एक बच्चे के भीख मांगने से लेकर फिजियोथेरेपिस्ट बनने तक की दास्तां
(सुरक्षित बचपन दिवस पर विशेष)
नई दिल्ली, जिंदगी में अनहोनी होना कोई नई बात नहीं है लेकिन जब यह किसी मासूम बच्चे के साथ होती है तो जेहन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि मासूम के साथ ऐसा क्यों? कई बार तो यह इतनी भयावह होती है कि मासूम की पूरी जिंदगी ही बर्बाद हो जाती है। हालांकि कुछ मासूम ऐसे भी होते हैं जो किसी तरह तमाम कठिनाइयों से गुजरते हुए भी अपने लिए एक नई मंजिल तलाश लेते हैं। ये कहानी भी एक ऐसे ही बच्चे की है, जो कभी भीख मांगने को मजबूर था लेकिन आज फिजियोथेरेपिस्ट के रूप में अपना जीवन सम्मान के साथ जी रहा है।
कम उम्र में ही मां गुजर गई
उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के उरई में रहने वाले इस मासूम बच्चे का नाम मनीष कुमार है। गरीब परिवार में पैदा हुए मनीष की जिंदगी की शुरुआत ही दुश्वारियों से हुई। कम उम्र में ही उसकी मां पीलिया होने के कारण चल बसीं। यह इस मासूम के साथ हुई पहली अनहोनी थी, जो एक अंतहीन मुश्किलों वाले सफर की शुरुआत भर थी। पिता के नाम पर मनीष की किस्मत में एक शराबी बाप था। आए दिन शराब के नशे में मनीष को पीटना उसके लिए एक आम बात हो चुकी थी।
शराबी पिता की प्रताड़ना
बिन मां का बच्चे के सामने अब खुद को पालने की चुनौती थी। कम उम्र में ही उसे रोजीरोटी कमाने के लिए मजबूर होना पड़ा। शराबी पिता का अत्याचार कम होने का नाम नहीं ले रहा था। वह मासूम की मेहनत के पैसे भी शराब पीने के लिए छीन लेता था। लगातार प्रताड़ना सहने के बाद एक दिन मनीष ने तय किया कि वह घर छोड़ देगा। आखिरकार एक दिन मासूम बच्चा घर छोड़कर भाग जाता है और रेलवे स्टेशन पर रहने लगता है।
भीख मांगने को मजबूर
एक मासूम जिसके पास कुछ समय पहले तक मां-बाप थे और एक घर भी था, आज रेलवे स्टेशन पर भीख मांगने को मजबूर था। रेलवे स्टेशन ही उसका घर बन चुका था और भीख देने वाले रेल यात्री उसके लिए अन्नदाता। दिन गुजरते जा रहे थे और एक मासूम बच्चा भिखारी में बदल चुका था। लेकिन शायद उसकी किस्मत में कुछ और लिखा था। एक दिन ट्रेन में ही भीख मांगते हुए उसे एक यात्री ने दिल्ली स्थित मुक्ति आश्रम का पता दिया और वहां जाने को कहा। मुक्ति आश्रम की स्थापना नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी ने की थी। यह अपनी तरह का देश का पहला पुनर्वास केंद्र है, जहां बालश्रम से छुड़ाए गए बच्चों को रखा जाता है। इसका संचालन बचपन बचाओ आंदोलन के द्वारा किया जाता है। यह वो जगह थी, जो मनीष की जिंदगी को एक नई दिशा देने वाली थी।
मुक्ति आश्रम से मिली नई राह
आखिर एक दिन मनीष मुक्ति आश्रम तक पहुंच गया। आश्रम के लोग भी मनीष की कहानी सुनने के बाद आश्चर्य में पड़ गए कि एक छोटा बच्चा इतनी दूर से आया कैसे? खैर मनीष की जिंदगी करवट ले चुकी थी। कुछ महीने यहां रहने के बाद मनीष को राजस्थान के बाल आश्रम में भेज दिया गया, ताकि उसकी पढ़ाई अच्छे से हो सके। बाल आश्रम की स्थापना कैलाश सत्यार्थी और उनकी धर्मपत्नी श्रीमति सुमेधा कैलाश ने की थी।
बाल आश्रम ने बदली जिंदगी
मनीष के लिए यह सब एक नई दुनिया की तरह था। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि उसके पास भी रहने को घर है और वह पढ़ाई कर सकता है। धीरे-धीरे मनीष बाल आश्रम में पूरी तरह से रम गया और खूब मन लगाकर पढ़ाई करने लगा। कैलाश सत्यार्थी और सुमेधा कैलाश की देखरेख में मनीष नई जिंदगी को जी रहा था। उसकी मेहनत का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है 72 प्रतिशत अंकों के साथ उसने हाईस्कूल की परीक्षा पास की। इसके बाद 12वीं की परीक्षा पास करने के बाद मनीष ने एसआरएम इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी से फिजियोथेरेपी में बैचलर की डिग्री हासिल की। फिलहाल उसे काम करते हुए एक साल हो चुका है। आज जब 11 जनवरी को नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी के जन्मदिन को पूरे देश में सुरक्षित बचपन दिवस के रूप में मनाया जा रहा है तो ऐसे अनेक मनीष की कहानी पढ़ना लाजिमी है जिनके जीवन को कैलाश सत्यार्थी के प्रयासों से एक नई जिंदगी मिली है।
Edited by navin rangiyal