गुजरात और हिमाचल की विधानसभाओं, दिल्ली म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन (एमसीडी) और मैनपुरी (यूपी) की लोकसभा सीट सहित कुछ राज्यों (राजस्थान, ओड़िशा, छत्तीसगढ़) के उप-चुनावों के नतीजों के बाद देश के मतदाताओं का भाजपा के नाम संदेश क्या समझा जा सकता है? सच्चाई है कि प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत छवि ने गुजरात में चुनाव परिणामों के पिछले सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए हैं पर इस सवाल का जवाब मिलना बाक़ी है कि क्या देश के दूसरे हिस्सों में नरेंद्र मोदी का प्रभाव और भाजपा की पकड़ कमजोर पड़ने लगी है! क्या पार्टी स्वीकार करना चाहेगी कि गुजरात में हासिल हुई 156 सीटों की उपलब्धि को हिमाचल, दिल्ली और अन्य राज्यों के उप-चुनावों की हार ने फीका कर दिया है?
सत्तारूढ़ दल गुजरात की जीत के जश्न में अपनी इस पीड़ा को ज़्यादा दिनों तक छुपा नहीं पाएगा कि प्रधानमंत्री के गृह-राज्य की उपलब्धि के मुक़ाबले राष्ट्रीय अध्यक्ष के गृह-प्रदेश हिमाचल में पिछले साल के उप-चुनावों की करारी हार के बाद हाल के चुनावों में भी पार्टी बुरी तरह से हार गई। पंजाब के बाद उसका पड़ौसी राज्य भी विपक्ष की झोली में चला गया।
मोदी 2014 में हिंदुत्व की लहर पर सवार होकर भारी संसदीय बहुमत के साथ देश पर राज करने के लिए गुजरात विधानसभा से दिल्ली में संसद भवन पहुँचे थे। उनके सशक्त नेतृत्व के बावजूद पार्टी दिल्ली की विधानसभा पर तो इतने सालों में क़ब्ज़ा कर ही नहीं पाई, एमसीडी भी पंद्रह साल की हुकूमत के बाद हाथ से निकल गई। प्रधानमंत्री ने हिमाचल में अपनी पूरी ताक़त झोंक दी थी और इधर दिल्ली में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष, राजनाथ सिंह, अमित शाह जैसे दिग्गजों के साथ ही कई मुख्यमंत्रियों और सांसदों ने पूरी ताक़त लगा रखी थी। भाजपा दोनों ही जगहों पर हार गई।
भाजपा के लिए गुजरात की जीत तो चुनावों की घोषणा से पहले से ही तय थी, वहां चुनौती सिर्फ़ 1985 में कांग्रेस के मुख्यमंत्री माधवसिंह सोलंकी द्वारा क़ायम किए गए 149 सीटों के रिकॉर्ड को तोड़ने की बची थी। राहुल गांधी ने चुनाव प्रचार के लिए वहां न जाकर ठीक ही किया। जाते तो भारत जोड़ो यात्रा के प्रभाव की भद्द पिट जाती। गुजरात के मामले में मोदी को वहां की जनता की ओर से इच्छा-सत्ता का वरदान प्राप्त है पर मोदी को गांधीनगर वापस नहीं लौटना है।
चुनाव के नतीजों, विशेषकर हिमाचल जैसे लगभग 96 प्रतिशत हिंदू आबादी वाले छोटे से राज्य (74 लाख जनसंख्या) में कांग्रेस जैसी धर्म-निरपेक्ष पार्टी द्वारा भाजपा के हिंदुत्व के ज़बर्दस्त प्रचार को चुनौती देते हुए 68 में से 40 सीटें प्राप्त कर लेना भाजपा के 2024 के संसदीय संग्राम के लिए कठिन परीक्षा पैदा करने वाला है। हिमाचल में पार्टी की हार पर प्रधानमंत्री की संक्षिप्त प्रतिक्रिया में पीड़ा को पढ़ा जा सकता है कि भाजपा को वहां सिर्फ़ एक प्रतिशत मत ही कम मिले। दिल्ली में तो भाजपा के मतों में तीन फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हो गया (39.09 प्रतिशत) फिर भी आम आदमी पार्टी का वोट शेयर उससे ज़्यादा (42.05 प्रतिशत) रहा।
सवाल यह है कि अगर भाजपा के ख़िलाफ़ एंटी-इंकम्बेंसी कॉमन मुद्दों को लेकर थी तो पार्टी सिर्फ़ गुजरात में ही उसका तोड़ क्यों निकाल पाई? पार्टी दिल्ली, हिमाचल, मैनपुरी और बाक़ी जगहों पर क्यों फेल हो गई? राजस्थान जहां कि गहलोत और पायलट के बीच सत्ता का संघर्ष चल रहा है, वहां के उप-चुनाव में भी कांग्रेस कैसे जीत गई? दूसरे यह भी कि अगर गुजरात की ज़बर्दस्त सफलता के पीछे प्रभावी चुनावी प्रबंधन और टिकटों के बंटवारे में जातिगत समीकरणों का चतुर विभाजन था तो उसी रणनीति को अन्य स्थानों पर क्यों नहीं अपनाया गया? कहा जा रहा है कि गुजरात की चुनावी रणनीति को अब आगे के सभी चुनावों में दोहराया जाएगा।
भाजपा के लिए चिंता का विषय हो सकता है कि मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ की विधानसभाओं के लिए अगले साल होने वाले चुनावों को भी हाल के परिणाम प्रभावित कर सकते हैं। गौर किया जा सकता है कि प्रधानमंत्री की लोकप्रियता को लेकर आयोजित/प्रायोजित होने वाले मीडिया सर्वेक्षणों ने अचानक से रहस्यमय चुप्पी साध ली है। पूछा जा सकता है कि अगर लोकसभा के लिए तत्काल चुनाव करवा लिए जाएं तो नतीजे गुजरात की तर्ज़ पर प्राप्त होंगे या फिर दिल्ली, हिमाचल की तरह के आएंगे?
एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि क्या केजरीवाल की राजनीतिक भूख दिल्ली की जीत और गुजरात की पाँच सीटों से ही शांत हो जाएगी या राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिल जाने के बाद और तेज़ होने वाली है ? गुजरात में 33 सीटों पर केजरीवाल की पार्टी दूसरे नंबर पर रही है। कांग्रेस को राज्य के 33 ज़िलों में से 15 में सम्मान बचाने लायक़ वोट भी नहीं मिले हैं। आम आदमी पार्टी क्या लोक सभा चुनावों में दिल्ली की सातों सीट और गुजरात की सभी छब्बीस सीटों पर भाजपा को चुनौती नहीं देगी ?
दिल्ली में तो विधानसभा और एमसीडी दोनों पर ही अब केजरीवाल का क़ब्ज़ा है। भाजपा और आप के बीच कथित साँठगाँठ की हक़ीक़त भी लोकसभा चुनावों तक सामने आ जाएगी ! हिमाचल विधानसभा चुनावों से आप ने जिन भी कारणों से पलायन किया हो ,वह राज्य से लोकसभा की चारों सीटों के लिए पंजाब के साथ ही चुनाव लड़ने वाली है। परिस्थितियां ऐसी ही रहीं तो घाटा भाजपा को ही होगा।
हिमाचल में भाजपा की हार को इस नज़रिए से भी देखा जाना चाहिए कि कांग्रेस न सिर्फ़ समाप्त ही नहीं हुई है, उसने नई ऊर्जा के साथ सत्ता में वापसी भी करके दिखाई है। मोदी की छवि के सामने कांग्रेस की जीत का नेतृत्व प्रियंका गांधी ने किया है। दूसरी ओर, हिमाचल से दूरी बनाये रखते हुए राहुल गांधी ने अपनी भारत जोड़ो यात्रा' में उन्हीं राज्यों के मतदाताओं के साथ संवाद स्थापित किया है जो 2023 और 2024 के चुनावों के लिहाज़ से कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण हैं। कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ को मिलाकर लोकसभा की 141 सीटें 2024 में दांव पर होंगी।
हाल के चुनाव नतीजों ने जिस एक संशय को उजागर कर दिया है, वह यह है कि भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर एंटी-इंकम्बेंसी का सामना करना पड़ रहा है। केजरीवाल ने प्रधानमंत्री का (चुनावी) घर देख लिया है और भारत जोड़ो यात्रा और हिमाचल ने कांग्रेस में नई जान भर दी है। मैनपुरी में समाजवादी पार्टी की जीत भी यूपी के लिए कम महत्वपूर्ण नहीं है। देश की राजनीति के लिए अगले बारह महीने काफ़ी एक्शन के होने वाले हैं।
उपसंहार : प्रधानमंत्री के करिश्माई व्यक्तित्व को अगर छोड़ दिया जाए तो भाजपा के पास चुनाव जिता सकने वाले नेताओं की काफ़ी कमी है। यह कमी आगे के चुनावों में और खुलकर सामने आ सकती है! हिमाचल में भाजपा की हार पर राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की कार्यशैली के कटु आलोचक पार्टी के 88 वर्षीय संस्थापक नेता शांताकुमार से मीडिया ने प्रतिक्रिया प्राप्त नहीं की!