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Last Updated : शनिवार, 18 मई 2024 (11:58 IST)

चार चरणों के मतदान में उभरी प्रवृत्तियां काफी संकेत दे रही हैं

election commission
लोकसभा चुनाव के चार चरण पूरे होने के बाद कुल 543 स्थानों में से 379 का मतदान संपन्न हो चुका है। वस्तुत: अब तक तमिलनाडु, केरल, गुजरात, राजस्थान, कर्नाटक, असम, गोवा, त्रिपुरा, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मिजोरम, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, पुद्दुचेरी , लक्षद्वीप ,अंडमान, दमन और दीव, दादरा एवं नगर हवेली में मतदान समाप्त हो गया है।

इस तरह कुल 18 राज्यों और 4 केंद्र शासित प्रदेशों में मतदान खत्म है। इनमें आठ राज्यों तथा दो केंद्र शासित प्रदेशों में बीजेपी कभी शक्तिशाली नहीं रही। पहले चरण में 102, दूसर में 88, तीसरे में 93 तथा चौथे चरण में 96 सीटों पर मतदान हुआ। अब केवल 164 स्थान का ही मतदान बाकी है। 
 
हालांकि अभी पंजाब,हरियाणा, दिल्ली जैसे राज्यों का मतदान बाकी है। बावजूद चुनाव से संबंधित मुद्दे, पार्टियों की रणनीतियां, मतदान की प्रवृत्तियां आदि काफी हद तक हमारे सामने आ चुके हैं। इसलिए लोकसभा चुनाव के अभी तक के मतदान के आधार पर कुछ स्पष्ट दिखती तस्वीरें तथा संकेतों और संदेशों को समझाना ज्यादा आसान हो गया है।
 
इस चुनाव में सबसे ज्यादा चर्चा मतदान प्रतिशत गिरने की प्रवृत्तियों का हुआ है। चौथे चरण का अंतिम मतदान प्रतिशत आने में समय लगेगा । चुनाव आयोग द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार तीसरे चरण में 65.68% मतदान हुआ, जबकि 2019 में इस चरण में 68.4% मतदान हुआ था । इसमें असम में सर्वाधिक 85.45 प्रतिशत, गोवा में 76.00 6%, बिहार में 59.15% और उत्तर प्रदेश में 57.55% मतदान हुआ। पहले चरण में 66.14% तथा दूसरे में 66.71% मतदान हुआ था। 2019 के लोकसभा चुनाव में पहले चरण में 69.4 3% और दूसरे में 69.6 4% मतदान हुआ था। इस तरह देखें तो पहले चरण में 3.3 प्रतिशत, दूसरे में करीब 2.9% एवं तीसरे चरण में 2.72% की कमी आई है। 
 
कुल मिलाकर मोटा-मोटी 2019 की तुलना में 3% मतदान राष्ट्रीय स्तर पर कम हुआ है। सामान्यतया राष्ट्रीय स्तर पर तीन प्रतिशत मतदान कम होना बहुत ज्यादा नहीं लगता, किंतु राज्यों के अनुसार देखें तो इनमें काफी उतार - चढ़ाव है। मसलन महाराष्ट्र, बिहार, गुजरात, मध्यप्रदेश, केरल जैसे राज्यों में मतदान का प्रतिशत ज्यादा कम रहा। दूसरी ओर पूर्वोत्तर के लोगों ने भारी मतदान किया। पश्चिम बंगाल का लगभग 73 -744% मतदान भी अभी तक अच्छा है लेकिन यह पिछले चुनाव से काफी कम है। राज्यों के अंदर भी अलग-अलग क्षेत्र में कम और ज्यादा मतदान हुआ है।  इसमें सबसे सबके दिमाग में यह प्रश्न कौंध रहा है कि किसके मतदाता कम संख्या में निकले?
 
