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Last Modified: बुधवार, 22 सितम्बर 2021 (19:39 IST)

भाजपा के तीन राज्यों में बार-बार मुख्‍यमंत्री बदलने के मायने

भाजपा के तीन राज्यों में बार-बार मुख्‍यमंत्री बदलने के मायने - Meaning of changing Chief Minister repeatedly in three states of BJP
इन दिनों सबसे बड़ी जन चर्चा का मुद्दा यह है कि भाजपा अपनी ही पार्टी की राज्य सरकारों को मुख्यमंत्री सहित हटाकर दूसरी सरकारें क्यों बना रही है? किसी जमाने में इंदिरा गांधी का यही आचरण हुआ करता था, लेकिन तब वे वन वूमैन आर्मी हुआ करती थीं। उन्हें प्रधानमंत्री के साथ कांग्रेस की आत्मा कहा जाता था और वाकई ऐसा था भी। आज भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा अज्ञात कारणों से परिदृश्य से बाहर हैं, लेकिन पार्टी की असली जान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही माने जाते हैं।

​हाल में भूपेन्द्र पटेल को गुजरात की कमान सौंपी गई है। यह बदलाव इसलिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह का यह गृह राज्य है। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा नेतृत्व गुजरात के पाटीदार समुदाय की नाराजगी का सामना कर चुका है। जान लें कि यह समुदाय गुजरात में जनसंख्या और आर्थिक रूप से बेहद प्रभावशाली स्थिति में है। अपनी नाराजगी को भुलाकर ऐन टाइम पर इस समुदाय ने भाजपा को ही जितवा दिया।

बावजूद इसके राजनीतिक आश्चर्यचकित इस बात से हैं कि जितेन पटेल एक ऐसे नेता हैं, जिनका कद वहां की राजनीति की अपेक्षा ऊंचा है। फिर उनकी अनदेखी क्यों की गई? इसका जवाब यह बताया जा रहा है कि मोदी और शाह अपने गृह प्रदेश में कोई जोखिम नहीं लेना चाहते हैं और उसी रास्ते पर चलना चाहते हैं, जिसके तहत भारत की राजनीतिक संस्कृति में रिमोट कन्ट्रोल्ड मुख्यमंत्री ही रखे जाते हैं।

जहां तक सबसे बड़े राज्य, सबसे ज्यादा जनसंख्या, सबसे अधिक लोकसभा और विधानसभा सीटों और दुनिया के पांच देशों के बाद आने वाले उत्तर प्रदेश का सवाल है, तो गत आठ-दस माह से मीडिया की खबरों से स्पष्ट लग रहा था कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की छुट्टी लगभग तय है। वैसे कहा यह भी जाता रहा है कि मोदी और योगी शुरू से एक-दूसरे को पसंद नहीं करते, पर राजनीति की अपनी विवशताओं के चलते मोदी योगी को अस्थिर तो कर पाए, लेकिन हटा नहीं पाए। योगी के खिलाफ दो बातें जा रही थीं, एक कोविड-19 की दूसरी लहर से उचित ढंग से न निपट पाना और दूसरा किसान आंदोलन। यूं देखा जाए तो किसान आंदोलन योगी के कारण खड़ा नहीं हुआ है। इसके आंदोलन के निशाने पर तो केंद्र सरकार है।

राजनीतिक पर्यवेक्षक कहते हैं कि विधानसभा चुनावों के पहले उत्तर प्रदेश जैसे अति संवेदनशील और जातिगत गठबंधन पर आधारित प्रदेश में मुख्यमंत्री को हटाना और किसी अन्य को नियुक्त करना पार्टी के लिए घातक साबित हो सकता था, क्योंकि 2022 में पांच राज्यों में जो विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें उत्तर प्रदेश अव्वल है। यहां यदि इस विधानसभा चुनावों में भाजपा यदि हार जाए तो 2024 के लोकसभा चुनावों पर विपरीत असर पड़े नहीं रह सकता, क्योंकि जुमला आम है कि दिल्ली दरबार का दरवाजा उत्तर प्रदेश या लखनऊ के रास्तों से ही गुजरकर खुलता है।

इसी के मद्देनजर मोदी को योगी के कामकाज की सार्वजनिक रूप से तारीफ करनी पड़ी। यही काम अमित शाह और जेपी नड्डा ने किया। यह सब तब किया गया, जब इस सूबे में सरकार के प्रति जनता में नाराजगी के स्पष्ट संकेत मिलने लगे थे। यदि योगी फिर सरकार बनाने में कामयाब हो गए तो विपक्ष की कथित एकता और आम आदमी पार्टी की चुनौती के साथ ही मोदी और योगी की दूरियां सिमट सकती हैं।

​कर्नाटक में तो 2022 में कोई विधानसभा चुनाव नहीं हैं, लेकिन भाजपा आलाकमान कुछ सालों से उम्र के 75वें साल के बाद सेवानिवृत्ति की रणनीति पर काम कर रही है। कहते हैं इसी नीति के तहत पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी और पूर्व केन्द्रीय मंत्री और पूर्व पार्टी अध्यक्ष डॉ. मुरली मनोहर जोशी जैसे लोग परिदृश्य से बाहर कर दिए गए। इस रणनीति को देखते हुए कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा के रिप्लेसेंट को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है।

​राजनीतिक पर्यवेक्षकों के लिए गहरे विचार का मुद्दा यह है कि उत्तराखंड में भी तो 2022 में विधानसभा चुनाव होने हैं। वहां छोटे से अरसे में तीरथ सिंह रावत के बाद पुष्कर सिंह धामी को लाया गया। इस अचानक हुए बदलाव के पीछे मोटा-मोटा कारण जनता की सरकार से बेरुखी को बताया जा रहा है। वैसे उक्त दोनों नेता राजपूत समाज के हैं, इसलिए वोट बंटने के अवसर कम ही दिखाई देते हैं। पहले कहा जाता रहा कि राजपूत समाज के वोट कांग्रेस और भाजपा में बंट गए थे, लेकिन बाद में माना गया कि बुरे वक्त में लगभग पूरे राजपूत समाज ने भाजपा को ही संबल दिया।(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
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