायता के लिए भेजा और उन्हें बचाया गया। भगवान विष्णु अपने वचन की पूर्ति होने पर युद्ध मैदान से चले गए। इसके बाद वीरभद्र ने प्रजापति दक्ष का सिर धड़ से अलग कर उनके सिर को उसी यज्ञाग्नि में जला दिया जिसमें माता सती ने आत्मदाह करने का प्रण लिया था।
 
बाद में घटना स्थल पर शिवजी प्रकट हुए और बहुत ही दु:खी होने लगे। सभी देवी और देवता भी वहां उपस्थित हुए। यज्ञ की अग्नि से शिवजी ने माता सती की देह को निकाला और वे उसे अपने कंधे पर लेकर जगह-जगह घूमते रहे। उन्हें दु:खी देखकर और देह के प्रति आसक्ति पालने पर विष्णुजी को बड़ी दया आई और तब उन्होंने अपने चक्र से माता सती के देह के टूकड़े टूकड़े कर दिए। कहते हैं कि जहां-जहां देवी सती के अंग और आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ निर्मित होते गए।
 
इसके बाद माता सती ने पार्वती के रूप में हिमालयराज के यहां जन्म लेकर भगवान शिव की घोर तपस्या की और फिर से शिव को प्राप्त कर पार्वती के रूप में जगत में विख्यात हुईं।