निर्भया कांड का जिक्र होते ही सीने में एक गहरी कसक उठती है। मृत्युदंड का फैसला आने के पहले निर्भया के दर्द को अपने समूचे मानवीय वजूद में महसूस कर पीड़ा होती थी। लेकिन अब उस फैसले को क्रियान्वित होने में आरोपियों द्वारा जिस दुष्ट शातिराना ढंग से विलंब करवाया जा रहा है, उसे देखकर निर्भया के परिजनों, खासकर उसकी मां के कष्ट को देखकर गहरा दुःख और अफसोस होता है।
एक महिला, मां और मानव तीनों के नाते मुझे उस मां की पीड़ा साझी ही लगती है, मगर अफसोस इस बात का होता है कि व्यवस्था को इस पीड़ा से कोई सरोकार नहीं दिखाई देता। तारीखों पर तारीखें झेलती एक विवश मां क्यों सहानुभूति का विषय नहीं होती? अपनी बेटी पर हुए घोर अत्याचार के बाद उसे तिल- तिल मरते देखने का असह्य दुःख भोग चुकी उस मां को क्या उचित समय पर न्याय पाने का भी अधिकार नहीं है?
अपनी संतान की मृत्यु अपनी आंखों के समक्ष देखने की पीड़ा का स्थायी बोझ अपने सीने पर उठाए पल- पल- पल मरती इस मां के लिए क्या व्यवस्था के पास कानून में त्वरित बदलाव कर कोर्ट के फैसले को शीघ्र लागू कराने का मरहम नहीं है?
जानती हूं कि इन प्रश्नों के रटे रटाए उत्तर ही प्राप्त होंगे। 'प्रक्रिया चल रही है', 'हमारे हाथ कानून से बंधे हैं', 'हर चीज़ का एक वक्त होता है' आदि इत्यादि।
सच, अब तो ऐसे जवाबों पर मन विद्रोही हो जाता है। बहरी हुई व्यवस्था को चीखकर कहने की इच्छा होती है कि प्रक्रिया को चलाने वाले हम मनुष्य ही हैं और उसे धीमा या तेज करना भी हमारे ही हाथों में है।
आपके हाथ कानून से बंधे नहीं हैं बल्कि आपने अपने दिल- दिमाग को मानवीय संवेदना से रहित घोर स्वार्थमय बना लिया है और स्वयं को 'निज' के संकीर्ण दायरों में आबद्ध कर परपीड़ा की ओर आंख उठाकर तनिक देखने में भी कष्ट महसूस करते हैं।
अलावा इसके, यह सच है कि हर चीज़ का एक वक्त होता है ,तो निर्भया की मां भी 7 वर्षों से न्याय पाने के लिए परेशान हो रही है और यह अवधि कोई छोटी नहीं है। अब तो सच में ही वक्त आ गया है कि दोषियों को मृत्युदंड दे दिया जाए।
शास्त्रों की दृष्टि से न्याय में विलंब भी तो एक प्रकार का अन्याय ही माना गया है।
दोषी और उनके वकील कानून की हरसंभव पैंतरेबाजी से मृत्युदंड को टालने में सफल हो रहे हैं और वो निर्दोष मां मानसिक यंत्रणा का भयावह दौर भोग रही है। अपना घोर अपराध स्वीकार करते हुए ये चारों दोषी निर्भया की मां से क्षमा मांगकर मृत्युदंड को अंगीकार कर लेते, तो स्वयं अपनी आत्मा का भार कम करके इस दुनिया से रुखसत होते और उस संतप्त मां को भी राहत की चंद बूंदें मिल जातीं।
लेकिन ये पापी तो मृत्युदंड से ही मुक्त होने की आस में निरंतर शर्मनाक ढंग से कानूनी विकल्पों का इस्तेमाल कर रहे हैं। अतः इनसे कोई उम्मीद रखना व्यर्थ है और व्यवस्था बेचारी कानून व नियमों के समक्ष विवश है। इसलिए देश के मुखिया से सीधा निवेदन कि आपके मन की बात आप प्रायः करते हैं और हम सुनते, समझते व सराहते भी हैं।
लेकिन मोदी जी, अब आप एक मां का मन सुनिए और समझिए। जिस मां की बेटी के साथ इतना बड़ा अन्याय हुआ, उसे न्याय दिलाइए।
राजनीतिक इच्छाशक्ति से अत्यंत जटिल व असंभव दिखने वाली समस्याएं भी समाधान को उपलब्ध हो जाती हैं। तीन तलाक ,धारा 370 और 35ए, अयोध्या मुद्दा इसका ज्वलंत उदाहरण हैं। फिर यह मसला तो इतना दुरूह भी नहीं है कि जिसके लिए समुचित कानून बनाने में कोई जाति, धर्म या देश बाधाएं खड़ी करेगा बल्कि हमारे देश की अधिकांश जनता इस प्रकार का कठोर कानून और उसके शीघ्र क्रियान्वयन के पक्ष में ही है। अन्य कई देशों में भी इस प्रकार के अपराधों के लिए ऐसे ही कड़े कानून हैं।
एक मां ने भौतिक रूप से अपनी बेटी की मृत्यु को 30 दिसंबर, 2016 को देखा, लेकिन पिछले 8 वर्षों से उसका समूचा अस्तित्व आत्मिक रूप से प्रतिदिन उस हादसे की पीड़ा को भोगता है। अपनी बेटी की अंतिम इच्छा को अब तक पूरा न कर पाने की छटपटाहट उसके कलेजे को चीर- चीर देती है।
मोदी जी, मां का ह्रदय तो आप स्वयं में नहीं ला सकते, लेकिन कम से कम एक पिता की तरह ही सोचकर देखिए क्योंकि इस वक्त देश के मुखिया आप हैं, तो हर नागरिक की अंतिम उम्मीद भी आपसे ही होगी।
जब आप 'अपनी' बेटी के रूप में निर्भया के दर्द को महसूसेंगे, तब आपको उसकी मां की पीड़ा का अहसास होगा और मुझे उम्मीद ही नहीं विश्वास है कि आपमें वह संवेदनशीलता भी है (जो तीन तलाक को अवैध घोषित करने में स्पष्टतः सिद्ध हो चुकी है) तथा वह राजनीतिक इच्छाशक्ति भी है (जो 370 हटाने व अयोध्या विवाद का समाधान करने में जाहिर हुई), जिसके बल पर बलात्कार संबंधी कानून में अपेक्षित बदलाव कर अपराधियों के अनैतिक ढंग से मृत्युदंड से बचने की राहें बंद की जा सकती हैं और ऐसा शीघ्रातिशीघ्र भी किया जा सकता है।
कितना अच्छा हो कि आगामी महिला दिवस (8 मार्च) पर मोदी जी इस सबसे भीषण महिला अत्याचार के विरुद्ध उक्त बदलाव की घोषणा करें। यह निर्भया को सच्ची श्रद्धांजलि होगी और उसकी घोर व्यथित मां को सुकून की वास्तविक आस देगी।