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अगले जन्म मोहे “सामान्य” ना कीजो

अगले जन्म मोहे “सामान्य” ना कीजो - My Blog
अपने देश में सामान्य वर्ग का होना उतनी ही सामान्य बात है, जितनी की कांग्रेस सरकारों में भ्रष्टाचार का होना। लेकिन अगर सामान्यता में योग्यता का समावेश ना हो तो फिर ऐसी “अनारक्षित-असामान्यता” का देश में उतना ही मूल्य रह जाता है, जैसे किसी मार्गदर्शक मंडल के नेता का किसी पार्टी में।


सामान्य श्रेणी के लोगों की कास्ट ही उनके सब कष्टों का सबब है। और इन कष्टों को दूर करने लिए हर बार वे अलग-अलग पार्टी को अपना वोट “कास्ट” करते हैं। लेकिन कष्ट, नष्ट होने के बजाए और पुष्ट हो जाते हैं और चुनाव जीतने वाली “पार्टी” चुनाव जीतने के बाद अगले 5 साल तक “पार्टी” करती है।
 
सामान्य श्रेणी के लोग जन्म से लेकर शिक्षा तक और शिक्षा से लेकर नौकरी तक कोल्हू के बैल की तरह पचते हैं लेकिन जलीकट्टु पर्व को बैलों के प्रति क्रूर बताने वाली अदालतों ने आज तक इन “मानवीय बैलों” के प्रति होने वाली क्रूरता का संज्ञान नहीं लिया।
 
जब भी सामान्य श्रेणी का विद्यार्थी किसी परीक्षा या किसी स्कूल-कॉलेज में एडमिशन के फॉर्म में जाति के कालम में जनरल सलेक्ट करता है, तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी सिस्टम के सामने उसका ये सरेंडर देखकर सारे कांग्रेसी भी गांधी परिवार के सामने अपने वंशानुगत सरेंडर को और मजबूत करने के लिए अपने “कटी” में “दासता की वटी” लेकर और भी ज्यादा कटिबद्ध होते हैं। जनरल वालों से किसी फॉर्म या परीक्षा शुल्क के रूप में ज्यादा पैसे इसलिए लिए जाते हैं ताकि आगे चलकर उन्हें पता चल जाए की जनरल में जन्म लेकर उनके “लेने के देने” पड़ गए हैं और शुरू से उनको ज्यादा की आदत हो जाए। जैसे ज्यादा पढ़ाई, ज्यादा मेहनत, जयादा इंतजार और इस ज्यादा से उनको अजीर्ण ना हो इसलिए फिर थोड़ी सफलता भी मिल जाती (दे दी) है।
 
सामान्य वर्ग के स्टूडेंट्स और आरक्षित वर्ग के स्टूडेंट्स की योग्यता और उनके द्वारा प्राप्त अंकों में भले ही जमीन और आसमान का अंतर हो, लेकिन संविधान बनाने वालों ने इस “अंतर” को “अंतरा माली” की फिल्मों की तरह मूल्यहीन माना है। आरक्षण के पक्ष में दलील देने वाले दलालों का कहना है कि मेडिकल, इंजीनियरिंग और अन्य सरकारी नौकरियों में प्रवेश के लिए सामान्य वर्ग भले ही जी-तोड़ मेहनत करता है लेकिन वह आरक्षित वर्ग द्वारा आरक्षण पाने के लिए की गई “सार्वजनिक संपत्ति-तोड़” मेहनत के सामने कुछ भी नहीं है।
 
वैसे यह (कु)तर्क इसीलिए भी ठीक लगता है, क्योंकि (उदारहण के तौर पर) सामान्य वर्ग का व्यक्ति ट्रेन की पटरियों का उपयोग, उनको उखाड़कर आरक्षण पाने के लिए नहीं कर सकता। वो तो बस प्रात: काल की बेला में, वेल्ला होकर, हाथ में लोटा के लेकर हल्का होने में उनका उपयोग करता है। या फिर पटरियों पर चलने वाली ट्रेन में अपने “डब्बे’ में बैठकर अपनी “डब्बे’ जैसी किस्मत को कोसते हुए केवल “प्रभु” को ट्वीट कर सकता है। और अगर नीचे वाले और ऊपर वाले दोनों प्रभु ने ना सुनी, तो पटरियों पर लेट कर, लेट चलने वाली “भारतीय ट्रेन” से अपनी ईहलीला, संसद-सत्र की तरह बिना किसी उदेश्य प्राप्ति के समाप्त कर लेता है।
 
आजकल न्यूज चैनल डिबेट्स में कई दलित चिंतक और विचारक दिखाई पड़ते हैं लेकिन सामान्य वर्ग का कोई चिंतक/विचारक नजर नहीं आता, क्योंकि उसे अपनी चिंता और विचार खुद ही करना पड़ता है।  सामान्य वर्ग के व्यक्ति को अपने जीवन में हमेशा “स्किल” पर निर्भर रहना पड़ता है क्योंकि उसे पता होता है कि अगर स्किल ना हुई तो इस देश का सिस्टम उसे “किल” कर देगा। इस देश में हाथी से लेकर साईकिल पर चलने वाले सभी दल इस “किल का दिल से” समर्थन करते हैं।
 
आरक्षित वर्ग के व्यक्ति की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या /आत्महत्या को अपने साथ मक्कारी का आटा और नमकहरामी का नमक लेकर घूमने वाले सारे दल राजनैतिक रोटियां सेंकने का अवसर मानते हैं और रोटी सेंकते समय हाथ जलने पर बर्नोल के बदले अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करते हैं। राजनीति में कूदने के इच्छुक लोग इसे कॉलेज का प्लेसमेंट प्रोग्राम मान कर मेहनत करते हैं। सामान्य वर्ग की हत्या/आत्महत्या में ग्लैमर का उतना रस नहीं होता इसलिए इसे ग्लैमरस नहीं माना जाता और इसे ये मानकर खारिज कर दिया जाता है कि इस हत्या /आत्महत्या के पीछे जरूर साजिद खान की हमशक्ल या फिर फरहा खान की हैप्पी न्यू ईयर का हाथ है।
 
मेरा मानना है कि इस देश में ‘प्रतिभा’ तो बहुत है लेकिन सब अलग-अलग सरनेम वाली। इसलिए जिन प्रतिभाओं को जाति प्रणाम-पत्र मिल जाता है, वे अपने “अवसर” के साथ टू-व्हीलर पर डबल– सीट निकल पड़ती हैं और जिनको नहीं मिल पाता उनका अवसर से ब्रेकअप हो जाता है। फिर वो सारी जिंदगी, गूगल पर सिंगल होने के फायदे सर्च करती रहती हैं।