मंगलवार, 16 अप्रैल 2024
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‘राष्ट्रीयता’ की बजाय भारतीय मुसलमान हमेशा ‘इस्लामवाद की पैरवी’ क्यों करता है?

‘राष्ट्रीयता’ की बजाय भारतीय मुसलमान हमेशा ‘इस्लामवाद की पैरवी’ क्यों करता है? - islam in india
फ्रांस में अभिव्यक्ति का पाठ पढ़ाते हुए शिक्षक की हत्या के बाद वहां के राष्ट्राध्यक्ष इमैनुएल मैक्रों ने इस्लामिक आतंकवाद से निपटने का आह्वान किया। इमैनुएल मैक्रों ने कहा,

‘इस्लाम एक ऐसा धर्म है जिससे आज पूरी दुनिया संकट में है। फ्रांस जैसे देश के राष्ट्राध्यक्ष को आखिर यह बात किन मजबूरियों में कहनी पड़ी। यह समझने वाली बात है, क्योंकि विश्वभर में फ्रांस जैसा आधुनिकता एवं मानवीय मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध दूसरा कोई भी देश नहीं है। दूसरी ओर यदि मैंक्रों ने यह बात कही भी है तो उसके पीछे पर्याप्त तर्क यह है कि:-

‘हत्यारे ने कुरान और अल्लाह की बात करते हुए हत्या की है’ फिर उसके बाद इस्लाम के नाम पर ही विश्वभर में तुर्की, पाकिस्तान, बंग्लादेश, मलेशिया सहित अन्य इस्लामिक देशों का फ्रांस के बहिस्कार और इमैनुएल मैंक्रों के खिलाफ फतवे जारी करना। हत्याओं को सही साबित करना भी मैंक्रों के कथनों को पुष्टि प्रदान करता है। जब हत्यारे ने इस्लाम और कुरान के नाम पर ही हत्या की और इसी प्रकार की हत्याएं इस्लामिक आतंकवादी भी करते हैं, तब मैंक्रों ने कोई भी गलत बात नहीं कही है। क्योंकि कोई भी देश अपने संवैधानिक मूल्यों एवं राष्ट्रीय स्वभाव पर आक्रमण किसी भी हाल पर सहन नहीं कर सकता।

विश्व जिस आतंकवाद से आज साक्षात्कार कर रहा है, उस आतंकवाद का दंश भारत वर्षों से झेल रहा है। उसी मानसिकता ने ही देश के विभाजन करवाए,स्वतंत्रता पूर्व एवं उसके पश्चात दंगों में हत्याएं हुई तथा उन हत्याओं का सिलसिला आज तक भी नहीं थम रहा है। चाहे हम विश्व की बात करें या भारत की बात करें। उन सभी में एक चीज जो है वह यह है कि ‘इस्लामवाद’। शरीयत, कुरान, काफिर इन सभी के इर्द-गिर्द ही भारत हो या विदेश हों सभी जगह आतंकवादी घटनाएं देखने को मिलती रही हैं और वह आज भी चल रहा है। तथा यह कब तक चलेगा इसका कोई भी अनुमान नहीं लगाया जा सकता  है, लेकिन इससे यह बात स्पष्ट तौर पर कही जा सकती है कि जब तक ऐसी आतंकवादी घटनाएं होंगी, तब तक सम्पूर्ण मानवता खतरे में है।

भारत सरकार ने फ्रांस की घटना पर अपना स्पष्ट रुख दर्ज कराते हुए आधिकारिक बयान जारी कर फ्रांस के साथ इस्लामिक कट्टरता के विरोध में खड़ा रहने व आतंकवाद से लड़ाई में बराबर सहभागी होने की बात कही। यह भारतीय विदेश नीति का उत्कृष्ट पहलू है कि हम विश्वभर में शांति एवं मानवता के साथ खड़े होने में किसी भी तरह का संकोच नहीं करने वाले,क्योंकि आतंकवाद के पक्ष में बोलना या चुप रहकर नजरअंदाज करना दोनों ही घातक है।

