क्या ‘रुपया’ भर कर प्रशांत भूषण ने ‘सोलह आने’ ठीक किया?
बहस का विषय इस समय यह है कि वकील प्रशांत भूषण अगर अपने आपको वास्तव में ही निर्दोष मानते हैं तो उन्हें बजाय एक रुपए का जुर्माना भरने के क्या तीन महीने का कारावास नहीं स्वीकार कर लेना चाहिए था? सवाल बहुत ही वाजिब है। पूछा ही जाना चाहिए। प्रशांत भूषण ने भी अपनी अंतरात्मा से पूछकर ही तय किया होगा कि जुर्माना भरना ठीक होगा या जेल जाना! प्रशांत भूषण के ट्विटर अकाउंट पर 17 लाख फ़ालोअर्स के मुक़ाबले एक सौ सत्तर लाख से अधिक फ़ालोअर्स की हैसियत रखने वाले ‘चरित्र’ अभिनेता अनुपम खेर ने भी अपना सवाल ट्विटर पर ही उठाया है: 'एक रुपया दाम बंदे का! और वह भी उसने अपने वकील से लिया!! जय हो!!’।
निश्चित ही लाखों लोग अब इसी तरह के सवाल प्रशांत भूषण से पूछते ही रहेंगे और उनका जीवन भर पीछा भी नहीं छोड़ेंगे। वे अगर चाहते तो जुर्माने या सजा पर कोई अंतिम फ़ैसला लेने से पहले पंद्रह सितम्बर तक की अवधि ख़त्म होने तक की प्रतीक्षा कर सकते थे पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। हो सकता है वे न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा के सेवानिवृत होने के पूर्व ही प्रकरण को समाप्त करना चाह रहे हों!
मैंने अपने हाल ही के एक आलेख (‘प्रशांत भूषण को सजा मिलनी ही चाहिए और वे उसे स्वीकार भी करें’) में गांधी जी से सम्बंधित जिस प्रसंग का उदाहरण दिया था उसे ताज़ा संदर्भ में दोहरा रहा हूं। वर्ष 1922 में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ अपने समाचार पत्र 'यंग इंडिया' में लेखन के आरोप में (तब ट्विटर की कोई सुविधा नहीं थी) गांधी जी को अहमदाबाद स्थित उनके साबरमती आश्रम से गिरफ़्तार करने के बाद छह वर्ष की सजा हुई थी। गांधी जी तब आज के प्रशांत भूषण से ग्यारह वर्ष कम उम्र के थे।
कहने की ज़रूरत नहीं कि वे तब तक एक बहुत बड़े वकील भी बन चुके थे। हम इस कठिन समय में न तो प्रशांत भूषण से गांधी जी जैसा महात्मा बन जाने या किसी अनुपम खेर से प्रशांत भूषण जैसा व्यक्ति बन जाने की उम्मीद कर सकते हैं। गांधी जी पर आरोप था कि वे विधि के द्वारा स्थापित सरकार के ख़िलाफ़ घृणा उत्पन्न करने अथवा असंतोष फैलाने का प्रयास कर रहे हैं। अब इसी आरोप को प्रशांत भूषण के ख़िलाफ़ उनके द्वारा की गई सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना के संदर्भ में भी पढ़ सकते हैं। गांधी जी ने अपने ऊपर लगे आरोपों और अंग्रेज जज द्वारा दी गई छह वर्ष की सजा को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया था।
प्रशांत भूषण को अगर सजा सिर्फ़ इतने तक सीमित रहती कि या तो वे एक रुपए का जुर्माना भरें या तीन महीने की जेल काटें तो निश्चित रूप से वे कारावास को प्राथमिकता देना चाहते। पर अदालत ने (क़ानून की व्याख्या और बार कौंसिल ऑफ इंडिया का हवाला देते हुए) जैसा कि कहा है प्रशांत भूषण अगर जुर्माना नहीं भरते हैं तो उन्हें तीन महीने की जेल के साथ ही तीन वर्ष के लिए वकालत करने पर प्रतिबंध भी भुगतना पड़ेगा। बातचीत का यहां मुद्दा यह है कि अंग्रेज जज एन. ब्रूफफ़ील्ड अगर गांधी जी की सजा के साथ यह भी जोड़ देते कि वे सजा के छह वर्षों तक सरकार के ख़िलाफ़ किसी भी प्रकार का लेखन कार्य भी नहीं करेंगे तो फिर महात्मा क्या करते?
क्या यह न्यायसंगत नहीं होगा कि प्रशांत भूषण द्वारा एक रुपए का जुर्माना भरकर मुक्त होने के मुद्दे को करोड़ों लोगों की ओर से जनहित के मामलों में सुप्रीम कोर्ट में वकालत करने से तीन वर्षों के लिए वंचित हो जाने की पीड़ा भुगतने से बच जाने के रूप में लिया जाए? अनुपम खेर या उनके जैसे तमाम लोग इस मर्म को इसलिए नहीं समझ पाएंगे कि प्रशांत भूषण किसी फ़िल्मी अदालत में ‘अपने निर्देशकों’ द्वारा पढ़ाई गई स्क्रिप्ट नहीं बोलते। और न ही जनहित से जुड़ी किसी कहानी में भी स्क्रिप्ट की मांग के अनुसार नायक और खलनायक दोनों की ही भूमिकाएं स्वीकार करने को तैयार बैठे रहते हैं।
प्रशांत भूषण का पूरे विवाद से सम्मानपूर्वक बाहर निकलना इसलिए ज़रूरी था कि नागरिकों की ज़िंदगी और उनके अधिकारों से जुड़े कई बड़े काम सुप्रीम कोर्ट से बाहर भी उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। बिना किसी अपराध के जेलों में बंद लोगों को इस समय उनकी क़ानूनी सहायता और सांत्वना की सख़्त ज़रूरत है, जो कि ट्विटर हैंडल पर उनके ख़िलाफ़ ट्रोल करने वाले कभी प्रदान नहीं कर सकते। साथ ही इसलिए भी ज़रूरी था कि अब प्रशांत भूषण उन तमाम लोगों का अदालतों में बचाव कर सकेंगे, जो अपने सत्ता-विरोधी आलोचनात्मक ट्वीट्स या लेखन के कारण अवमाननाओं के आरोप झेल सकते हैं।
जिस तरह की परिस्थितियां इस समय देश में है उसमें तीन साल तक एक ईमानदार वकील के मुंह पर ताला लग जाना यथा-स्थितिवाद विरोधी कई निर्दोष लोगों के लिए लम्बी सज़ाओं का इंतज़ाम कर सकता था। किन्ही दो-चार लोगों के आत्मीय सहारे के बिना तो केवल वे ही सुरक्षित रह सकते हैं, जो शासन-प्रशासन की ख़िदमत में हर वक्त हाज़िर रहते हैं। प्रशांत भूषण को अगर जुर्माने और सजा के बीच फ़ैसला करते वक्त अपनी अंतरात्मा के साथ किंचित समझौता करना पड़ा हो तो भी उन्होंने करोड़ों लोगों की आत्माओं को अब और ज़्यादा आज़ादी के साथ सांस लेने की स्वतंत्रता तो उपलब्ध करा ही दी है। क्या हमारे लिए इतनी उपलब्धि भी पर्याप्त नहीं है? (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)