 परिणाम के पूर्व कोई भी भविष्यवाणी जोखिम भरी है। महिला मतदाताओं की संख्या के आधार पर पिछले लोकसभा चुनाव और राज्य विधानसभा चुनावों में माना जा रहा था कि जहां भी भाजपा है वहां इनका ज्यादातर मत उसे ही मिलता है। इस चुनाव में महिला मतदाताओं  की संख्या असम और पश्चिम बंगाल में 83% से अधिक रही, आए जो देश में सबसे ज्यादा है। शेष जगह महिलाओं का मतदान सामान्य रहा और पुरुषों की तुलना में ज्यादातर जगह कम। इन सबके निश्चय ही निहितार्थ हैं । क्या हैं निहितार्थ? विपक्ष के दावों के बावजूद देश भर में यह नहीं देखा गया कि कहीं भी व्यापक स्तर पर जनता के अंदर नरेंद्र मोदी सरकार को सत्ता से हर हाल में उखाड़ फेंकने का सामूहिक वातावरण है।
 
इसी तरह विपक्ष को केंद्र की सत्ता में स्थापित करना है ऐसा सामूहिक प्रखर भाव भी कहीं देखा नहीं गया। स्थानीय स्तरों पर भाजपा के नेताओं -कार्यकर्ताओं और समर्थकों के एक समूह में कई कारणों से उदासीनता और असंतोष दिखा है। 22 जनवरी को अयोध्या में रामलाल की प्राण प्रतिष्ठा के साथ बना हुआ स्वाभाविक अभूतपूर्व वातावरण निश्चित रूप से कमजोर पड़ा और चुनाव की अंतर्धारा में यह सशक्त रूप से सब जगह कायम नहीं रहा।

ऐसा नहीं था कि लोगों ने 500 वर्षों के बाद मंदिर निर्माण और प्राण प्रतिष्ठा से भावनात्मक रूप से स्वयं को जोड़ा नहीं लेकिन उसे बनाए रखने के लिए उम्मीदवार, गठबंधन तथा अन्य सरकारी सम्मानों के लिए चयनित व्यक्तियों का व्यक्तित्व उसके अनुरूप होना चाहिए। अगर इनमें राममंदिर, हिंदुत्व और प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व की झलक नहीं होगी तो कार्यकर्ता और प्रतिबद्ध समर्थक चुनाव में करो या मरो के भाव से काम नहीं कर पाएंगे। 
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर मतदान करना है तो चाहे बीजेपी हो या गठबंधन उनमें भी उस तरह की प्रखरता सामने दिखने चाहिए थी। बावजूद भाजपा के नेता ,कार्यकर्ता और प्रतिबद्ध समर्थक गुस्से और प्रतिशोध के भाव में एकमुश्त उसके विरुद्ध मतदान कर देंगे ऐसा मानने का ठोस आधार नहीं दिखता है।

भाजपा विरोधी जितना प्रचार करें चार चरणों के चुनाव में इस तरह की व्यापक प्रवृत्तियों की रिपोर्ट नहीं है। हां, अप्रतिबद्ध मतदाता इधर से उधर जाते हैं और इस चुनाव में गए हैं। किंतु अभी तक की प्रवृत्तियों में ऐसा नहीं दिखा है कि दो लोकसभा चुनावों से भाजपा के साथ खड़े होने वाले मतदाताओं का बहुत बड़ा समूह बिल्कुल विपक्ष के साथ भाजपा को हराने की मानसिकता से चला गया।
 
 चुनाव प्रक्रिया आरंभ होने के बाद कांग्रेस से निकले नेताओं ने जिस तरह पार्टी को हिंदुत्व और राम मंदिर विरोधी घोषित किया उसका इतना अर्थ तो है ही कि यह मुद्दा मूर्त रूप में विद्यमान है। विपक्ष वैसे मुद्दों पर सरकार को घेरे जिनमें तथ्य हों और वे सच भी हों तो आम लोग प्रभावित होंगे। अभी तक के चुनाव में विपक्ष ने उन मुद्दों को सबसे ऊपर लाने की कोशिश की है जिनमें ज्यादातर सच नहीं है। 
 
उदाहरण के लिए भाजपा ने 400 सीटों का नारा इसलिए दिया कि वह संविधान और आरक्षण को खत्म कर सके। इसी तरह यह कि नरेंद्र मोदी सत्ता में आ गए तो आगे चुनाव नहीं होगा। यानी यह फासिस्ट और उच्च जातियों की मानसिकता वाली पार्टी है जो लोकतंत्र के अनुकूल व्यवस्था को रहने नहीं देगी । ये सब वही आरोप हैं जो संघ परिवार और भाजपा पर वर्षों से लगाए जाते रहे और हमेशा गलत साबित हुए। ऐसा नहीं है कि लगातार इस दुष्प्रचार से मतदाता बिल्कुल प्रभावित नहीं हुए लेकिन 10 वर्षों के शासनकाल में ऐसा नहीं हुआ जबकि पहले भी यही आरोप लगाया गया था । 
 