दूसरी ओर यह बात ध्यान देने योग्य है कि जिस प्रकार से इस्लामिक सत्ता वाले देशों में मैंक्रों का विरोध हो रहा है, उसी तर्ज पर भारत में भी मुसलमानों के गिरोह इकठ्ठे होकर फ्रांस के कदम का विरोध कर रहे हैं। साथ वे हत्यारों के पक्ष में अपना राग अलापते हुए उसे सही बतला रहे हैं, इसमें इस्लामिक कट्टरवादी ही नहीं बल्कि स्वयं को पढ़ा-लिखा, सुशिक्षित एवं बड़ी-बड़ी डींगें हांकने वाले प्रतिष्ठित मुसलमान भी शामिल हैं।

ये ऐसे-वैसे लोग नहीं है, इन्हें इस देश ने बराबर सर आंखों पर बैठाकर रखा तथा प्रतिष्ठा एवं समेकित वृध्दि के अवसर उपलब्ध करवाए हैं। लेकिन गौर करिए कि ये सभी लोग बड़ी ही बेशर्मी के साथ हत्यारों के पक्ष में खड़े हुए हैं और चीख-चीखकर हत्याओं को सही ठहरा रहे हैं। यदि इन लोगों की भावनाएं आहत होती हैं तो क्या अन्य धर्मों के अनुयायियों की इनके कृत्यों से भावनाएं आहत नहीं होतीं? दूसरी ओर क्या भावनाएं आहत होने पर कोई भी किसी की भी हत्या कर देगा?

यदि इन लोगों का यही मानना है तो फिर संवैधानिक नियमों, कानूनों एवं व्यवस्थाओं का कोई भी औचित्य ही नहीं रह जाता है। तो क्या इन इस्लामिक कट्टरपंथियों के अनुसार ही देश की व्यवस्थाएं चलेंगी?

ध्यान रखिए कि ये वही लोग हैं जो कभी अफजल गुरु के पक्ष में नारेबाजी करते हैं, तो कभी कसाब के लिए कोर्ट खुलवाते हैं, कभी एएमयू, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, जेएनयू में देशविरोधी नारे और जिन्ना प्रेम दिखलाते हैं। कभी धारा-370, नागरिकता कानून के विरोध में सड़कों को कैद कर लेते हैं तो कभी दिल्ली को दंगों में झोंक देते हैं, कभी राममंदिर विरोध तो कभी ट्रेनों में आग, पत्थरबाजी सहित अन्य देश विरोधी गतिविधियों में शामिल रहते हैं तथा भारतीय प्रभुसत्ता को चुनौती देते हैं। इनका दंगों में कभी प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष तरीके से अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं। तो कभी गौहत्यारों के पक्ष में खड़े होकर अपने को विक्टिम सिध्द करते हुए देश में डरा-सहमा बतलाने में नहीं चूकते हैं।

इनका जो जाल (नेक्सस) है वह बकायदे इनके पक्ष में बौध्दिक जुगाली, हस्ताक्षर अभियान, डरे-सहमे होने का प्रपंच और अन्य माध्यमों चाहे वह बौध्दिक नक्सली हों, या फिल्मी भांड़, राजनैतिक भेड़िए, अकादमिक सियार हों उन सभी के द्वारा वॉकओवर प्रदान किया जाता है।

फ्रांस के वर्तमान सन्दर्भ को देखें तो इसमें हत्यारों के साथ किसी भी प्रकार की पक्षधरता करना मानवता के विरुद्ध है। हम दूसरे देशों को छोड़ दें ये उनका मत है कि वे किसके पक्ष में हैं या किसके पक्ष में नहीं हैं। किन्तु जब भारत ने एक राष्ट्र के तौर पर फ्रांस की पक्षधरता मानवीय मूल्यों के अन्तर्गत की है, तब ऐसे में मुसलमानों के गिरोहों द्वारा फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैंक्रों के विरुद्ध फतवे जारी करना, उनके विरुद्ध अनर्गल बयानबाजी, उनकी फोटोज को सड़कों पर चिपकाना, पुतले जलाना यह भारतीय विदेश नीति के खिलाफ है।

