लंदन : बहुलता और संस्कृति का शहर
आजादी का शहर
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सुनंदा राव ब्रिटेन की राजधानी लंदन दुनिया में बहुलता और संस्कृतियों के बीच समागम का प्रतीक है। दुनिया का शायद ही कोई ऐसा देश या समुदाय होगा जिसका प्रतिनिधित्व यहाँ न होता हो। लंदन में कदम रखते ही एक अलग ही हलचल महसूस होती है। एक समय दुनिया पर राज करने वाला यह द्वीप इस समय मरुस्थल रूपी दुनिया के बीचोबीच नखलिस्तान यानी हरा-भरा इलाका प्रतीत होता है। एशियाई, अफ्रीकी, अमेरिकी, यूरोपीय हर मूल के लोग यहाँ मिल-जुल कर रहते हैं। सुनने पर यह कोई नई बात नहीं लगती- अमेरिका में बरसों से विभिन्न देशों से लोग जाकर बसते आए हैं लेकिन बहुत कम देश ऐसे हैं जहाँ आप्रवासियों को अपनी पहचान बनाए रखने की पूरी आजादी मिलती है। आजादी ही नहीं, उन्हें अपनी जड़ों से जुड़े रहने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। हिंदू, सिख, मुसलिम जैसे बड़े धार्मिक समुदायों के साथ-साथ पारसी, बहाई, बौद्ध जैसे छोटे धार्मिक समुदायों का भी प्रतिनिधित्व यहाँ होता है।9
/11 सितंबर की घटना के बाद से ही पश्चिमी समाज में इस्लाम के खिलाफ पनप रही घृणा की भावनाओं पर लगातार बहस होती आ रही है। नतीजतन फ्रांस में हिजाब पर रोक तो कहीं स्विट्जरलैंड में मीनारों के निर्माण पर रोक जैसे निर्णय सामने आ रहे हैं। ऐसे में यूरोप के बीचोंबीच लंदन जैसे शहर में जितनी बड़ी संख्या में महिलाएँ बुर्के और हिजाब में दिखती हैं, किसी अन्य पश्चिमी शहर में नहीं दिखतीं। ब्रिटेन में सबसे बड़ा अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय मुसलिम समुदाय है। देश में कुल 1,500 मस्जिदें हैं। चाहे वह शिया हो, सुन्नी हों या अहमदिया लंदन में हर मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व मिल जाएगा। पाकिस्तानी मूल के 21 वर्षीय इरफान पिछले दो वर्ष से लंदन में मेडिसिन की पढ़ाई कर रहे हैं। इरफान कहते हैं कि हालांकि उनकी दाढ़ी है और वे मुस्लिम पोशाक पहनते हैं मगर उनके दोस्तों और सहपाठियों ने कभी उनके साथ कोई आपत्तिजनक व्यवहार नहीं किया। उनका मानना है कि ब्रिटेन में उनके साथ कभी कोई भेदभाव की घटना नहीं हुई लेकिन उन्हें लगता है कि 9/11 के बाद से इस देश में भी मुस्लिम समुदाय को शक की नजरों से देखा जा रहा है। उनके कॉलेज में पिछले छह महीनों से नमाज पढ़ने के लिए एक बड़े कमरे की दरखास्त डाली गई है लेकिन उस पर कोई फैसला नहीं लिया जा रहा है। इसका प्रमाण हाल ही में ब्रिटेन की स्कॉटलैंड यार्ड की आतंकवाद निरोधी रिपोर्ट में भी सामने आया है।
