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पितृ पक्ष के अंतिम दिन सर्वपितृ अमावस्या पर वाराणसी में पवित्र गंगा नदी के किनारे पिंड दान और तर्पण कर पूर्वजों को बिदाई दी गई। मान्यता है कि 16 दिनों तक पृथ्वी लोक पर रहने के बाद दिवंगत पूर्वज पुनः अपने धाम लौट जाते हैं और अपने वंशज को आशीष देते हैं
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पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं तथा तृप्त करने की क्रिया और देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं। तर्पण करना ही पिंडदान करना है।
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सत्य और श्रद्धा से किए गए कर्म श्राद्ध और जिस कर्म से माता, पिता और आचार्य तृप्त हो वह तर्पण है।
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वेदों में श्राद्ध को पितृयज्ञ कहा गया है। यह श्राद्ध-तर्पण हमारे पूर्वजों, माता, पिता और आचार्य के प्रति सम्मान का भाव है।
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पितृ पक्ष में पिंडदान का भी महत्व है। सामान्य विधि के अनुसार पिंडदान में चावल, गाय का दूध, घी, गुड़ और शहद को मिलाकर पिंड बनाए जाते हैं और उन्हें पितरों को अर्पित किया जाता है।