हिन्दी कविता : पीड़ा
मनोज चारण “कुमार”
मेघ बहुत है मन में मेरे,
ऐसे ही कैसे बरसा दूं इनको,
दर्द दबा है, कंठनाल में,
आँखों से कैसे छलका दूं इनको ।
मन-मंदिर की भग्न मूर्ति ,अब मुझको ताने देती है ।
खुद ही खुद से उलझ रहा हूं,
कैसे उलझन दिखला दूं सबको ।
दूर क्षितिज पर लाली निगलने,
कलप रहा है स्याह अंधेरा ।
डूब गया सूरज लाली का, कालिख से कौन बचाए इसको ।
तन की पीड़ा घनीभूत हो,
मन मेरे को सींच रही है ।
अश्रुपूरित स्नेहिल आंखें, इस पीड़ा को सींच रही हैं,
पीड़ा के स्वर सुनाऊं किसको, मैं ये दर्द दिखाऊं किसको।।