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यूपी में किसकी खड़ी होगी खाट और किसको लगेगी वाट!

यूपी में किसकी खड़ी होगी खाट और किसको लगेगी वाट! - Rahul Gandhi Khat
उप्र में राहुल गांधी ने देवरिया जिले के रुद्रपुर में 'खाट पंचायत' बैठक की। खाटें लुटीं। लेकिन ये कितना प्रभाव दिखा पाएंगी तब जबकि भाजपा भी इलाहाबाद में इसी 12-13 जून को राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक कर राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन की चर्चा से नहीं चूकी और एक तरह हिन्दुओं के अगाध श्रद्धा, गहरी आस्था और भावनाएं से जुड़े स्थान पर जुटकर हिन्दू कार्ड खेलने की कोशिश की। 


 
दो बार सत्ता में रही बसपा घोटालों की सरकार के रूप में बदनाम हुई और 2012 में सत्ता से बाहर हुई। बसपा सुप्रीमो आयाराग-गयाराम की राजनीति से परेशान हैं। राहुल गांधी की 'खाट' को अखिलेश के उप्र में 'डिजिटल लोकतंत्र' का आव्हान कितनी चुनौती देगा, देखना होगा। 
 
अखिलेश की घोषणा कि 18 वर्ष से ज्यादा आयु और 2 लाख सालाना से कम आय वालों को मुफ्त स्मार्टफोन तब दिया जाएगा, जब उनकी सत्ता दोबारा राजपाट संभालेगी। राम-रोटी, अगड़ा-पिछड़ा सबके लिए कुछ न कुछ हर पार्टी के पिटारे से निकलता दिख रहा है। उप्र के मतदाता की स्थित कमोबेश कुछ ऐसी बनती जा रही है कि 'लूट सके सो लूट, वोट के समय देखा जाएगा किसकी करें पूछ'।
 
राजनीति भी कितनी अजीब है। कब किस रंग में रंग जाए, नहीं पता। फिलहाल राजनीति की बयार, 'खाप पंचायत' से 'खाट पंचायत' की ओर बह रही है! उप्र में लुटी खाटें, किसकी खाट करेंगी, नहीं पता। अलबत्ता इतना जरूर है कि राजनीति अब घिसे-पिटे और बरसों पुराने जोधाओं, ज्योतिषियों और मठाधीशों के समीकरणों से निकलकर आईआईटी युग के रणनीतिकारों की ओर बढ़ रही है। स्वाभाविक बदलाव आएगा, आना भी चाहिए। 
 
हां, भले ही अभी पूरे देश में 'खाट पंचायत' की चर्चा हो रही हो, लेकिन मप्र में ऐसी पंचायतों से बरसों पुराना नाता है, जो कि राजनीति की दशा-दिशा बदलने के लिए होती रही हैं। कोई बड़ा दिग्गज नहीं आया, सो ज्यादा चर्चा में नहीं आ पाई। झाबुआ-आलीराजपुर में आदिवासियों के साथ नेताओं की 'खाटला बैठक' (भील बोली में 'खाट' को 'खाटला' कहते हैं) दशकों से होती आई हैं। खाटला बैठक वहां सियासी रणनीति का अहम हिस्सा होती है। भील बहुल इन दोनों जिलों में सत्ता में पहुंचने का सियासी रास्ता भी खाटला बैठकें बनती हैं। 
 
हो सकता है प्रशांत भूषण की टीम को यह प्रयोग उप्र में ग्रामीणों विशेषकर दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, जो कि ज्यादातर बहुत गरीब हैं, नायाब फंडा लगा हो। इसके पीछे खाट के बहाने राजपाट की सोच भी हो सकती हो। ज्यादातर गरीब और दलित मतदाताओं को चुनाव से पहले नई खाट जरूर भाएगी। इसी बहाने खाट का कर्ज उतारने, अंतरआत्मा की आवाज कांग्रेस की कहीं वैतरणी ही बन जाए!
 
