हो सकता है कि महिलाएं मेरी बात से सहमत न हों लेकिन इन दिनों मैं देख रही हूं कि स्त्री-विमर्श और नारी स्वतंत्रता का बिगुल बज रहा है हर कहीं। स्त्रियों को उनकी दयनीय अवस्था से निकालने और उन्हें उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने में नि:संदेह इस आंदोलन ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है किंतु यह मामला आजकल कुछ एकतरफा-सा हो गया है।
हर जगह बेटी को अच्छा बताने और बेटे को खराब बताने की होड़-सी लगी हुई है। हद तो तब है कि बेटे की मां को हिकारत तक की नजर से देखा जाने लगा है। बेटियां ही अच्छी होती हैं और सारे बेटे खराब? भारत में generalization एक रोग है। कुछ बेटे-बहू खराब तो सारे बहू-बेटा कौम खराब, एक मुस्लिम ने बलवा किया या हिन्दू ने, तो हम पूरी कौम को खराब कह देते हैं।
मैंने और आपने भी अपने आसपास हर तरह के लोग देखे होंगे। परिवारों में विघटन आज के युग की सबसे बड़ी समस्या है। कहीं बेटा-बहू जिम्मेदार है, तो कहीं सास-ससुर ने बहू-बेटे का जीना हराम कर दिया है लेकिन हम पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो अक्सर सिर्फ बेटे-बहू को ही दोष दे देते हैं।
मैंने कई बेटे-बहू देखे हैं, जो पूरी तरह से अपने परिवार के प्रति समर्पित हैं किंतु उनके सेवाभाव को तारीफ का एक बोल भी नसीब नहीं। बुजुर्गों की अपेक्षाएं इतनी अधिक कि बिना आधुनिक युग के तनावों को समझे हमेशा तलवार ताने तैयार और कहीं-कहीं बेटा-बहू भी अत्यधिक स्वार्थी। अपने में मगन, परिवार से कोई मतलब नहीं। किंतु एकतरफा सोच में सोचिए उन बेटे-बहूओं पर क्या गुजरती होगी जिन्हें 'टेकन फॉर ग्रांटेड' मान लिया जाता है।
यही मानसिकता आज नारी स्वतंत्रता जैसे आंदोलनों में भी दिखाई दे रही है। स्त्रियां सब अच्छी और पुरुष सब खराब? अच्छाई और बुराई कब से लिंग के आधार पर निर्धारित की जाने लगी? दोनों ही मनुष्य हैं और अच्छाई और बुराई दोनों में ही समान रूप से मौजूद होती है।
कहा जाता है कि बेटियां भी बेटों की तरह इंसान हैं। बिलकुल ठीक। उन्हें इंसान ही माना जाना चाहिए। भगवान या अति-मानवीय गुणों से संपन्न कोई रचना नहीं। जब वे इंसान हैं तो मानवीय बुराइयां भी उनमें होंगी ही।
लेकिन आजकल हवा कुछ यूं चली है कि स्त्री तो बुरी हो ही नहीं सकती और इन दिनों हम ठीक उसी असंतुलन की तरफ बढ़ रहे हैं जिसका शिकार हम स्त्रियां खुद हुई थीं। हमारे पूर्वजों ने लड़कों को निरंकुश बना स्त्रियों के लिए नरक का निर्माण किया था, आज स्त्रियां स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के अंतर को भूल रही हैं और उन्हें हम ही प्रेरित कर रहे हैं।
'सावधान इंडिया' और 'क्राइम पेट्रोल' जैसे प्रोग्राम द्वारा और समाचार-पत्रों में अपराध की नई इबारत लिखतीं स्त्रियां क्या पुरुषों को हर क्षेत्र में पीछे छोड़ने की धुन में उन्हें उनकी पाशविकता में भी पीछे छोड़ने का मन बना चुकी हैं?
