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Written By अनिरुद्ध जोशी

भगवान ब्रह्मा से 4 वेद जोड़ना कितना उचित?

vedas | भगवान ब्रह्मा से 4 वेद जोड़ना कितना उचित?
वेदों का सार उपनिषद और उपदिषदों का सार गीता है। भगवान ब्रह्मा और माता गायत्री के जब हम चित्र देखते हैं तो उसमें चार हाथों में से एक हाथ में वेद को थामें बताया जाता है। फिर हम टीवी सीरियल में देखते हैं कि ब्रह्मलोक में चार वेद बालक बने खेल रहे हैं जिन्हें हयग्रीव नामक एक दैत्य चुराकर ले जाता है। बाद में भगवान विष्णु हयग्रीव का अवतार लेकर उस राक्षस का वध करके ब्रह्मा को चारों वेद लौटा देते हैं। यह घटना भगवान श्रीकृष्ण और वेदव्यास के जन्म से हजारों वर्ष पुरानी बताई जाती है। इससे यह समझ में आता है कि क्या वेद उस वक्त भी चार ही थे? किस्से-कहानियों में वेद की संख्‍या हमें प्राचीनकाल से ही 4 होने की बात कही जाती है परंतु क्या यह सच है? यदि ऐसा है तो हम क्यों यह मानते हैं कि महर्षि वेदव्यासजी ने ही एक वेद के ही चार भाग कर दिए?
 
 
अब सवाल यह उठता है कि जब वेदव्यास ने एक ही वेद के चार भाग किए तो पूर्व से ही वेद कैसे चार हो गए, क्योंकि वेदों के चार भाग को महाभारत काल में वेदव्यासजी ने किए थे जिनके नाम है ऋगवेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वेद। अब या तो वेदव्याज जी ने वेदों के चार भाग किए या फिर पहले से ही यह चार भाग विद्यमान थे और वेदव्यासजी ने बस उन्हें रिजनरेट किया होगा?
 
महाभारत से भी पूर्व अर्थात वेदव्यासजी के जन्म से भी पूर्व लिखी गई मनु स्मृति के अनुसार कहा जाता है कि...
अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम् । दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थं ऋग्यजुःसामलक्षणम्'।।-मनु (1/13)
 
उस परमात्मा ने (यज्ञसिद्धयर्थम्) जगत् में समस्त धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि व्यवहारों की सिद्धि के लिए अथवा जगत् की सिद्धि अर्थात् जगत् के समस्त रूपों के ज्ञान के लिए (यज्ञे जगति प्राप्तव्या सिद्धिः यज्ञसिद्धिः, अथवा यज्ञस्य सिद्धिः यज्ञसिद्धिः) (अग्नि - वायु - रविभ्यः तु) अग्नि, वायु और रवि से (ऋग्यजुः सामलक्षणं त्रयं सनातनं ब्रह्म) ऋग् - ज्ञान, यजुः - कर्म , साम - उपासना रूप त्रिविध ज्ञान वाले नित्य वेदों को (दुदोह) दुहकर प्रकट किया।
 
''जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न करके अग्नि आदि चारों महर्षियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराए और उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा से ऋग्यजु साम और अथर्व का ग्रहण किया।'- (स० प्र० सप्तम स०)
 
उपरोक्त श्लोक से तो यही सिद्ध होता है कि महर्षि वेदव्यास से पूर्व ही वेदों के चार भाग हो चुके थे। परंतु परंपरा से यह कहा जाता है कि वेद पहले एक ही था। फिर ऋग्वेद हुआ, फिर युजुर्वेद व सामवेद। वेद के तीन भाग राम के काल में पुरुरवा ऋषि ने किए थे, जिसे वेदत्रयी कहा गया। फिर अंत में अथर्ववेद को लिखा अथर्वा ऋषि ने। 
 
कहते हैं कि पहले द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य, चौथे में बृहस्पति वेदव्यास हुए। इसी प्रकार सूर्य, मृत्यु, इंद्र, धनंजय, कृष्ण द्वैपायन, अश्वत्थामा आदि 28 वेदव्यास हुए। समय-समय पर वेदों का विभाजन किस प्रकार से हुआ, इसके लिए यह एक उदाहरण प्रस्तुत है। कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास ने ब्रह्मा की प्रेरणा से 4 शिष्यों को 4 वेद पढ़ाए-
 
* मुनि पैल को ऋग्वेद
* वैशंपायन को यजुर्वेद
* जैमिनी को सामवेद तथा
* सुमंतु को अथर्ववेद पढ़ाया।
 
वेद के विभाग 4 हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋग- स्थिति, यजु- रूपांतरण, साम- गति‍शील और अथर्व- जड़। ऋक को धर्म, यजुः को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। इन्हीं के आधार पर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना हुई।
 
'वेद' परमेश्वर के मुख से निकला हुआ 'परावाक' है, वह 'अनादि' एवं 'नित्य' कहा गया है। वह अपौरूषेय ही है। वेद ही हिन्दू धर्म के सर्वोच्च और सर्वोपरि धर्मग्रंथ हैं, दूसरा कोई धर्मग्रंथ नहीं है।
 
ब्रह्मा के बाद अति प्राचीनकालीन में चार ऋषियों के पवित्रतम अंत:करण में वेद के दर्शन हुए थे। वेदों में ही ऋषियों ने लिखा है कि 'तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये'- अर्थात कल्प के प्रारंभ में आदि कवि ब्रह्मा के हृदय में वेद का प्राकट्य हुआ था।
 
वेदों को हजारों वर्षों से ऋषियों ने अपने शिष्यों को सुनाया और शिष्यों ने अपने शिष्यों को इस तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी वेद एक-दूसरे को सुनाकर ही ट्रांसफर किए गए अर्थात उनको आज तलक जिंदा बनाए रखा। आज भी यह परंपरा कायम है तभी तो असल में वेद कायम है। वेद प्राचीन भारत के वैदिक काल की वाचिक परंपरा की अनुपम कृति हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी पिछले 6-7 हजार वर्षों से चली आ रही है। वेद के असल मंत्र भाग को संहिता कहते हैं और तत्व को ब्राह्मण।
 
दरअसल, वेद मानव सभ्यता के लगभग सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार पांडुलिपियां भारत में पुणे के 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियां बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विश्व विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है। उल्लेखनीय है कि यूनेस्को की 158 सूची में भारत की महत्वपूर्ण पांडुलिपियों की सूची 38 है।
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