पिक्चर अभी बाकी है, द शो मस्ट गो ऑन.....! हिन्दी फिल्मों के मशहूर शो मैन राजकपूर के यह शब्द शायद उनसे भी ज्यादा पद्मश्री सम्मानित मशहूर कॉर्डियोलॉजिस्ट डॉ. केके अग्रवाल की जुबान में उनकी कोरोना से मृत्यु के बाद वायरल हो रहे हैं। 3 मिनट से थोड़ा कम का डॉ. अग्रवाल का संभवतः आखिरी वीडियो एक साथ बहुत सारे संदेश दे रहा है। निश्चित रूप से ऐसे चिकित्सकीय व्यवहार व फरिश्ते कम ही होते हैं। अब वह नहीं है। लेकिन एक बड़ी और जरूरी चर्चा का विषय छोड़ गए हैं।
देश में स्वास्थ्य सुविधाओं की खासकर गांवों की पूरी असलियत पता तो थी लेकिन समझ अब आई। इससे पहले कभी किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि कोरोना के चलते वह दौर भी आएगा जब एक-एक सांस के लाले पड़ जाएंगे।
पहली लहर के बाद, दूसरी लहर के आगाज पर बेफिक्री ने देश में हर कहीं श्मशानों और कब्रिस्तानों को आबाद कर दिया। इतना ही नहीं गांवों में जब चिता सजाने व अंतिम संस्कार के लिए भी संसाधन कम पड़ने लगे तो मजबूरी में शव नदियों में बहाए जाने लगे जिसे भी पुराना चलन बता दबाने की कोशिश हुई। लेकिन कफन की जगह पॉलिथिन किट पहने तमाम शवों ने उसे भी ध्वस्त कर दिया। कुल मिलाकर पूरे देश में जर्जर स्वास्थ्य सुविधाओं की असलियत ने महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर देश की पोल खोल दी। भारत में 72.2 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है और करीब साढ़े 6 लाख गांव हैं। अधिकांश गांवों में डॉक्टर तक नहीं है। गांवों में डॉक्टरों का औसत कुछ यूं है कि 3 में से 2 झोला छाप। इसी से ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की चलती असलियत समझी जा सकती है।
इसमें कोई दो मत नहीं कि कोरोना की दूसरी लहर ने पूरे देश में जबरदस्त तबाही मचाई और उससे भी ज्यादा चिंताजनक यह कि गांवों तक में फैल गई। यह आम लोगों को तो समझ आ रहा है लेकिन खास को पता नहीं क्यों? उससे भी बड़ा सच यह कि कई गांव के गांव चपेट में हैं फिर भी भोले ग्रामीणों को पता तक नहीं कि कोरोना से ग्रस्त हैं? टेस्टिंग को लेकर तमाम सरकारी दांवों की पोल का धुंधला चेहरा काफी डरावना है। रिकॉर्ड में भले ही लोगों की रिपोर्ट निगेटिव आ रही हों जिसके लिए स्थानीय प्रशासन की पीठ थपथपाई जाए। लेकिन नए और बहुरूपिए वैरिएंट की बदलती तासीर भी तो जगजाहिर है। सवाल फिर वही कि कोरोना लक्षणों से हुई मौतों की जांच निगेटिव आने से मौतों को भला कोविड-19 का शिकार क्यों नहीं माना जाता?
यदि यह मुआवजा या किसी अन्य तरह की संभावित भरपाई से बचने के लिए है तो बेहद चिंतनीय है और यदि नहीं तो फिर पोस्ट कोविड से हुई मौतों पर कोविड न होने का क्लीन चिट देना ही अपने आप में बहुत बड़ा सवाल है? सबको पता है कि टेस्टिंग में अब अक्सर निगेटिव आने की हकीकत और संक्रमण की चपेट के बाद पॉजिटिविटी के जिंदा सबूतों की भरमार है। सवाल वही कि यह कोविड नहीं तो क्या है? क्या कोविड में बुखार, खांसी, जुकाम, न्यूमोनिया नहीं होता? तो फिर इन मौतों में कौन सा फर्क है? इसका जवाब किससे पूछा जाए? जबकि तमाम मेडिकल जर्नल और विशेषज्ञ के अनुसार यही लक्षण ही संक्रमितों की पहचान का पुख्ता आधार हैं।
क्या यह आंकड़ों की बाजीगरी है या सच्चाई को चुनौती, नहीं पता। पता है तो बस इतना कि जो मौतें हुई हैं वह कोविड मरीजों से हू-ब-हू मिलती हैं।
भला कौन इंकार कर सकता है कि देश के कोने-कोने से गांवों में अचानक हो रही मौतों के आंकड़े बेहद भयावह हैं। यह असाधारण हैं। इन्हें सहजता से लिया जाना अगले खतरे को न्यौता देना जैसा है। जबकि हम अभी से कोरोना की तीसरी लहर को लेकर कुछ ज्यादा ही डरे हैं या ऐसा दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि निपटने को तैयार हैं? यह तो पता नहीं, पता बस इतना है कि गांव के गांव और वहां के सीधे, साधे ग्रामीण अभी भी कोविड से लक्षणों को सिवाय सर्दी, जुकाम, बुखार से ज्यादा कुछ न समझ नीम हकीमों से इलाज को मजबूर हैं।
गांवों की भयावह तस्वीरें सबसे ज्यादा उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, बंगाल, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र, गोवा, गुजरात, जम्मू-कश्मीर, मेघालय, त्रिपुरा, सिक्किम, मणिपुर, तमिलनाडु जैसे राज्यों सहित लगभग पूरे देश से आ रही हैं। गांवों में कोरोना जिस तरह से पैर पसार रहा है बावजूद इसके अनदेखी करना बेहद चिंताजनक है। गांवों में लगातार मौतों का बढ़ता आंकड़ा बेहद डराता है। ऑक्सीजन व डॉक्टरों की कमी तो, मरीजों की देखरेख में लापरवाही, अधिक बिलिंग को लेकर उप्र, दिल्ली, गुजरात सहित देश को हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने सख्त चेतावनी दी है। लेकिन संसाधन हों तभी तो कुछ नतीजा निकले!
बहरहाल गांवों में हो रही ताबड़तोड़ मौतों को कोविड की श्रेणी में रखना या न रखना, उन पर क्लीन चिट देना अलग विषय हो सकता है। लेकिन जिस गांव के इतिहास में कभी लगातार इतनी मौतें न हुई हों, वहां पर मौतों की बढ़ती फेहरिस्त को नजर अंदाज करना और जांच तक न करना ही क्या कोरोना से जंग जीतना है? भले ही आंकड़ों में कोरोना रोज कम होते जाएं, स्वस्थ होने वालों का आंकड़ा बढ़ता जाए, यह अच्छा है सुकून की बात है। लेकिन हकीकत से मुंह मोड़ा जाए यह समझ से परे है। लगता नहीं कि यह कुछ उसी तरह है जैसा कि पहली लहर के बाद हुआ?
जहां शहरों की बदहाली की तस्वीरें खूब दिखीं वहीं गांवों की बेहाली किसी से छुपी नहीं। शहर और गांव का फर्क इस बार संक्रमण ने नहीं किया। दोनों तस्वीरें एक सी है। शहरों में ऑक्सीजन का टोटा, वेंटीलेटर की कमी, आईसीयू बेड, जीवन रक्षक इंजेक्शन न होने का रोना तो है। वहीं गांव में बीमार अस्पताल और बदबू मारते कमरे, स्टाफ और डॉक्टर की कमी, रोज नहीं आना, दवाओं का टोटा। मतलब गांवों में ऑक्सीजन तो बहुत दूर की बात सर्दी, बुखार की गोली तक नहीं मिलती। यानी सब कुछ ठनठन गोपाल।
ग्रामीण मरता क्या न करता। कुछ अंधविश्वास के सहारे तो कुछ झोलाछापों से पेड़ों के नीचे बोतल लगवाते, तो कहीं पीपल के पेड़ के नीचे चारपाई डाल और कहीं पेड़ पर ही बैठकर लोग प्राण वायु लेते दिखे। कहीं झाड़-फूंक का मनोविज्ञान तो कहीं देशी कोशिशों के बाद भी तड़पती मौतों का तांडव सबने देखा, देख रहे हैं। उसके बाद लकड़ी की कमी ऊपर से सरकारी अनदेखी। हारे थके ग्रामीणों के पास अंततः किसी बड़ी नदी में शव बहाकर मोक्ष की कामना के अलावा शायद कुछ नहीं रह जाता? तमाम पंच, सरपंच भले ही कोविड जैसे लक्षणों से हुई मौतों के हिसाब-किताब की सूची मीडिया को दिखाते फिरें लेकिन सरकारी आंकड़ों में इन्हें वह जगह कहां?
