सोमवार की व्रत कथा :-
एक समय श्री महादेवजी पार्वती के साथ भ्रमण करते हुए मृत्युलोक में अमरावती नगरी में आए। वहां के राजा ने शिव मंदिर बनवाया था, जो कि अत्यंत भव्य एवं रमणीक तथा मन को शांति पहुंचाने वाला था। भ्रमण करते सम शिव-पार्वती भी वहां ठहर गए।
पार्वतीजी ने कहा- हे नाथ! आओ, आज इसी स्थान पर चौसर-पांसे खेलें। खेल प्रारंभ हुआ। शिवजी कहने लगे- मैं जीतूंगा। इस प्रकार उनकी आपस में वार्तालाप होने लगी। उस समय पुजारीजी पूजा करने आए।
पार्वतीजी ने पूछा- पुजारीजी, बताइए जीत किसकी होगी?
पुजारी बोला- इस खेल में महादेवजी के समान कोई दूसरा पारंगत नहीं हो सकता इसलिए महादेवजी ही यह बाजी जीतेंगे। परंतु हुआ उल्टा, जीत पार्वतीजी की हुई। अत: पार्वतीजी ने पुजारी को कोढ़ी होने का श्राप दे दिया कि तूने मिथ्या भाषण किया है।
अब तो पुजारी कोढ़ी हो गया। शिव-पार्वतीजी दोनों वापस चले गए। कुछ समय पश्चात अप्सराएं पूजा करने आईं। अप्सराओं ने पुजारी के उसके कोढ़ी होने का कारण पूछा। पुजारी ने सब बातें बता दीं।
अप्सराएं कहने लगीं- पुजारीजी, आप 16 सोमवार का व्रत करें तो शिवजी प्रसन्न होकर आपका संकट दूर करेंगे। पुजारीजी ने अप्सराओं से व्रत की विधि पूछी। अप्सराओं ने व्रत करने और व्रत के उद्यापन करने की संपूर्ण विधि बता दी। पुजारी ने विधिपूर्वक श्रद्धाभाव से व्रत प्रारंभ किया और अंत में व्रत का उद्यापन भी किया। व्रत के प्रभाव से पुजारीजी रोगमुक्त हो गए।
कुछ दिनों बाद शंकर-पार्वतजी पुन: उस मंदिर में आए तो पुजारीजी को रोगमुक्त देखकर पार्वतीजी ने पूछा- मेरे दिए हुए श्राप से मुक्ति पाने का तुमने कौन सा उपाय किया। पुजारीजी ने कहा- हे माता! अप्सराओं द्वारा बताए गए 16 सोमवार के व्रत करने से मेरा यह कष्ट दूर हुआ है।
पार्वतीजी ने भी 16 सोमवार का व्रत किया जिससे उनसे रूठे हुए कार्तिकेयजी भी अपनी माता से प्रसन्न होकर आज्ञाकारी हुए।
कार्तिकेयजी ने पूछा- हे माता! क्या कारण है कि मेरा मन सदा आपके चरणों में लगा रहता है। पार्वतीजी ने कार्तिकेय को 16 सोमवार के व्रत का माहात्म्य तथा विधि बताई, तब कार्तिकेयजी ने भी इस व्रत को किया तो उनका बिछड़ा हुआ मित्र मिल गया। अब मित्र ने भी इस व्रत को अपने विवाह होने की इच्छा से किया।
फलत: वह विदेश गया। वहां के राजा की कन्या का स्वयंवर था। राजा ने प्रण किया था कि हथिनी जिस व्यक्ति के गले में वरमाला डाल देगी, उसी के साथ राजकुमारी का विवाह करूंगा। यह ब्राह्मण मित्र भी स्वयंवर देखने की इच्छा से वहां एक ओर जाकर बैठ गया। हथिनी ने इसी ब्राह्मण मित्र को माला पहनाई तो राजा ने बड़ी धूमधाम से अपनी राजकुमारी का विवाह उसके साथ कर दिया। तत्पश्चात दोनों सुखपूर्वक रहने लगे।
