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Written By Author नवीन जैन
Last Updated : सोमवार, 14 मार्च 2022 (20:26 IST)

मेडिकल शिक्षा की व्यवस्था पर पुनर्विचार समय की अहम मांग

मेडिकल शिक्षा की व्यवस्था पर पुनर्विचार समय की अहम मांग - Rethinking the system of medical education is the important demand of the time
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि बुरा समय नया संदेश लेकर आता है। खबर आम हो चुकी है कि यूक्रेन के एक मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई करने गए छात्र नवीन की रूस के यूक्रेन पर हमले के दौरान मौत हो गई। यह छात्र कर्नाटक का बताया जा रहा है। खबरों में कहा जा रहा है कि उक्त स्टूडेंट भोजन लेने गया था। उसकी मृत्यु कैसे हुई यह? तो स्पष्ट नहीं हो पाया है, लेकिन इस बेहद दु:खद घटना ने भारत की केंद्र और राज्य सरकारों को विशेषकर मेडिकल की शिक्षा व्यवस्था पर पूरी गंभीरता और व्यापकता से पुनर्विचार करने का मौका दिया है, क्योंकि मृत छात्र के पिता ने एक इंटरव्यू में बताया कि नवीन को 97.8 प्रतिशत अंक आने के बावजूद देश के किसी भी मेडिकल कॉलेज में प्रवेश नहीं मिला। कारण बड़ा विडंबनापूर्ण है और वह है जातिगत आरक्षण।
 
संविधान में जीने का अधिकार प्रमुख अधिकारों में से एक है। यही अधिकार अच्छे स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ है। एक आंकड़े के अनुसार आजादी के वक्त भारत के आम आदमी की औसत आयु 45 वर्ष से भी कम थी। इसके कारण अपौष्टिक आहार, प्रदूषित जल, सूखा, खाद्यान्न की बर्बादी, प्रदूषित आबोहवा तो माने ही जाते रहे, लेकिन एक बड़ा कारण साधारण से बुखार, मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया, हृदय रोग, श्वसन रोग, टीबी, एड्स, कैंसर भी माने जाते रहे।
 
कहा जाता रहा कि उक्त बीमारियों से लगातार होने वाली मौतों पर अंकुश लगाया जा सकता था, बशर्ते काबिल डॉक्टर और अस्पताल उपलब्ध होते। हाल में कोविड-19 की 2 लहरों, ओमिक्रॉन आदि का ही उदाहरण लें। ऑक्सीजन वगैरह की कमी की बात तो अपनी जगह सही है, लेकिन डॉक्टर्स की इतनी कमी पड़ गई कि स्टूडेंट डॉक्टर्स, रिटायर्ड डॉक्टर्स और सैन्य डॉक्टर्स तक को इमरजेंसी ड्यूटी पर लगाना पड़ा।
 
भारत में 3 पद्धतियों को मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया ने मान्यता दे रखी है जिनमें से प्रमुख है- एलोपैथी। इस पद्धति को लगभग 400 साल पुराना, होम्योपैथी को लगभग 100 वर्ष पुराना और आयुर्वेद को तो सदियों पुराना माना जाता है। आयुर्वेद की इसी सफलता को देखते हुए एडवांस्ड मेडिकल साइंस के सिलेबस में इसे अब विशेष स्थान दिया गया है, हालांकि एलोपैथी पद्धति के चिकित्सकों का एक बड़ा वर्ग सरकार के इस निर्णय के सख्त खिलाफ है। इसी के बरक्स कई नामचीन एलोपैथिक डॉक्टर्स ऐसे भी हैं, जो घरेलू नुस्खों को आजमाने की सलाह देते हैं।
 
हम चीन की हर बात में लू उतारते रहते हैं, लेकिन इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं देते कि इस देश ने रातोरात नए विशाल कोविड-19 हॉस्पिटल खोल दिए थे, जो अत्याधुनिक थे। यही नहीं, वहां की सरकार तो कोरोना पुनर्वास के लिए नए-नए गांव बसाने की भी पूरी तैयारी कर चुकी थी। सरकारी अस्पतालों की कुव्यवस्था का आलम यह है कि एक प्रदेश के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल का मुआयना करने आए तब के तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने उक्त अस्पताल पर बम फेंक देने तक की बात कह दी थी। हर सरकारी अस्पताल के लगभग यही हालात हैं।
 
विश्व स्वास्थ्य संगठन की गाइडलाइन के मुताबिक प्रत्येक 1,000 की आबादी के पीछे 1 काबिल डॉक्टर होना चाहिए, लेकिन भारत के बारे में हैरतनाक फैक्ट यह है कि 11 हजार की आबादी के पीछे 1 डॉक्टर है। जो अति काबिल डॉक्टर हैं, वे अच्छी कार्यदशाओं एवं आकर्षक वेतन के चलते विदेश से ही उच्च मेडिकल परीक्षा पास कर वहीं बस जाया करते हैं।
 
भारत के लगभग हरेक शहर के सरकारी अस्पताल की जो हालत हो चुकी है, उसमें जाने से आम आदमी डरता है। एक अन्य आंकड़े में कहा गया है कि उपचार के लिए भारत का प्रत्येक चौथा गरीब या मध्यम परिवार कर्ज लेने, जमीन-जायदाद, सोना-चांदी बेचने को मजबूर हो जाता है, क्योंकि निजी अस्पतालों में मुंहमांगी फीस और अन्य खर्च देने पड़ते हैं।
 
