बहुत पुरानी मान्यता है- 'एक साधे सब सधे- सब साधे सब जाए।' पर इस एक को साधकर रखना आज चाहता कौन है? हर कोई चाहता है दोनों हाथों में लड्डू रखना। एक साथ सबको प्रसन्न बनाए रखना चाहता है। स्वार्थ की राजनीति काम कर रही है।
वह यह कहती है- 'सबको साध कर रखो' कौन जाने कब किससे काम पड़ जाए। गंगा जाओ तो गंगादास बन जाओ। जमना जाओ तो जमनादास बन जाओ। किसी एक के भरोसे मत रहो, कब धोखा दे जाए क्या पता।
प्रश्न यह है कि वास्तविक कल्याण किसमें है? एक को साधने में या सबको साधने में? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि जो भी मान्यताएँ या कहावतें बनती हैं वे एक दिन में नहीं बनतीं। बरसों के कड़वे-मीठे अनुभवों के आधार पर बनती हैं। वे मार्गदर्शन करती हैं। उन्हें मानना न मानना हमारे अपने हाथ है। हमारे सामने सारे आदर्श हैं, सारे नियम संयम हैं, लक्ष्मण रेखाएँ हैं। उन्हें न मानकर हम आत्मघाती कदम उठाते हैं तो कौन रोक सकता है। हम अपना कल्याण क्यों नहीं होने देना चाहते हैं?
क्यों अपने आपके दुश्मन बनते हैं? क्यों मनमानी करते हैं? इन प्रश्नों के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि हम धर्म व संस्कृति से विमुख हो रहे हैं। भौतिकवादी संस्कृति ने हमारा आध्यात्मिक विकास अवरुद्ध कर दिया है। मानवीय संवेदनाओं से हम कोसों दूर हो गए हैं। हम सब चालक विहीन वाहन में सवार हैं।
दरअसल एक को साधकर रखना सरल है। उसमें ही भलाई है। एक को ही साधकर रखने की सीख चातक पक्षी से भी मिलती है। उसका तो बस 'एक भरोसो एक बल-एक आस बिस्वास' है और वह है स्वाति नक्षत्र की वर्षा। स्वाति की एक बूँद के लिए चातक प्यासा रहता है। गंगाजल को भी ठुकरा देता है।
कितना प्रेरक प्रसंग है- 'बध्यो बधिक परयो पुण्य जल उलटि उठाई चोंच-तुलसी चातक की व्यथा मरत हुँ लगी न खोंच।' यानी शिकारी ने तीर चलाया-चातक गंगाजल में जा गिरा प्यासा था पर अपनी चोंच उलट दी ताकि गंगाजल मरते-मरते मुँह में न चला जाए। कैसी एकनिष्ठता है, कैसी भक्ति है। मरते हुए तो गंगाजल की कामना सबको रहती है। पर धन्य है चातक का स्वाति प्रेम। ऐसा अनन्य प्रेम बहुत कम मिलता है। जहाँ मिलता है समझो स्वर्ग वहीं बस जाता है।