बापू के आह्वान के 100 साल पूरे, लेकिन हिन्दी नहीं बन सकी 'राष्ट्रभाषा'
इंदौर। 'जैसे अंग्रेज मादरी जबान (मातृभाषा) यानी अंग्रेजी में ही बोलते हैं और सर्वथा उसे ही व्यवहार में लाते हैं, वैसे ही मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का गौरव प्रदान करें। इसे राष्ट्रभाषा बनाकर हमें अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए।'
इतिहास के गलियारे में गूंजते ये शब्द इंदौर में महात्मा गांधी के उस भाषण का हिस्सा हैं जिसमें उन्होंने ठीक एक सदी पहले हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने का सार्वजनिक आह्वान किया था।
हिन्दी के प्रसार से जुड़ी स्थानीय संस्था मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति के प्रचार विभाग के प्रमुख अरविंद ओझा ने गुरुवार को बताया कि बापू ने यह भावुक अपील यहां 29 मार्च 1918 को 8वें हिन्दी साहित्य सम्मेलन के दौरान अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में की थी। उस समय देश स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहा था और हिन्दी के सम्मान में बापू के दिल से निकले बोलों ने जनमानस में मातृभूमि की आजादी के लिए नया जज्बा जगा दिया था।
ओझा ने कहा कि यह बेहद दुर्भाग्यूर्ण है कि राष्ट्रपिता की इस अपील के पूरे 100 साल गुजरने के बाद भी हिन्दी को अब तक राष्ट्रभाषा का संवैधानिक दर्जा नहीं दिया जा सका है, जबकि यह जुबान देश में सबसे ज्यादा बोली और समझी जाती है। इंदौर के मौजूदा नेहरू पार्क में आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में महात्मा गांधी ठेठ काठियावाड़ी पगड़ी, कुर्ते और धोती में मंच पर थे। वर्ष 1910 में स्थापित मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति इस कार्यक्रम के आयोजन में सहभागी थी।
बापू ने अपने भाषण में हिन्दी की गंगा-जमुनी संस्कृति पर भी जोर दिया था। उन्होंने कहा था कि हिन्दी वह भाषा है जिसे हिन्दू और मुसलमान दोनों बोलते हैं और जो नागरी अथवा फारसी लिपि में लिखी जाती है। यह हिन्दी संस्कृतमयी नहीं है, न ही वह एकदम फारसी अल्फाज से लदी हुई है।
'बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी' से 'महात्मा गांधी' बने राष्ट्रपिता ने आम बोलचाल के साथ अदालती कामकाज में भी हिन्दी के इस्तेमाल की पुरजोर पैरवी की थी। उन्होंने कहा था कि हमारी कानूनी सभाओं में भी राष्ट्रीय भाषा द्वारा कार्य चलने चाहिए। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक प्रजा को राजनीतिक कार्यों में ठीक तालीम नहीं मिलती है। हमारी अदालतों में राष्ट्रीय भाषा और प्रांतीय भाषाओं का जरूर प्रचार होना चाहिए।
और ये थे बापू के अध्यक्षीय उद्बोधन के आखिरी शब्द जिनके जरिए उनके दिल में बसी हिन्दी जैसे खुद बोल उठी थी- 'मेरा नम्र, लेकिन दृढ़ अभिप्राय है कि जब तक हम हिन्दी को राष्ट्रीय दर्जा और अपनी-अपनी प्रांतीय भाषाओं को उनका योग्य स्थान नहीं देंगे, तब तक स्वराज्य की सब बातें निरर्थक हैं।'
भारतीय संविधान के जानकार सुभाष सी. कश्यप ने बताया कि देवनागरी लिपि वाली हिन्दी को संविधान में 'राष्ट्रभाषा' का नहीं, बल्कि 'राजभाषा' का दर्जा दिया गया है। इसके अलावा संविधान की 8वीं अनुसूची में हिन्दी समेत 22 जुबानों को भारतीय भाषाओं के रूप में शामिल किया गया है।
उन्होंने कहा कि अगर हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाया जाना है, तो जाहिर है कि संविधान में बदलाव करना होगा। लेकिन ऐसा किए जाने से देश में सियासी मसले खड़े हो सकते हैं। कश्यप ने कहा कि हमारे देश में आजादी से पहले खासकर दफ्तरी कामकाज में अंग्रेजी का इतना धड़ल्ले से इस्तेमाल नहीं होता था जितना आज हो रहा है। इसलिए सबसे पहली जरूरत तो इस बात की है कि हिन्दी को राजभाषा का संवैधानिक सम्मान सच्चे अर्थों में दिलाने के प्रयास किए जाएं। (भाषा)