इन लोगों को पहचानना आवश्यक है कि ये लोग आखिर हैं कौन? इनका ध्येय क्या है? ये किस रणनीति के अन्तर्गत कार्य कर रहे हैं? इनके पीछे कौन है? ये किसे सत्ता के तौर पर स्वीकार कर रहे हैं? यदि हम इन प्रश्नों की तह पर जाएं तो यह स्पष्ट समझ आता है कि जो लोग भी भारत के अन्तर्गत ऐसा कृत्य कर रहे हैं, वे भारतीय शासन पध्दति एवं संविधान को मानने वाले लोग नहीं है। अगर वे शासन पध्दति को मानने वाले लोग होते तो एक राष्ट्र की विदेश नीति से सम्बन्धित मामले के विरोध में कत्तई नहीं खड़े होते।

दूसरी बात यह है कि ये लोग वही हैं या उसी विचारधारा या उद्देश्य के अन्तर्गत काम करने वाले हैं जो फ्रांस में हत्यारे ने किया।

भारत के एक नागरिक होने के नाते इन्हें भारतीय शासन पध्दति में निष्ठा रखने वाला होना चाहिए,लेकिन ऐसा क्यों नहीं है? जो लोग फ्रांस के राष्ट्रपति के विरोध में फतवा जारी कर रहे हैं, सड़कों पर उतर रहे हैं और हत्याओं को जायज ठहराते हुए यह बात कह रहे है कि जो भी ऐसा कृत्य करेगा-उसकी हत्या करना बिल्कुल गलत नहीं है। इसके साथ भी ये लोग तर्क में- इस्लाम, कुरान, शरिया को उद्घाटित करते हुए इस्लामिक शासन पध्दति के नारे को बुलंद कर रहे हैं। तो यहां समझने वाली बात यह है कि ये लोग किसी शासन व्यवस्था या संवैधानिक नियमों को नहीं, बल्कि इस्लामिक नीतियों के अन्तर्गत ही किसी भी बात को सही या गलत मानना और मनवाना चाहते हैं।


दूसरी ओर ये बाद में विश्व शांति, मानवता ,संवैधानिक मूल्यों की दुहाई देते हुए खुद को असहाय, कमजोर, प्रताड़ित सिध्द करने पर लगे होते हैं। लेकिन जब बात मानवता, संवैधानिक मूल्यों की आती है तब ये शरीयत और मुसलमानों के अपने कायदे-कानूनों की हठधर्मिता की बात पर अड़े रहते हैं। अब सवाल यह है कि चिट्ट और पट्ट दोनों इनके हों। भारतीय मुसलमानों के गिरोह जो आज कर रहे हैं,वे इनकी पुरानी आदत है। स्वतंत्रता के पूर्व स्वतंत्रता आन्दोलनों में मुस्लिम लीग और मुसलमानों के अन्य संगठनों के भी यही हाल रहे हैं।खिलाफत आन्दोलन में भी मुसलमानों ने इसी तरह की रणनीतियाँ अपनाई थी ,जो वर्तमान में आज है। इसलिए अब यह समझना होगा कि समय भले बदला है-लेकिन मुसलमानों ने अपने आपको आज तक नहीं बदला है।इनकी जो सोच,प्रवृत्ति ,मंशा पूर्व में रही है वह आज भी उसी तरह की बनी हुई है।बड़े-बड़े मंचों से जब शांति की हिमायत के लिए ‘गंगा-जमुनी तहजीब’ व ‘भाई-चारा’ का झूठा प्रपंच रचा जाता है और यह सिध्द करने का पूरा प्रयास होता है कि इस्लाम शांति का धर्म है।


उसके पश्चात जब शांति और मानवता की बात आती है, तब मुसलमानों के गिरोह अपनी उग्रता पर आ जाते हैं तथा मानवीय एवं संवैधानिक मूल्यों की "संवैधानिक आड़" में धज्जियां उड़ानें से बाज नहीं आते हैं। तब शांति और मानवता की बात करना हास्यास्पद ही लगता है। प्राय:यह कहा जाता है कि सभी मुसलमान ऐसे नहीं है, लेकिन ऐसी परिस्थितियां जब उत्पन्न होती हैं। तब ऐसे मुसलमानों का बोलबाला तो दिखता है लेकिन वैसे वाले मुसलमान कहां गायब हो जाते हैं? वे मुसलमान आखिर क्यों नही दिखते? जो मुसलमानों के गिरोहों की उग्रता का प्रतिकार करने का दावा करें।