एक दिन राजकन्या ने पूछा- हे नाथ! आपने कौन-सा पुण्य किया जिससे हथिनी ने आपके गले में वरमाला पहनाई। ब्राह्मण पति ने कहा- मैंने कार्तिकेयजी द्वारा बताए अनुसार 16 सोमवार का व्रत पूर्ण विधि-विधान सहित श्रद्धा-भक्ति से किया जिसके फल के कारण मुझे तुम्हारे जैसी सौभाग्यशाली पत्नी मिली। अब तो राजकन्या ने भी सत्य-पुत्र प्राप्ति के लिए व्रत किया और सर्वगुण संपन्न पुत्र प्राप्त किया। बड़े होकर पुत्र ने भी राज्य प्राप्ति की कामना से 16 सोमवार का व्रत किया।
राजा के देवलोक होने पर इसी ब्राह्मण कुमार को राजगद्दी मिली, फिर भी वह इस व्रत को करता रहा। एक दिन उसने अपनी पत्नी से पूजा सामग्री शिवालय ले चलने को कहा, परंतु उसने पूजा सामग्री अपनी दासियों द्वारा भिजवा दी। जब राजा ने पूजन समाप्त किया, तो आकाशवाणी हुई कि हे राजा, तुम इस पत्नी को त्याग दो नहीं तो राजपाट से हाथ धोना पड़ेगा।
प्रभु की आज्ञा मानकर उसने अपनी पत्नी को महल से निकाल दिया। तब वह अपने भाग्य को कोसती हुई एक बुढ़िया के पास गई और अपना दुखड़ा सुनाया तथा बुढ़िया को बताया- मैं पूजन सामग्री राजा के कहे अनुसार शिवालय में नहीं ले गई और राजा ने मुझे निकाल दिया।
बुढ़िया ने कहा- तुझे मेरा काम करना पड़ेगा। उसने स्वीकार कर लिया, तब बुढ़िया ने सूत की गठरी उसके सिर पर रखी और बाजार भेज दिया। रास्ते में आंधी आई तो सिर पर रखी गठरी उड़ गई। बुढ़िया ने डांटकर उसे भगा दिया।
अब रानी बुढ़िया के यहां से चलते-चलते एक आश्रम में पहुंची। गुसांईजी उसे देखते ही समझ गए कि यह उच्च घराने की अबला विपत्ति की मारी है। वे उसे धैर्य बंधाते हुए बोले- बेटी, तू मेरे आश्रम में रह, किसी प्रकार की चिंता मत कर। रानी आश्रम में रहने लगी, परंतु जिस वस्तु को वह हाथ लगाती, वह वस्तु खराब हो जाती। यह देखकर गुसांईजी ने पूछा- बेटी, किस देव के अपराध से ऐसा होता है? रानी ने बताया कि मैंने अपने पति की आज्ञा का उल्लंघन किया और शिवालय में पूजन के लिए नहीं गई, इससे मुझे घोर कष्ट उठाने पड़ रहे हैं।
गुसांईजी ने शिवजी से उसके कुशलक्षेम के लिए प्रार्थना की और कहा- बेटी, तुम 16 सोमवार का व्रत विधि के अनुसार करो, तब रानी ने विधिपूर्वक व्रत पूर्ण किया। व्रत के प्रभाव से राजा को रानी की याद आई और दूतों को उसकी खोज में भेजा।
आश्रम में रानी को देख दूतों ने राजा को बताया। तब राजा ने वहां जाकर गुसांईजी से कहा- महाराज! यह मेरी पत्नी है। मैंने इसका परित्याग कर दिया था। कृपया इसे मेरे साथ जाने की आज्ञा दें। शिवजी की कृपा से प्रतिवर्ष 16 सोमवार का व्रत करते हुए वे आनंद से रहने लगे और अंत में शिवलोक को प्राप्त हुए।
कथा सुनने के पश्चात शिवजी की आरती 'ॐ जय शिव ओंकारा' गाएं।
प्रकाशक एवं संकलनकर्ता - श्रीमती चंद्रमणी दुबे
साभार- बारह महीनों की व्रत कथाएं