10 जून 1950 को महाराष्ट्र के अमरावती जिले में जन्मे विजय ने इतिहास में एम.ए. किया। भारतीय पुलिस सेवा में शामिल। 'गजल' एवं 'दो मिसरे' गजल संग्रह प्रकाशित। हिंदी में बशीर बद्र की चुनी हुई गजूलों का संपादन। 'साहित्यश्री' तथा 'पुश्किन सम्मान' के अलावा उत्कृष्ट सेवाओं के लिए राष्ट्रपति का पुलिस पदक और भारतीय पुलिस पदक से सम्मानित।
एक पूछिए, सब कुछ हवा से पूछिए, खैरियत, लेकिन खुदा से पूछिए। रेल कितना कुछ हमारा ले गई, लक्ष्मण की उर्मिला से पूछिए। वायदों के रंग थे कितने मधुर, ये किसी बूढ़े पिता से पूछिए। जानकी कैसे रही उद्यान में, रामजी की मुद्रिका से पूछिए।
दो वो तो सुबह के सपने जैसा लगता है, पहले प्यार के जैसा सच्चा लगता है। पीले पत्ते जैसे झरते आँगन में, वैसे वो भी उखड़ा-उखड़ा लगता है।
नाच दिखाने तौल रहा जो पर अपने, मोर कहीं वो रोया-रोया लगता है। उसकी बातें और करो कुछ और करो, उसके किस्से सुनना अच्छा लगता है। इश्क, अदावत, खुशबू, पीड़ा, हँसी, छुअन बेचेहरों के चेहरे जैसा लगता है। भीगे मन महसूस करेंगे इसे ‘विजय’, शेर गजल का दिल का हिस्सा लगता है।
तीन जरा सा सोच भी लेते अगर अंजाम से पहले, हमें फिर क्यों सजा मिलती, किसी इल्जाम से पहले।
कभी तुम भी झुको, कोशिश करो हमको मनाने की, कभी राधा भी तट पर आ गई थी, श्याम से पहले।
वो लक्ष्मी हो कि सीता हो, कि राधा हो या गौरी हो, तुम्हारा नाम आएगा, हमारे नाम से पहले।
इरादे नेक थे अपने, यकीनन ठीक थी नीयत, दिखाना था मुहूरत भी, हमें, शुभ काम से पहले।
सुबह उठते ही सोचा था, पिएँगे अब नहीं वाते, खुदा ताकत दे ये, तौबा न टूटे शाम से पहले।