तो आगे होगा इस पर मतदाताओं का व्यापक समूह विश्वास नहीं कर सकता। लोगों के सामने यह सच भी है कि भाजपा ने सत्ता में आने के बाद आरक्षण व्यवस्था को ज्यादा सुसंगत और तार्किक बनाया है। आर्थिक रूप से कमजोर की सूची में आरक्षण के लिए मुसलमान सहित सभी को शामिल किया है। संविधान दिवस की शुरुआत करने वाली पार्टी संविधान को खत्म कर देगी इस पर सहसा कौन विश्वास करेगा?
 
 आप देखेंगे कि पहले चरण के साथ विपक्ष ने प्रकट और अप्रकट अल्पसंख्यकों के नाम पर मुसलमान से जुड़े उन मुद्दों को उभारा जिनके विरुद्ध प्रतिक्रिया में भाजपा की ताकत बढ़ती रही है। इस चुनाव का यह दुर्भाग्यपूर्ण पहलू है कि स्वयं मुसलमानों के अंदर पढ़े -लिखे और अगुवा वर्ग ने चुनाव को इस्लाम मजहब का विषय बनाया, इसके आधार पर पूरे समुदाय से भाजपा के विरुद्ध वोट करने  कि सार्वजनिक अभियान चलाया है,पर किसी भी विपक्ष के नेता ने इसका विरोध नहीं किया। 
 
पहले चरण के बाद दूसरे,  तीसरे और चौथे चरण तक यह विषय चरम पर पहुंचा और स्वयं प्रधानमंत्री एवं भाजपा की इसके विरुद्ध प्रतिक्रियाओं ने निश्चय ही मतदान को प्रभावित किया होगा। कुछ राज्यों विशेषकर तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना , आंध्रप्रदेश ,पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में साफ दिख रहा है कि सनातन, हिंदुत्व, राम मंदिर मतदाताओं को प्रभावित करने वाला बड़ा कारक है और वहां की सत्तारूढ़ दलों के विरुद्ध प्रतिक्रिया में भाजपा को वोट मिला है। संदेशखाली बंगाल चुनाव को प्रभावित कर रहा है । बंगाल,  उड़ीसा और तेलंगाना में भाजपा शानदार प्रदर्शन करें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इसी तरह केरल और तमिलनाडु में भी उसका प्रदर्शन संतोषजनक हो सकता है।
 
वस्तुत: सभी पार्टियों को चुनाव में परिपक्व लोकतांत्रिक व्यवहार का परिचय देना चाहिए था।‌ महान सभ्यता -संस्कृति वाले इस देश के चरित्र को केंद्र में रखते हुए अर्थनीति, विदेश नीति ,रक्षा नीति, सामाजिक- सांस्कृतिक नीति आदि पर गंभीर बहस से चुनाव को सही पटरी पर लाया जा सकता था।

प्रधानमंत्री ने स्वयं चुनाव अभियान की शुरुआत 2047 तक भाजपा को विकसित देश बनाने, अगले 5 वर्ष से लेकर सरकार में आने पर 100 दिन के एजेंडे की बात की। लेकिन संविधान और आरक्षण खत्म करने, लोकतंत्र का अंत करने, अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों के मजहबी अधिकार समाप्त कर देने के साथ अलग-अलग जातियां के समर्थन और विरोध जैसे आरोप इतने हाबी हो गए कि अंततः ये चुनाव का मुख्य मुद्दे हो गए। 
 
जो स्थिति हो गई है उसमें यह मानने का कोई कारण नहीं कि शेष तीन चरणों में ये मुद्दे नहीं रहेंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अयोध्या में श्रीरामलला का दर्शन और रोड शो वास्तव में चुनाव को इनके साथ जातीय, स्थानीय और छोटा स्वार्थों वाले मुद्दों से निकालकर व्यापक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य की पटरी पर लाने की कोशिश थी। 

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)