रिपोर्ट के मुताबिक लंदन में मुसलमानों के खिलाफ हो रहे अपराध पिछले कुछ समय में बढ़े हैं जिनमें जान से मार डालने की धमकी से लेकर हत्याएँ तक शामिल हैं जो इस्लाम के खिलाफ नफरत से प्रेरित थीं लेकिन साथ ही इसके लिए ब्रिटेन के कुछ नेताओं और मीडिया को दोषी ठहराया गया है। हालाँकि रिपोर्ट ने खास तौर पर किसी लेखक या अखबार का नाम नहीं लिया है लेकिन उसके अनुसार, इस्लाम के खिलाफ नफरत से भरी मेलानी फिलिप्स की किताब लंदनिस्तान का खास जिक्र जरूर किया गया है। इरफान के साथ पढ़ रहे अशरफ जहाँगीर भी मानते हैं कि लंदन में एक खास तबका है जहाँ पर मुसलमानों के खिलाफ नफरत पनप रही है लेकिन उनका ऐसा कोई दोस्त नहीं जो अपने मन में मुसलमानों के खिलाफ नफरत लिए है। उनके ऐसे कई दोस्त हैं जो इस्लाम के बारे में या तो काफी हद तक जानकारी हासिल कर चुके हैं या फिर इसमें दिलचस्पी रखते हैं। अशरफ कहते हैं कि भारत से आए उनके कई हिंदू दोस्तों के साथ घुलने-मिलने में उन्हें कोई तकलीफ नहीं होती क्योंकि उनके लिए इस्लाम कोई नई बात नहीं है। एक तरफ तो कॉलेजों में पढ़ने वाले ये नौजवान हैं जो अपने धर्म पर खुलकर बोलते हैं तो वहीं दूसरी और बेरोजगारी और पर्याप्त शिक्षा के कारण हाशिए पर पड़े नौजवानों में भी धर्म के प्रति झुकाव बहुत ज्यादा है। इनमें दक्षिण एशिया से 50 और 60 के दशक में लंदन आए आप्रवासियों के बच्चों की अच्छी-खासी संख्या शामिल है। लंदन में रनीमीड ट्रस्ट के सदस्य डॉ. ओमर खान के अनुसार इसका एक बड़ा हिस्सा बांग्लादेशी समुदाय का है। वे बताते हैं कि ब्रिटेन में रह रहे 75 प्रतिशत बांग्लादेशी मूल के लोग गरीबी में जीवन-बसर कर रहे हैं और इसलिए बेरोजगारी और शिक्षा की समस्या इस समुदाय में सबसे ज्यादा है। जहाँ एक ओर भारत और पाकिस्तान से आने वाले युवा यहाँ आकर अच्छा व्यवसाय या अच्छी नौकरी करते हैं वहीं बांग्लादेश से आए ज्यादातर युवक यहाँ होटलों और रस्तराओं में काम करते हैं। उन्हें अंग्रेजी भाषा का अच्छा ज्ञान नहीं होता इसलिए उनका यहाँ के समाज से सामंजस्य भी मुश्किल से हो पाता है। ऐसे में अपराध भी इस वर्ग का हिस्सा बन जाता है। ब्रिटेन के अखबार 'द सन' ने अपनी एक रिपोर्ट में लंदन में हिंसा से प्रेरित युवाओं को इस्लाम के नाम पर बंदूक उठाता दिखाया गया है। साथ ही बताया गया है कि किस प्रकार एक 21 वर्षीय युवा आमिर की संस्था हर रोज ड्रग्स तस्करी और क्रेडिट कार्ड घोटालों से हजारों पाउंड इकट्ठा कर रही है। दूसरी तरफ यह कहना गलत होगा कि ब्रिटेन में इस्लाम से प्रेरित हिंसा को रोकने के लिए खुद मुस्लिम समुदाय कोशिश नहीं कर रहा। रनीमीड ट्रस्ट के डॉ. ओमर खान बताते हैं कि 9/11 के बाद कुछ मामले ऐसे भी आए हैं जहाँ सिखों को मुसलमान समझकर पीट दिया जाता था लेकिन इस बीच ऐसी घटनाएँ कम हो गई हैं। डॉ. खान के अनुसार ब्रिटेन का मुस्लिम समुदाय बहुत पढ़ा-लिखा और जागरूक है। कश्मीर