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Written By Author श्रवण गर्ग
Last Modified: शुक्रवार, 21 अगस्त 2020 (15:05 IST)

विश्वसनीयता : सरकार की बरकरार, जनता की खो गई?

विश्वसनीयता : सरकार की बरकरार, जनता की खो गई? - Popularity of Prime Minister Narendra Modi
सवाल बहुत ही काल्पनिक है जिसे अंग्रेज़ी में हाइपथेटिकल कहते हैं। ऐसे सवाल पश्चिमी प्रजातांत्रिक देशों में आम चलन में हैं। अमेरिका जैसे देश में तो इन दिनों कुछ ज़्यादा ही। काल्पनिक सवाल की उपज का भी एक कारण है। प्रधानमंत्री की लोकप्रियता को लेकर हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण में उन्हें 77 प्रतिशत लोगों द्वारा पसंद किया जाना बताया गया है। एक अन्य सर्वे में 66 प्रतिशत उन्हें फिर से प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं। उनके मुक़ाबले राहुल गांधी केवल आठ प्रतिशत लोगों की ही पसंद रह गए हैं।

अब काल्पनिक सवाल यह है कि अगर अमेरिका के साथ ही भारत में भी इसी नवम्बर में लोकसभा चुनाव करवा लिए जाएं तो परिणाम किस तरह के आएंगे! भारतीय जनता पार्टी को पिछले चुनाव (2019) में 303 सीटें मिलीं थीं जो कि कुल (543) सीटों का लगभग 56 प्रतिशत है। प्रधानमंत्री की लोकप्रियता अगर 77 प्रतिशत है तो भाजपा को प्राप्त हो सकने वाली सीटों का अनुमान भी आसानी से लगाया जा सकता है।

सवाल खड़ा करने का दूसरा कारण यह है कि एक ऐसे समय जब कि बिगड़ती आर्थिक स्थिति और कोरोना के कारण उपजी चिकित्सा सम्बन्धी कठिन परिस्थितियों में दुनिया के अन्य देशों के शासनाध्यक्षों को अपनी कम होती साख के साथ संघर्ष करना पड़ रहा है, हमारे प्रधानमंत्री की लोकप्रियता बढ़ रही है! अमेरिका में इस समय नियमित हो रहे ओपिनियन पोल्स में राष्ट्रपति ट्रम्प विरोधी पक्ष के उम्मीदवार जो बाइडन से लोकप्रियता में काफ़ी पीछे चल रहे हैं। इसका बड़ा कारण कोरोना से होने वाला बेक़ाबू संक्रमण, ख़राब आर्थिक स्थिति और बढ़ती हुई बेरोज़गारी है।

ये ही कारण कमोबेश हमारे यहां भी मौजूद हैं। कोरोना से संक्रमित होने वालों का आंकड़ा न सिर्फ़ उपलब्ध चिकित्सा सुविधाओं की छतें पार कर रहा है, कड़ी सुरक्षा और सभी-तरह की आवश्यक ‘छुआछूत’ का निर्ममता से पालन करने के बावजूद बड़ी-बड़ी हस्तियां इस समय अस्पतालों को ही अपना घर और दफ़्तर बनाए हुए हैं। देश की आधी से ज़्यादा आबादी अभी भी आरोपित और स्वैच्छिक लॉकडाउन की गिरफ़्त में है। यह सब तब है जब प्रधानमंत्री एक से अधिक बार दावा कर चुके हैं कि सही समय पर लिए गए फ़ैसलों के कारण भारत दूसरे देशों की तुलना में कोरोना से लड़ाई में बहुत अच्छी स्थिति में है।

कल्पना ही की जा सकती है कि कोरोना को लेकर जिस ‘सही समय ओर सही फ़ैसले’ का ज़िक्र किया जा रहा है वह नहीं होता तो हम आज किस बदतर हाल में होते और प्रवासी मज़दूरों की संख्या और उनकी व्यथाओं की गिनती कहां तक पहुंच जाती! दूसरी ओर यह भी उतना ही सच है कि महामारी को नियंत्रित करने और इलाज की व्यवस्था को दुरुस्त करने में हमारी स्थिति अभी भी ‘दिन भर चले अढ़ाई कोस’ वाली हालत में ही है।

प्रधानमंत्री ने पंद्रह अगस्त को लाल क़िले से आश्वस्त किया है कि इस समय तीन वैक्सीन पर देश में काम चल रहा है। तो क्या वैक्सीन के आते ही सब-कुछ ठीक हो जाएगा? विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानें तो आवश्यक वैक्सीन का बन जाना अभी पूरी तरह से तय नहीं है। अगर बन भी गई तो हमारे यहां के आख़िरी व्यक्ति तक उसे पहुंचने में दो-तीन साल लग जाएंगे। तो फिर वैक्सीन का आश्वासन महामारी के इलाज के लिए है या फिर केवल उसका जनता के बीच भय कम करने के लिए?

अगर हम वापस वहीं लौटें जहां से बात शुरू की थी तो इस समय कोरोना संक्रमण के दुनिया भर में प्रतिदिन के सबसे ज़्यादा मरीज़ हमारे यहीं प्राप्त होने के साथ ही सरकार को और भी ढेर सारी समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। इनमें चीन द्वारा लद्दाख़ में हमारे स्वाभिमान पर किया गया अतिक्रमण, पाकिस्तान और नेपाल के साथ तनाव, अत्यंत ख़राब आर्थिक स्थिति, भयानक बेरोज़गारी आदि को भी जोड़ सकते हैं।

क्या कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इन सब समस्याओं के बाद भी सर्वेक्षणों में प्रधानमंत्री की लोकप्रियता पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं व्यक्त हो रहा है! हम अगर कहना चाहें कि ‘कुछ तो निश्चित ही पड़ रहा होगा’ तो क्या फिर उनकी लोकप्रियता को लेकर प्रचारित किए जा रहे सर्वेक्षण विश्वसनीय नहीं हैं? या फिर सरकार की विश्वसनीयता तो वैसी ही क़ायम है, जनता ने ही अपनी विश्वसनीयता खो दी है? ऐसा पहले तो कभी देखा और सुना नहीं गया!

प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रियता तो और भी अद्भुत थी, जिसके दम पर उन्होंने निर्धारित समय से कुछ महीने पूर्व ही चुनाव करवाने का फ़ैसला ले लिया था फिर भी उनकी सरकार को जाना पड़ा। इसके भी पहले वर्ष 1992 के अंत में बाबरी ढांचे के विध्वंस के बाद हुए विधानसभा चुनावों में भी भाजपा को सीटों का कोई ज़्यादा फ़ायदा नहीं मिल पाया था। तो क्या ऐसा नहीं लगता कि कहीं कुछ गड़बड़ ज़रूर है जिसे हमारे चेहरों पर चढ़ी हुई नक़ाबें बाहर नहीं आने दे रही हैं। हमें यह भी बता दिया गया है कि अब इन्हीं नक़ाबों के साथ ही आपस में दूरियां बनाए हुए एक लम्बा वक्त गुज़ारना है।

हो सकता है कि यह लम्बा वक्त अगले चुनावों की मतगणना के साथ ही ख़त्म हो। और वह चुनाव अमेरिका के साथ तो इतनी जल्दी निश्चित ही ‘मुमकिन’ नहीं हैं। हमारे लिए इसी बीच एक और भी बड़ी दिक़्क़त एक अमेरिकी अख़बार ने ही उजागर कर दी है! वह यह कि अपनी विश्वसनीयता को लेकर हम कोई सफ़ाई अब सोशल मीडिया पर भी लिखकर शेयर नहीं कर सकते। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)