अस्पताल भ्रमण का रोमांच...
जीवन में प्रत्येक व्यक्ति को यह सुअवसर (?) अवश्य प्राप्त हुआ होगा, जब वो या तो किसी परिचित मरीज का कुशल क्षेम पूछने अस्पताल गए होंगे या फिर कभी कोई उनका हाल-चाल पूछने अस्पताल आया होगा। छुरी तरबूज पर गिरे या तरबूज छुरी पर वाली कहावत मैंने सुनी तो थी पर गुनी कभी न थी। परंतु इस कहावत के वास्तविक मायने अस्पताल जाने के दौरान मेरी समझ आ गए।
हुआ कुछ यूं कि अपने एक परचित दुर्घटनाग्रस्त हो गए और उन्हें देखने जाने का सौभाग्य मुझे उसी दौरान प्राप्त हुआ। चिकित्सक यदि दिल पर ना लें तो यह राज भी जगजाहिर कर ही दूं कि मरीज का प्रत्येक रिश्तेदार चिकित्सकों को सदा लूटेरा, अल्पज्ञानी और दंभी समझता है। चिकित्सक द्वारा दी गई नसीहतों का मखौल हास्य के गुब्बारों की तरह अस्पताल के वातावरण में उड़ाना इनका प्रिय शगल होता है।
मैं जब निर्धारित समयानुसार परिचित को देखने उनके प्राइवेट कक्ष में पहुंचा तो वहां मेले जैसा मनोरम दृश्य देख अभिभूत हो गया। परिचित के बिस्तर के सिरहाने उनकी एक महिला रिश्तेदार बैठ अखबार बांच रही थी, सामने सोफे पर एक सज्जन (?)लूंगी-कुर्ते में विवेकानंद की मुद्रा में हाथ बांधे सो रहे थे तथा सोफे और पलंग के मध्य बिछी सतरंजी पर कुछ महिला रिश्तेदार परनिंदा का रसास्वादन कर रहे थीं। परिचित के पास रखी टेबल पर कुछ पुष्प गुच्छ, पुराने समाचार पत्र, चाय के कुछ अधखाली कप, कुछ पपीते, रुई का बंडल, दवाइयों के रेपर और कुछ पत्रिकाएं अपने पूरे यौवन में बिखरीं हुई थीं। मेरे कक्ष में प्रवेश के साथ ही रिश्तेदारों ने अपने आप को सहेजने-समेटने की असफल चेष्टा की परंतु जब एक महिला सोफे पर निंद्रारत सज्जन को जगाने लगी, तो सिरहाने बैठी उम्रदराज महिला ने उसे लगभग डांटते हुए कहा "मुन्ना को सोने दे रात भर का जगा है बिचारा ..."इस एक वाक्य ने मेरा मन उस अपरिचित लेटे हुए व्यक्ति के प्रति कृतज्ञता से भर दिया। हालांकि मेरे लघु मस्तिष्क में यह प्रश्न जरूर आया कि ये व्यक्ति घर जाकर क्यों नहीं सोता? परंतु मैंने प्रश्न को अनसुना कर परिचित का हाल जानने को ज्यादा तवज्जो दी।
परिचित ने मुझे बताया की वे किस प्रकार दुर्घटनाग्रस्त हुए। इस दौरान मैंने अपने चेहरे पर लगातार आश्चर्य और संवेदना का मिश्रित कोण बनाए रखा जबकि रिश्तेदार अनेकों बार सुन चुके इस वृतांत के प्रति अधिक ललायित नजर नहीं आए। रिश्तेदारों की अनवरत जारी चर्चा से यह स्पष्ट था कि वे चिकित्सकों द्वारा किए जा रहे प्रयासों से पूर्णतः असंतुष्ट थे। सोफे पर लेटा व्यक्ति हमारी बातचीत से व्यथित हो उठ बैठा था तथा जिस जगह यह स्टीकर चस्पा था कि कृपया मोबाइल बंद रखें, उसी के नीचे खड़ा होकर अपने मित्र को हालाते अस्पताल सुना रहा था। परिचित के पैरों में फ्रेक्चर था तथा उसके तमाम रिश्तेदार प्लास्टर खुलने उपरांत पैरों की देखभाल संबंधी देशी उपाय समझा रहे थे। शरद जोशी जी की लिखी पंक्ति "हमारे देश में डॉक्टर से ज्यादा पूछ परख अनुभवी मरीजों की होती है " आज मुझे चरितार्थ नजर आ रही थी।
डॉक्टरों ने लूट मचा रखी है, बहुत पैसा खींच रहे हैं। कल किसी हालत में डिस्चार्ज करवाना है, इस अस्पताल से तो भगवान बचाए, केंटीन में साफ-सफाई नहीं है जैसे सदाबहार और औपचारिक जुमलों की ओलावृष्टि से स्वयं को बचाता हुआ मैं अस्पताल से बाहर आया। घर पहुंच पत्नी को सारा हाल हवाल सुनाया तो वो बोली ...भैय्या को बताया या नहीं, कि प्लास्टर खुलने के बाद पैरों पर 8-10 दिनों तक भेड़ का दूध लगाना है? मैं इस जानकारी को न दे पाने के कारण अफसोस में डूब गया। सोचा अगली बारी जरूर बता दूंगा।