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जानें राजिम नगरी को...!

राजिम नगरी का इतिहास

राजिम नगरी का इतिहास
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देश में होने वाले चार कुंभों के अलावा राजिम कुंभ की ख्याति भी दुनिया भर में फैली हुई हैइस प्राचीन नगरी का नाम राजिम क्यों पड़ा, इस संबंध में कहा जाता है कि राजिम नामक तेलिन महिला को भगवान विष्णु की आधी मूर्ति मिली, दुर्ग नरेश रत्नपुर सामंत वीरवल जयपाल को स्वप्न हुआ, तब एक विशाल मंदिर बनवाया। तेलिन ने नरेश को इस शर्त के साथ मूर्ति दिया कि भगवान के साथ उनका भी नाम जुड़ना चाहिए। इसी कारण इस मंदिर का नाम राजिमलोचन पड़ा, जो बाद में राजीव लोचन कहलाने लगा।

मंदिर के अहाते में आज भी एक स्थान राजिम के लिए सुरक्षित है। वह भगवान को देखते सती हो गई थी। कलचुरी काल का यह एक महत्वपूर्ण अभिलेख है। इसका उद्देश्य पंचहंस कुल रंजक राजमाल कुलामलंतिलक जगपाल देव द्वारा राजिम में निर्मित स्थानीय रामचंद्र देवल का निर्माण करने एवं भगवान के नेवैद्य हेतु शाल्मलीय ग्राम के दान का प्रज्ञापन है।

लेख संस्कृत भाषा एवं देवनागरी लिपि में है। इसका आरंभ 'ओम नमो नारायणाय' से हुआ है। कौसल के कलचुरी नरेशों के अधीनस्थ सामंत जगपाल देव अनुकरणीय आत्मगुणों के स्वामी थे वे सत्य धर्म संवर्धक नीतिवान महानयोद्धा होने के साथ-साथ अपनी प्रजा को धर्म, अर्थ, काम का फल प्रदान करने वाले थे।

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आयताकार क्षेत्र के मध्य स्थित मंदिर के चारों कोण में श्री वराह अवतार, वामन अवतार, नृसिंह अवतार तथा बद्रीनाथ जी का धाम है।

गर्भगृह में पालनकर्ता लक्ष्मीपति भगवान विष्णु की श्यामवर्णी चतुर्भुजी मूर्ति है जिनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म है। 12 खंबों से सुसज्जित महामंडप में श्रेष्ठ मूर्तिकला का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। आसन लगाकर बैठे भगवान श्री राजीवलोचन की प्रतिमा आदमकद मुद्रा में सुशोभित है।

शिखर पर मुकुट, कर्ण में कुण्डल, गले में कौस्तुभ मणि के हार, हृदय पर भृगुलता के चिह्नांकित, देह में जनेऊ, बाजूबंद, कड़ा व कटि पर करधनी का सुअंकन है। राजीवलोचन का स्वरूप दिन में तीन बार बाल्यकाल, युवा व प्रौढ़ अवस्था में समयानुसार बदलता रहता है।