मेरा यह शिद्दत से मानना है कि इस दुनिया की हर समस्या को अच्छी और कोमल भावनाओं से युक्त दयावान स्त्री के मन से देखा जाए तो यह दुनिया अधिक खूबसूरत होगी, क्योंकि यकीनन स्त्री और उसका मां स्वरूप इस संसार की सर्वश्रेष्ठ रचना है।
किंतु मैं यह देखकर अत्यंत व्यथित हूं कि स्त्री भी अपने अधिकारों का वैसा ही दुरुपयोग कर रही है, जैसा कि पुरुष करते आ रहे हैं। क्या शक्ति और स्वतंत्रता हर मनुष्य को निरंकुश बना देते हैं? आप मानें न मानें किंतु पारिवारिक विघटन की जड़ में स्त्री कभी सास, कभी बहू, कभी ननद, कभी देवरानी-जेठानी बन पुरुषों का जीना हराम कर देती है। बेटों के सर ठीकरा फोड़ स्त्रियां अपने को बचा लेती हैं।
यह एक ऐसा विषय है जिस पर शोध होना चाहिए, न कि पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो पूरे पुरुष समुदाय को दोषी ठहरा दिया जाए। सहनशीलता की कमी, छोटी-छोटी-सी बातों पर टूटते घर, बलात्कार का झूठा आरोप, दहेज का कई जगह झूठा आरोप, पुरुष की दुर्बलता का लाभ, स्त्री होने का लाभ उठाने की प्रवृत्ति क्या हमें यह सोचने पर मजबूर नहीं कर रही कि हमने यह तो नहीं चाहा था, सह-अस्तित्व चाहा था स्व-अस्तित्व नहीं।
पुरुष मात्र का विरोध करना ही तो स्वतंत्रता नहीं, अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने का नाम तो फेमिनिज्म नहीं। अत्याचार का विरोध हो, अधिकारों के प्रति जागरूकता हो किंतु अहंकारवश बदले की भावना के साथ अधिकारों का दुरुपयोग न हो। जिस तरह दलितों और अल्पसंख्यकों के बारे में कुछ भी बोलना या लिखना अपराध हो गया है, ठीक उसी तरह स्त्री के विरोध में कही गई किसी बात को कोई स्थान नहीं मिलता, उनकी गलती को गलती नहीं कहा जा सकता।
मेरे बेटे ने मुझसे एक दिन पूछा था कि 'मां, क्या लड़के सारे खराब होते हैं?
मैंने पूछा- 'क्यों?'
तो उसने जवाब दिया कि 'क्लास में टीचर लड़कियों को बहुत सॉफ्ट पनिशमेंट (सजा) देती है, मारती कभी नहीं, वहीं हम लड़कों को मार भी खानी पड़ती है और हर बार हार्ड पनिशमेंट। और लड़कियां हर बार लड़की होने के कारण छुट जाती हैं।'
हम लड़कों को बचपन से ही कठोरता से पालते हैं और बड़े होने पर उनसे भावनाओं की अपेक्षा करते हैं, वहीं लड़कियों को हर जगह अति-संवेदनशीलता से बड़ा करते हैं और बड़े होने पर उनसे अति-आत्मविश्वास और मजबूत होने की अपेक्षा?
क्या अच्छा नहीं होगा कि हम लड़कों में भावनाएं, संवेदनशीलता और लड़कियों में आत्मविश्वास रोपित कर उन्हें एक संतुलित व्यक्तित्व के रूप में गढ़ सकें, जो बिना स्त्री-पुरुष का भेद किए सही को सही और गलत को गलत कह सके।
21वीं सदी में नई उड़ान भरती, आत्मविश्वास से लबरेज, दुनिया जीतने का हौसला रखने वाली, अपनी खोज में आतुर स्त्री को देख मन बहुत खुश हुआ था कि अब समाज में असंतुलन खत्म हो जाएगा।
पढ़ी-लिखी स्त्री से मुझे उम्मीद थी कि वह संतुलित रवैए से आगे बढ़ेगी लेकिन जब स्त्री को पुरुष (बुरे पुरुष) की राह पर ही चलते देखा तो मुझे यह ऐसा लगा मानो सोने पर, हीरे पर जंग लग रही है।