भाजपा सांसद दिलीप सिंह भूरिया के आकस्मिक निधन के बाद रतलाम-झाबुआ में नवंबर 2015 के उपचुनाव में भाजपा की साख दांव पर थी। बावजूद तमाम कोशिशों के, भाजपा को करारी शिकस्त मिली और दिवंगत सांसद की बेटी निर्मला भूरिया, कांग्रेस के कांतिलाल भूरिया से 88,877 मतों से हार गईं। प्रशांत भूषण का एक खास सिपहसालार काफी दिनों से इस इलाके का जायजा ले रहा था। हो सकता है वहीं से 'खाट पंचायत' का आइडिया उत्तरप्रदेश में अपनाने का फैसला लिया गया हो। 
 
देवरिया जिले के रुद्रपुर में हुई 'खाट पंचायत' का प्रभाव तो दिखा। भले ही खाट की खातिर लोग जुटे, लूटे और चले गए। जो नहीं ले गए उन्हें अगली सभा का इंतजार है। स्वाभाविक ही राहुल गांधी उप्र में 2,500 किमी लंबी यात्रा से लोगों से जरूर रू-ब-रू होंगे, सुनेंगे, समझेंगे और सहानुभूति देंगे और लेंगे भी। जो मुद्दे वे उठा रहे हैं, वे सीधे-सीधे किसानों, गरीबों, दलितों, अल्पसंख्यकों से जुड़े हैं। 
 
कांग्रेस के पुराने रिश्तों और उप्र से लगाव की बात बड़ी बेलागी से कहकर लोगों की दुखती नस पर हाथ रख राहुल 27 वर्ष पहले जातिगत राजनीति का शिकार हुए कांग्रेसियों के चलते खोई सत्ता को पाने की कवायद को खाट के बहाने राजपाट तक पहुंचने में कितने कामयाब होंगे, वक्त ही बताएगा। 
 
लेकिन राहुल गांधी की 'खाट' को अखिलेश के उप्र में 'डिजिटल लोकतंत्र' का आव्हान कितनी चुनौती देगा, देखना होगा। गाजियाबाद में हज हाउस के उद्घाटन पर बोलते हुए उन्होंने घोषणा की कि हम युवाओं को डिजिटल युग से जोड़ेंगे और डिजिटल लोकतंत्र लाएंगे, विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ेंगे और युवाओं को विकास की ओर लेकर जाएंगे। 
 
अखिलेश ने घोषणा की कि 18 वर्ष से ज्यादा आयु और 2 लाख सालाना से कम आय वालों को मुफ्त स्मार्टफोन तब दिया जाएगा, जब उनकी सत्ता दोबारा राजपाट संभालेगी। इसके लिए बाकायदा रजिस्ट्रेशन की तैयारियां भी शुरू कर दी गई हैं। एक सॉफ्टवेयर डेवलप होगा, जो यह काम करेगा। जाहिर है कि सॉफ्टवेयर के जरिए सीधे मतदाताओं तक पहुंच होगी, क्योंकि उनका सारा ब्योरा दर्ज होगा। 
 
लेकिन अखिलेश शायद यह भूल गए कि पिछले चुनाव में छात्रों को मुफ्त लैपटॉप-टैबलेट बांटने के वादे के साथ वे सत्तासीन हुए और पहली कैबिनेट मीटिंग में ऐलान कर 12वीं पास 15 लाख विद्यार्थियों को लैपटॉप बांट भी दिए, वहीं लोकसभा चुनाव में हारते ही योजना बंद हुई और केवल टॉपर्स को ही लैपटॉप दिए। हां, टेबलेट कोरी घोषणा जरूर साबित हुई। अब स्मार्टफोन और डिजिटल लोकतंत्र के साथ इसी महीने के आखिर में वे फिर चुनावी रण में उतरेंगे।
 
इधर दो बार सत्ता में रही बसपा घोटालों की सरकार के रूप में बदनाम हुई और 2012 में सत्ता से बाहर हुई। इस बार ऐसा माना जा रहा है कि प्रमुख दावेदार वही होगी लेकिन पार्टी के आंतरिक झंझावातों से जूझ रही बसपा सुप्रीमो आयाराग-गयाराम की राजनीति से परेशान हैं। 
 
उप्र की बिगड़ती कानून व्यवस्था को लेकर घेरने के मंसूबों को जैसे ही कामयाबी मिल रही थी कि बसपा का कुनबा बिखरना शुरू हुआ और बसपा में ही सेंधमारी शुरू हो गई जिससे परेशानी स्वाभाविक है। लेकिन क्या दलित-मुस्लिम प्रयोग इस बार भी सफल हो पाएगा? हो सकता है, इसी को प्रभावहीन करने हेतु मायावती पर अपमानजनक भाषा के प्रयोग हुए, अश्लील बातों से भूचाल भी लाया गया। 
 
