अपने शरीर की गरिमा का ख़याल और निजता की एक समझ आ जाने की उम्र के बाद दुनिया का हर इन्सान (स्त्री-पुरुष के भेद से परे) सबसे ज़्यादा अगर किसी चीज़ से डरता है, तो वह है अपने शरीर को सम्भाल पाने की सुध-बुध खो देने से। ऐसा दो ही स्थितियों में होता है। एक जब सचमुच कोई सुध-समझ खो दे, मानसिक रूप से विमंदित हो जाए और दूसरा हारी-बीमारी के हालात। बढ़ती उम्र के लोगों को आमतौर पर जीवन के आखिरी पड़ाव तक खुद को ना संभाल पाने का यह भय घेरने ही लगता है पर बीमारी की हालत में उम्र कोई मायने नहीं रखती। किसी भी उम्र का इन्सान हो निर्भरता और बेसुध होने की स्थितियाँ बन ही जाती हैं।
बीमारी से जूझ रहे किसी अपने-पराये की मनःस्थिति समझने का मौका तो आया होगा ना ज़िन्दगी में कभी ना कभी? नहीं तो ख़ुद कभी बीमार हुए होंगे ? महिलाएँ तो समझ ही सकती हैं कि माँ बनने के बाद कैसे कुछ अरसे तक खुद को संभलाने का होश होने के बावजूद सब सधा, स्वच्छ और संभला सा नहीं लगता। बाल बिखरे से, हाल उजड़े से। कौन चाहता है कि वह उस हाल में सभी के सामने आए ? कोई नहीं ना ? फिर से सोचिए । पक्का जवाब मिलेगा - हाँ, कोई नहीं चाहता, बिलकुल भी नहीं। इतना भर सोचिए और ठीक इसी पल अपनी जर्जर काया के बारे में सोचकर डर जाएंगे/जाएंगी आप, सिहर उठेगा मन।
तो फ़िर जरा ठहरकर यह भी सोचिए कि आपको लता जी की अस्पताल में बीमारी से जूझते दिनों की थकी काया वाली तस्वीरें ही मिलीं साझा करने लिए ? रील बनाने के लिए। यहाँ-वहाँ फैलाने के लिए।जिस नाम का पहला अक्षर गूगल सर्च में लिखते ही अनगिनत गाती-मुस्कुराती तस्वीरें, पेंटिंग्स, रेखाचित्र आपके समक्ष हों, उसके बारे में कुछ कहने को वही एक दो तस्वीरें मिलीं आपको ? ना ना ज्ञान मत दीजिएगा कि यह भी जीवन का रंग है। हमने तो सोचा ही नहीं। वगैरह वगैरह।
स्मार्ट फ़ोन के लगभग सारे फिल्टर और चेहरे को सुंदर दिखाने के तमाम इंतज़ाम के बाद अपनी तस्वीरें शेयर करने वाले, 'यह भी जिन्दगी का रंग है' टाइप के कारण तो बिलकुल ना दें । बिलकुल भी नहीं। 'हमने तो सोचा ही नहीं', यह तो और भी फरेबी वजह है । सोचा और ख़ूब सोचा है आपने ।पोस्ट की टीआरपी के लिए कुछ अलग हो, यह सोचा है। सनसनी नहीं तो कुछ सिहरन पैदा करने वाला ही सही, यह सोचा है आपने।
सोशल मीडिया हमें पागल बना रहा है, यह तो दिख ही रहा है। कभी किसी की जर्जर काया की तस्वीरें जानबूझकर डालना, कभी पार्थिद देह के फ़ोटो शेयर करना ।बेसुध तो हम ख़ुद हो रहे हैं पर अब भी संभल जाएँ तो कोई बुराई है क्या ? तकनीक ने कुछ माध्यम दिए हैं, सार्थक ढंग से दूर बैठे लोगों से जुड़े रहने के लिए।मन की कहने के लिए। ख़ुद से प्रश्न कीजिए ज़रा कि इन प्लेटफ़ॉर्म्स पर अलग के नाम पर अपने होश खोना जरूरी है क्या?
आप नहीं चाहते कि आपकी बिखरी आलमारी तक कोई देखे। असली सूरत तक बिना साज-संवार के लोगों के सामने आए। तो किसी और की गरिमा का भी ख़याल कीजिए ना।
मन सच में व्यथित हुआ। व्यक्तिगत रूप से मिले हुए कितने ही चेहरे याद आ गए।माँ- दादी याद आईं।बीमारी से जूझते हर परिचित-अपरिचित बुजुर्ग के चेहरे स्मरण हो आए।जो डरे से रहे, रहते हैं। बोलकर बताते-कहते रहे, बताते कहते रहते हैं कि बस सुध-समझ और शरीर की शक्ति रीतने से पहले ईश्वर बुला लें अपने पास।
प्लीज़ - कोई लोकप्रिय चेहरा हो, करीबी अपना या परिचित पराया। पोस्ट की टीआरपी, रील के व्यूज और लाइक-कमेंट की बीमारी में सुध-बुध मत खोइए। जीवन और मृत्यु की अपनी गरिमा है और किसी की शारीरिक-मानसिक स्थिति को सामने रखने की एक आचार-संहिता। पालन कीजिए कुछ मानवीय नियमों का।सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स पर हमें खुद ही अपने लिए विचार-व्यवहार के नियम बनाने हैं। बनाइए और मानिए भी।