आइए फिर बात करते हैं जो शुरू में अधूरी रह गई थी। पिक्चर अभी बाकी है, द शो मस्ट गो ऑन.....! स्व. डॉ. केके अग्रवाल ने कम शब्दों में बड़ी बात कही है। मैं केके अग्रवाल नहीं, मैं मेडिकल प्रोफेशन में हूं। हमारा जॉब है जुगाड़ू ओपीडी बनाना। मतलब आप 100-100 पेशेंट बुलाना, जिनमें एक तरह के लक्षण हों। उन्हें 15 मिनट में कंसल्टेशन देकर भेज दीजिए। इसी तरह माइल्ड और दूसरे केसेज को इकट्ठा बुलाइए, लेकिन अब वन-वन कंसल्टेशन का समय चला गया है।'
स्व. डॉ. अग्रवाल के एक-एक शब्द के बहुत गहरे मायने हैं। बेहद कम और संतुलित शब्दों में जैसे पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था का आईना दिखा दिया। यह बेहद चिंतनीय है लेकिन सौ फीसदी सच है। जाते-जाते उन्होंने जुगाड़ ओपीडी कहकर स्वास्थ्य सुविधाओं की हकीकत भी कह दी। हो सकता है कि उन्हें कोविड की भयावहता की चपेट में आने से अपनी मौत का अहसास भी हो। डॉ. अग्रवाल ने मरकर भी व्यवस्था की बेबाक और दो टूक सोचनीय स्थिति कहकर अपना बहुत बड़ा फर्ज निभाया। ऑक्सीजन सपोर्ट पर रहते हुए भी जिस पीड़ा को बयां किया, काश वह हमारे जनप्रतिनिधि समझ पाते?
खुश न हों कि संक्रमण घट रहे हैं, मौतों के रिकॉर्ड आंकड़े भी तो बढ़ रहे हैं। अभी भी नींद से जाग जाएं क्योंकि इसी दर्द में डूबे हुए भारतीय चिकित्सक संघ के पूर्व अध्यक्ष, हार्ट केयर फाउंडेशन के पूर्व प्रमुख, 2005 में चिकित्सा क्षेत्र के बेहद प्रतिष्ठित बीसी रॉय पुरस्कार से सम्मानित, इसी वर्ष हिंदी सम्मान के अलावा डॉक्टर डीएस मुंगेर नेशनल आईएमए अवॉर्ड, नेशनल साइंस कम्युनिकेशन अवॉर्ड, फिक्कीस हेल्थरकेयर पर्सनालिटी ऑफ द ईयर अवॉर्ड और राजीव गांधी एक्सीनलेंस अवॉर्ड से सम्मानित होने के बाद वर्ष 2010 में भारत सरकार की ओर से पद्मश्री से सम्मानित व लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड में भी नाम दर्ज करा चुके पद्म श्री स्व. डॉ. केके अग्रवाल ने कोरोना से ग्रसित होने के बाद ऑक्सीजन सपोर्ट पर रहते हुए भी मरीजों की सेवा की और जब उन्हें लगने लगा कि स्थिति ठीक नहीं है तो जाते-जाते चंद शब्दों में बहुत बड़ी बात कह दी पिक्चर अभी बाकी है, द शो मस्ट गो ऑन.....! अभी भी वक्त है काश समझने वाले समझ पाते!
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)