उप्र में समाजवादी पार्टी भी मुस्लिम-यादव व पिछड़ा को अपना बड़ा वोट बैंक और ताकत मानती रही है, लेकिन क्या इस बार ऐसा हो पाएगा? कारण साफ है, क्योंकि सपा में आजम खान के वर्चस्व के आगे किस मुस्लिम नेता को बढ़त मिली? फिर शिया धर्मगुरु कल्बे जव्वाद ने अब तक हर मौके पर समाजवादी सरकार के खिलाफ मोर्चा ही खोला है जिससे हवा का रुख काफी बदला नजर आ रहा है। ऐसा लगता है कि दलित-मुस्लिम का झुकाव सपा की ओर कम है और वो अभी यह तय कर पाने में असमंजस की स्थिति में हैं कि किसकी तरफ जाएं?
 
लेकिन भाजपा भी दावेदारी को लेकर आश्वस्त है। लोकसभा में 80 में से 71 सीटों को जीतने का तिलिस्म न टूट पाए इसको लेकर अमित शाह उप्र पर केंद्रित हैं। ऐसा लगता है कि भाजपा नेताओं के विस्फोटक बोल बहुसंख्यकों को लुभाने के लिए बोले जाते हैं। 
 
बीच-बीच में हिन्दुत्व की बात, संत, गुरुओं, बाबाओं के उवाच के बीच मुस्लिम-दलित, पिछड़े पर दांव आसान नहीं लगता? विकास, सुशासन पर ध्यान है। मंदिर-मस्जिद चुनावी एजेंडे से बाहर है। ऐसे में भाजपा का संसद में एकमुश्त 71 सीटों के बाद विधानसभा के हर बूथ पर 20 यूथ का फंडा कितना कामयाब होगा? इधर कांग्रेस ने उम्मीदवार काफी पहले घोषित कर दिया लेकिन बीजेपी खामोश है। 
 
समीकरण बहुत हैं, रोज बदलते भी हैं। नेहरू के गढ़ इलाहाबाद में इसी 12-13 जून को भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से बड़ा संकेत जरूर दिखा। इलाहाबाद पर हिन्दुओं की अगाध श्रद्धा, गहरी आस्था और भावनाएं जुड़ी हैं। यहां हुई बैठक को हिन्दू जातिगत कार्ड का बड़ा दांव भी माना जा रहा है। भाजपा नेता भी भारतरत्न राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन की चर्चा से नहीं चूके। वे स्वतंत्रता सेनानी तो थे ही, इलाहाबाद का प्रतिनिधित्व भी किया था। 1951 में कांग्रेस अध्यक्ष भी बने लेकिन अधिक समय रह नहीं पाए, क्योंकि भाषायी राज्यों के संबंध में नेहरूजी से मतभेद हो गया फलत: कांग्रेस बाहर हुए।
 
उप्र में राजनीति के त्रिकोण के बीच राहुल गांधी की खाट का चौपाया कितना कामयाब होगा, नहीं पता। लेकिन इतना जरूर है कि कांग्रेस हरसंभव कोशिश कर रही है ताकि लगभग 3 दशक बाद अपनी वजनदारी उस प्रदेश में दिखा सके जिसके दम पर उसने देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री दिए हैं। लेकिन अब एक अदद मुख्यमंत्री के लिए क्या-क्या नहीं करना पड़ रहा है? 
 
जहां तक मतदाताओं का सवाल है वह काफी समझदारी और चतुराई से काम ले रहा है लेकिन हवा के रुझान को लेकर स्पष्ट संकेत बिलकुल नहीं दे रहा है। राम-रोटी, अगड़ा-पिछड़ा सबके लिए कुछ न कुछ हर पार्टी के पिटारे से निकलता दिख रहा है। उप्र के मतदाता की स्थिति कमोबेश कुछ ऐसी बनती जा रही है कि 'लूट सके सो लूट, वोट के समय देखा जाएगा किसकी करें पूछ'।
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