का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि एक पाकिस्तान और भारतीय प्रशासित कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा खुद को मुसलमान समुदाय से अलग, कश्मीरी समुदाय की अपनी पहचान बनाने की कोशिश कर रहा है। यह जानकर खासा आश्चर्य होता है कि किसी भी गोष्ठी या सेमिनार में जब इस्लाम पर बहस होती है तो उसमें सबसे ज्यादा योगदान महिलाओं का होता है। ब्रिटिश संसद में हाल ही में देश में इस्लाम और मुस्लिम समुदाय की तकलीफों को लेकर एक बहस छिड़ी जिसमें सबसे बड़ा योगदान हिजाब पहनी युवतियों का हुआ। 25 वर्षीय शबाना ने इसी बहस के दौरान ब्रिटिश सांसदों के सामने अकेले उठ कर फिलीस्तीन और इराक की समस्या पर बहस छेड़ी और कई सांसदों ने गोष्ठी के अंत में शबाना की प्रशंसा करते हुए गर्व से बताया कि इतने वर्षों के बाद ब्रिटिश समाज ने जो हासिल किया है, शबाना उसका प्रतीक है। इस्लामिक देशों की तुलना में ब्रिटेन में मुस्लिम महिलाएँ शिक्षित और अपने अधिकारों को लेकर अधिक जागरूक हैं। ब्रिटेन में पैदा आमना की परवरिश ब्रैडफोर्ड में हुई। 20 वर्ष की आमना से बात करने पर पता चलता है कि वह एक गिरजाघर में काम करती हैं। वह कहती हैं कि हिजाब न केवल उसके धर्म बल्कि उसकी पहचान का हिस्सा है। राजनीति में उनकी गहरी दिलचस्पी है। उनके पिता व्यापारी हैं लेकिन उसकी मां व्यापार में 50 प्रतिशत की पार्टनर हैं और दोनों साथ मिल कर काम करते हैं। लंदन से करीब 200 किलोमीटर दूर, वेल्स की राजधानी कार्डिफ में मुस्लिम परिषद के अध्यक्ष और अल्पसंख्यक व्यापार संगठन के अध्यक्ष सलीम किदवाई बताते हैं कि मुस्लिम महिलाओं के लिए सरकार ने खास व्यापार प्रावधान बनाए हैं और महिलाओं को व्यापार शुरू करने के लिए खास सहायता भी दी जाती है। लंदन की तुलना में कार्डिफ जैसे छोटे शहरों में विभिन्न समुदायों के बीच अंतर-धार्मिक विश्वास परिषदों का गठन किया गया है। इनके जरिये हर समाज में हर धर्म का प्रतिनिधित्व होता है और हर महीने परिषद की बैठकों में धर्म से जुड़ी समस्याओं पर चर्चा होती है। कार्डिफ परिषद में मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधि डॉ. अहमद दार्विश बताते हैं कि उनके शहर में खासतौर पर मुस्लिम युवा की शिक्षा और बेरोजगारी एक संवेदनशील मुद्दा है लेकिन उनके दिशानिर्देश के लिए शहर की मस्जिदों और स्कूलों में कई योजनाएँ शुरू की गई हैं जिनके जरिये वे कोई नया पेशा या कोई नया व्यापार शुरू कर सकते हैं। कार्डिफ में बचपन से ही दूसरे धर्मों का आदर करने और उन्हें समझने की कोशिशों के तहत कई स्कूलों में अंतर-धार्मिक शिक्षा योजनाएँ शुरू की गई हैं। ऐसा ही एक प्राइमेरी स्कूल है - किर्शनर स्कूल। इस स्कूल की खास बात यह है कि वहाँ इस समय 19 देशों के आप्रवासियों के बच्चे साथ मिल कर पढ़ते हैं। स्कूल के हर कमरे में मस्जिदों, गिरजाघरों और मंदियों की तस्वीरें और मॉडल हैं। स्कूल की प्रिंसिपल जेन एवेंस बताती हैं कि इस साल 22 विभिन्न भाषाएँ बोलने वाले बच्चे एक साथ पढ़ रहे हैं और वे समय के साथ अंग्रेजी तो सीख ही जाते हैं, उन्हें यह भी पता चलता है कि उनका रहन-सहन अपने दोस्तों से बेशक अलग क्यों न हो, मानवता से ऊपर कुछ नहीं। विशेष रूप से उन बच्चों को चार साल की उम्र से ही दूसरे धर्मों के साथ रहना, उन्हें समझना सिखाया जाता है। ब्रिटेन में ईसाइयों के बाद दूसरा सबसे बड़ा धार्मिक समुदाय मुसलमानों का है। लंदन में ही नहीं एक अन्य शहर ब्रैडफोर्ड में दक्षिण एशियाई समुदाय, खासकर पाकिस्तानी समुदाय का एक बड़ा हिस्सा रहता है। आमतौर पर ब्रैडफोर्ड को मिनी पाकिस्तान कहा जाता है। शहर के एक रिहायशी इलाके में स्थित मदनी जामिया मस्जिद को एक प्रकार से ब्रिटेन के उदार मुस्लिम समाज के उदाहरण के तौर पर देखा जाता है। मस्जिद में एक समय पर 1,500 लोग नमाज पढ़ सकते हैं। हालाँकि इमारत की बनावट इस्लामिक तौर तरीकों से की गई है लेकिन इसका भी खास ध्यान रखा गया है कि वह शहर की तस्वीर में समा जाए इसलिए खास हल्के पत्थर का इस्तेमाल किया गया है। मस्जिद में नमाज पढ़ने आए युवा इश्तियाम तारिक के अनुसार हर साल उनकी मस्जिद के दरवाजे जनता के लिए खोल दिए जाते हैं ताकि लोग इस्लाम के प्रति अपनी शंकाओं को दूर कर सकें। शहर की मस्जिद में महिलाओं के लिए भी नमाज पढ़ने और इबादत करने का प्रावधान है। इसके अलावा एक खास लाइब्रेरी है जहाँ इस्लाम के साथ-साथ अन्य धर्मों पर किताबें भी रखी गई हैं। तारिक बताते हैं कि वे खुद पाकिस्तानी मूल के हैं और वे पाकिस्तान में वर्तमान स्थिति को लेकर काफी चिंतित भी हैं लेकिन उनकी पहचान पाकिस्तान से नहीं, ब्रिटेन से है और वे गर्व से खुद को एक ब्रिटिश मुसलमान कहलाना पसंद करते हैं। ब्रिटेन में इस्लाम- 2001
के आंकड़ों के अनुसार ब्रिटेन में 24 लाख मुसलमान रहते हैं। -
इस्लाम ब्रिटेन का दूसरा सबसे बड़ा धार्मिक समुदाय है। -
ज्यादातर मुसलमान ब्रिटेन के उपनिवेश यानी पाकिस्तान, बांग्लादेश, भारत, सोमालिया, इंडोनेशिया और अरब देशों से आकर यहाँ बसे हैं। -
ब्रिटेन में 1500 से ज्यादा मस्जिदें हैं जिनमें से 50 से 60 फीसदी बरेलवी सोच से जुड़े हैं।-
ब्रिटेन में हर मुस्लिम समुदाय की संस्थाएँ हैं जिनमें अहमदिया मुस्लिम फाउंडेशन, सूफी मुस्लिम काउंसिल, इस्लामिक सोसायटी ऑफ ब्रिटेन आदि प्रमुख हैं। -
ज्यादातर मुसलमान इंग्लैंड और वेल्स में रहते हैं। ब्रिटेन में रह रहे सभी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व मुस्लिम काउंसिल ऑफ ब्रिटेन द्वारा होता है।