हर आंकड़ों में उलझने से बात ऊबाऊ हो सकती है, लेकिन इस मुद्दे पर बिना आंकड़े दिए मुकम्मिल चर्चा शायद अधूरी ही रह जाए। देश में इस समय मेडिकल कॉलेजेस की संख्य मात्र 586 है, जो ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। इन कॉलेजेस में दर साल 89,875 एमबीबीएस और 46,118 स्नातकोत्तर सीटें उपलब्ध कराई जाती हैं। देश में 2014 तक कुल एमबीबीएस की 53,348 और पोस्ट ग्रेजुएट की सीटों की कुल संख्या 23,000 थी।
 
वर्तमान में देश में जो मेडिकल कॉलेजेस हैं, उनमें से लगभग आधे यानी 276 निजी मेडिकल कॉलेज भी प्राइवेट हैं, जहां से निकले मेडिकल ग्रेजुएट को 1 करोड़ रुपए की फीस तक चुकानी पड़ती है। एक जानकारी तो यह कहती है कि यूक्रेन, बांग्लादेश, चीन, तजाकिस्तान, फिलीपींस और रूस तक में मेडिकल की पढ़ाई का कुल खर्च 20 से 25 लाख बैठता है। भारत में सरकारी कॉलेज में यही खर्च 1 लाख सालाना बैठता है। एक हैरतनाक तथ्य यह भी है कि देश की कुल 48 प्रतिशत मेडिकल सीटें तो केरल, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, पुडुचेरी और महाराष्ट्र के पास हैं। कुल 276 निजी चिकित्सा महाविद्यालयों में से 165 तो उक्त सूबों के हवाले कर दिए गए हैं। सरकारी मेडिकल कॉलेजेस की संख्या है केवल 105।
 
यूक्रेन जाने वाले अधिकांश छात्र बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, नई दिल्ली, हरियाणा, झारखंड, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे हिन्दी बेल्ट के हैं। इन सूबों की जनसंख्या लगभग 65 करोड़ है। एमबीबीएस की जो उपलब्ध सीटें हैं, उनमें से मात्र 30 फीसदी इन राज्यों के हक में आती हैं। कुल मेडिकल महाविद्यालय 176 हैं जिनमें से 72 निजी और 104 सरकारी क्षेत्र से आते हैं।
 
उक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि अब भारत में तो वे दिन फना हो गए, जब मेडिकल व्यवसाय को सेवा, पुण्य, और त्याग जैसी भावना से जोड़कर डॉक्टर विवाह तक नहीं करते थे। बड़ी तकलीफ से कहना पड़ रहा है, जो लोग निजी कॉलेजेस में 1 करोड़ रुपए तक की फीस भरने को तैयार रहते हैं, उनकी धारणा हरदम बनी रहती है कि जितनी पूंजी हमने अपने बच्चों को चिकित्सा-विज्ञान की पढ़ाई करवाने में लगाई है, वह तो शीघ्र वसूल हो। इसके लिए मुंहमांगी फीस, अन्य खर्च, कई बार ज्यादा बिल और विवाह के वक्त दहेज से भी पढ़ाई में लगा धन वसूला जाता है, जैसे किसी व्यवसाय की लागत वसूली जाती है।
 
इन हालात के परे मंजर नगालैंड देश का एक ऐसा राज्य है, जहां कोई मेडिकल कॉलेज आज तक खोला ही नहीं गया, जबकि मेडिकल हब कहे जाने वाले मध्यप्रदेश राज्य के सबसे बड़े एक शहर इंदौर में 7 मंजिला सरकारी, अन्य कुछ सरकारी अस्पताल तो हैं ही, 30 से भी ज्यादा कॉर्पोरेट हॉस्पिटल हैं और जो गली-गली छोटे-बड़े अस्पताल खुल आए हैं, सो अलग ही।
 
इस तरह के नकारात्मक हालात के चलते 'एक देश एक स्वास्थ्य' की नीति अल्टीमेट विकल्प है जिसमें गंदी राजनीति नहीं लानी चाहिए, क्योंकि कब फिर कोविड-19 जैसा अल्प प्रलय लौट आए, कह नहीं सकते। नीट ही एक ऐसा मॉडल है, जो पूरे देश के लिए स्वीकार्य होना चाहिए।
 
आखिर परंपरागत और आयुर्वेद की पढ़ाई में भी बुराई ही क्या है? इसके फायदे हम सदियों से नहीं, हाल के कोरोना काल में भी देख चुके हैं। यानी बहुविषयक चिकित्सा पाठ्यक्रम अपनाना समय की मांग है। वैसे अच्छी बात यह भी है कि कोविड से भारत में जनहानि पर एक वर्ग ने लगाम कसने के भरपूर प्रयास किए जिसमें सैकड़ों डॉक्टर्स की ऑन ड्यूटी मृत्यु हो गई। नर्सिंग स्टाफ की भी जानें गईं, लेकिन सुधार का सफर अभी लंबा ही नहीं बड़ा चुनौतीपूर्ण है।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)
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