आखिर! भारतीय मुसलमान, भारत की शासन पध्दति एवं संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप स्वयं को क्यों नहीं ढालना चाहते हैं? यदि भारतीय मुसलमान केवल इस्लाम के आधार पर किसी की भी पक्षधरता करेंगे, तब उनकी देशभक्ति कर तो प्रश्नचिन्ह उठेगा ही। हर बार भारतीय मुसलमान, इस्लामिक देशों के अनुसार ही आचरण करने की जिद! क्यों करता रहता है? और जब मुसलमानों के इन्हीं आचरणों के खिलाफ आवाज उठती है तो वह खुद को डरा-सहमा बतलाने पर लग जाएगा।

दूसरों को साम्प्रदायिक और फासीवादी घोषित करने लगता है, इसमें मुसलमानों के लिए कम्युनिस्ट और अन्य वे लोग जो प्रायः किन्हीं खास मुद्दों पर तो चिंघाड़ते रहते हैं, लेकिन मुसलमानों के इन कृत्यों पर जुबान को सिल लेते हैं। वे अचानक से प्रकट होंगे और नैरेटिव सेट करते हुए मुसलमानों के लिए एनर्जी बूस्टर का काम करने पर लग जाएंगे। यह सब प्रवृत्तियां इस्लामवाद की हैं जो हर हाल में सभी जगह अपनी मनमानी एवं इस्लामिक सत्ता का एजेंडा लिए हुए सभी चीजें संचालित करना चाहता है।

यदि भारतीय मुसलमान इस्लामवाद के कुचक्र से स्वयं को निकालकर राष्ट्रीयता के अनुसार आचरण नहीं करता है तब ऐसी परिस्थितियों में मुसलमानों को संवैधानिक मूल्यों की दुहाई देने का भी अधिकार नही रह जाता है। साथ ही मुसलमानों के प्रति इस्लामवाद के कारण समाज की मानसिकता में जो बदलाव लगातार हो रहा है उसके परिणाम किसी भी तरह से मुसलमानों के लिए निकट भविष्य में सुखकर नहीं होने वाले। क्योंकि इन सभी घटनाओं के चलते गैरमुस्लिम समाज में मुसलमानों को लेकर प्रतिकार एवं उपेक्षा की धारणा बलवती होती जा रही है। मुसलमानों में वे लोग जो राष्ट्रीयता एवं भारत के राष्ट्रीय स्वभाव के हिमायती हैं,वे भी इस्लामवाद के कुचक्र के विरुद्ध मुसलमानों को समझाने का काम करें, क्योंकि इस्लामिक कट्टरवादियों के हाथों में मुसलमानों की कमांड देने का अभिप्राय ही उनके लिए गहरी खाई खोदनी है। भारतीय मुसलमानों को यह समझना होगा कि उनकी प्रगति भारत से है तथा भारत की संवैधानिक व्यवस्था के प्रति निष्ठा न रखकर मजहबी उन्माद से प्रेरित होकर कोई भी कदम उठाना जो राष्ट्र की विदेश नीति या आन्तरिक शांति के विरुद्ध है वह राष्ट्रद्रोह ही कहलाता है।

मुसलमान इस देश के नागरिक हैं उनकें भी उसी तरह के अधिकार हैं जिस प्रकार से अन्य भारतीय समाज के। लेकिन मुसलमानों को यह भी देखना और पालन करना होगा कि सिर्फ अधिकार ही नहीं बल्कि कर्त्तव्य भी हैं, जिनका पालन करना भी उनकी जिम्मेदारी है। सवाल सरकार से भी है कि आखिर! सरकार इन कट्टरपंथियों के कृत्यों के विरुद्ध कोई भी कार्रवाई क्यों नहीं कर पाती है? क्या संविधान एवं राष्ट्रीय नीतियों का माखौल ऐसे ही उड़ाया जाता रहेगा तथा मजहबी उन्माद में उपद्रवों की आग में देश को झोंक दिया जाएगा। याकि  विदेशी नीति के विरुद्ध जाने वालों को इसी तरह छूट दी जाती रहेगी?

नोट: इस लेख में व्‍यक्‍त व‍िचार लेखक की न‍िजी अभिव्‍यक्‍त‍ि है। वेबदुन‍िया का इससे कोई संबंध नहीं है।