होली सामाजिक एकता का पर्व
- आचार्य गोविन्द बल्लभ जोशी
होलाष्टक से धुलैंडी और रंगपंचमी तक होली उत्सव का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। वस्तुतः यह पर्व सामाजिक एकता का सबसे बड़ा पर्व है जिसमें स्वामी सेवक, छोटे-बड़े सभी प्रकार के भेदभाव समाप्त हो जाते हैं। साथ ही सारा समाज होली के रंग में रंग जाता है। होली में दिखनेवाली हँसी ठिठोली का मूल अभिगर अपगर संवाद में निहित हैं। भाष्यकारों के अनुसार अभिगर ब्राह्मणों वाचक है और अपगर शूद्रक का। ये दोनों एक-दूसरे पर आक्षेप-प्रत्याक्षेप करते हुए हास-परिहास करते थे। इसी क्रम में विभिन्न प्रकार की बोलियाँ बोलते थे, विशेष रूप से ग्राम्य बोलियाँ बोलने का प्रदर्शन किया जाता था- 'सर्व्वा त्वाचो वदन्ति संसकृताश्च ग्राम्यवाचश्च।'
वसंत पंचमी के आते ही प्रकृति में एक नवीन परिवर्तन आने लगता है। दिन छोटे होते हैं। जाड़ा कम होने लगता है। पतझड़ शुरू हो जाता है। आम्रमंजरियों पर भ्रमरावलियाँ मँडराने लगती हैं। प्रकृति में एक नई मादकता का अनुभव होने लगता है। इस प्रकार होली के समय एक नवीन रौनक, नवीन उत्साह एवं उमंग की लहर चोरों ओर दिखाई देती हैं। होली जहाँ एक ओर सामाजिक एवं धार्मिक त्योहार है वहीं यह रंगों का त्योहार भी है। वृद्ध, नर-नारी सभी ने इस त्योहार को बड़े उत्साह से मनाया। यह एक देशव्यापी त्योहार भी है। इसमें जाति भेद को कोई स्थान नहीं।