निभा चौधरी
आज के दौर में हमारी सियासत दो लोकोक्ति- कमजोर की बीवी सारे गांव की भौजी औऱ समरथ को नहीं दोष गुसाईं- के बीच सिमट-सी गई है। एक तरफ राहुल गांधी गांव की भौजी बने हुए हैं तो दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी एक ताकतवर सियासतदां। राहुल गांधी का सोशल मीडिया पर मजाक उड़ाया जा रहा है तो नरेन्द्र मोदी के गोवा से लेकर मणिपुर तक के हरेक कदम को महिमामंडित किया जा रहा है।
विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद राहुल गांधी को बिन मांगे काफी सलाह-मशविरा मिल रहा है। कोई इस्तीफे की मांग कर रहा है तो कोई बीमार मां को विदेश से न लाने की भी सलाह दे रहा है। यह एक अलग बात है कि इन अकस्मात् शुभचिंतकों ने अच्छे दिनों में कांग्रेस का दोहन तो खूब किया है लेकिन पार्टी को कभी भी मजबूती नहीं दे पाए।
अब मणिशंकर अय्यर को ही लें- 1996 के बाद से एक भी चुनाव न जीते और न ही अपने गृह चुनाव क्षेत्र में कांग्रेस को एक मजबूत संगठन दे पाए, लेकिन राहुल गांधी से इस्तीफा मांगने में वे सबसे आगे चले आए। इसी तरह प्रिया दत्त की नाक के नीचे स्थानीय चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया लेकिन उत्तर प्रदेश चुनावी नतीजों के बाद ये कहने से नहीं चूंकी कि कांग्रेस संगठन में तब्दीली की जरूरत है।
प्रिया दत्त की सलाह को नकारा नहीं जा सकता। लेकिन सवाल है क्या तब्दीली हो। आज जनता के बीच कांग्रेस का नेता नजर नहीं आता। श्रीनगर से केरल औऱ मणिपुर से गोवा तक एक भी जनाधार वाला नेता नहीं बचा। और अगर कांग्रेस नेता कहीं दिखता भी है तो वो या तो टीवी पर या ट्विटर पर होता है।
दस जनपथ के इर्द-गिर्द और वातानुकूलित कमरों में आराम कुर्सी पर बैठे हुए कांग्रेस के वे ही नेता हैं जो शायद म्यूनिसिपेलटी का चुनाव भी नहीं जीत सकते। लेकिन इन मुट्ठीभर लोगों के हाथ में पूरी पार्टी की बागडोर होती है। नतीजतन गोवा जैसा हश्र होता है जहां कांग्रेस बतौर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरती तो है लेकिन सरकार नहीं बना पाती। उसके बाद भले ही ट्वीट कर आप अपने को बेकसूर साबित करें लेकिन यह एक सवाल सबके जेहन में उठता है कि कैसे एक जनाधारविहीन नेता एक लोकप्रिय नेता की तलाश कर पाएगा।
बहरहाल, कामयाबी के सैकड़ों वालिद होते हैं और नाकामयाबी हमेशा अनाथ। कांग्रेस की शर्मनाक हार भी आजकल अनाथ है। सारा ठीकरा राहुल गांधी के सर फोड़ा जा रहा है। कुछ लोग नैतिक जिम्मेवारी लेते हुए इस्तीफा भी दे रहे हैं। तो चंद लोग पार्टी को अलविदा कहने की तैयारी में हैं। बहरहाल ये ऐसा वक्त नहीं है जब इस पराजय के लिए किसी ऐसे व्यक्ति को बलि का बकरा बनाए या फिर कांग्रेस की नीतियों को कसूरवार ठहराए। यह वक्त है चिंतन का और मंथन का। उन कमियों की पहचान करने की जिसकी वजह से आज कांग्रेस को शर्मनाक पराजय से रूबरू होना पड़ा।
सबसे पहले राहुल गांधी को अपनी मां सोनिया गांधी से ही सीख लेनी चाहिए। सीताराम केसरी और नरसिम्हा राव के जमाने में जब कांग्रेस रसातल की ओर तेजी से बढ़ रही थी तब सोनिया गांधी ने तालकटोरा स्टेडियम में कमान अपने हाथों में लिया था। कांग्रेस को सत्ता के गलियारे में पहुंचाया। आज राहुल के पास कतई ये गुंजाइश नहीं है कि वे टाल-मटोल या ना-नुकुर करें। पार्ट-टाइम नेतृत्व के दिन भी लद गए। अब कमान हाथ में लेनी ही होगी। साथ में एक रिसर्च टीम, थिंकटैंक, सोशल मीडिया टीम, फीड-बैक टीम की जरूरत भी होगी। रोज ही कम से कम दो घंटा एआईसीसी मुख्यालय में भी बैठने की ऱणनीति बनानी होगी। नए चेहरों के साथ नई रणनीति पर काम करना होगा। तभी जाकर कांग्रेस को फिर से अखाड़े में उतारा जा सकता है।
गठबंधन चुनावी रणनीति ने कांग्रेस को काफी कमजोर किया है। कई जिलों से तो कांग्रेस का नाम लेने वाला भी कोई नहीं है। और जिन जिला मुख्यालय में कांग्रेस है वहां बूथ स्तर या ग्राम स्तर पर कार्यकर्ता नहीं हैं। कांग्रेस की सहयोगी संस्था जैसे युवा कांग्रेस, सेवा दल, एनएसयूआई, किसान, मजदूर और बुद्धिजीवी युनिट तो लगभग समाप्ति पर हैं या सिर्फ कागजों और फाइलों मे है। बूढ़ी हो चली इस 160 साल पुरानी पार्टी में नौजवानों को शामिल कर उन्हें जिम्मेदारी देने का वक्त आ गया है। इस बार उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के सातों विधायक नौजवान और पढ़े-लिखे हैं। उन्हें पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी मिलनी चाहिए और कम से कम अपने चुनावी क्षेत्र के इर्द-गिर्द कम से कम 20 विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस को फिर से खड़ा करने की रणनीति पर काम करना होगा।
कांग्रेस को अपनी रणनीति में भी परिवर्तन लाने की जरूरत है। पिछले चार साल से या फिर कहें कि अन्ना हजारे- रामदेव -श्रीश्री रविशंकर-आरएसएस-केजरीवाल गैंग ने एक सुनियोजित तरीके से कांग्रेस को भ्रष्टाचार के मसले पर घेरा। एक प्रोपागांडा वार चलाया गया। और वो इल्जाम का दौर अभी तक चल रहा है। अब वक्त आ गया है जब कांग्रेस को भ्रष्टाचार के सांड को सींग से पकड़ना होगा। चुनौती देनी होगी कि अब यह इल्जाम बर्दाश्त के काबिल नहीं है। और हरेक ईंट का जवाब पत्थर से देना होगा। रक्षात्मक नहीं बल्कि आक्रामक रुख चाहिए। साथ ही अगर कोई कांग्रेसी भ्रष्टाचार में लिप्त पाया जाता है तो उसे बेझिझक दंडित करने का साहस भी होना चाहिए।
साथ ही कांग्रेस को अपनी अल्पसंख्यक नीति में भी बदलाव लाने की जरूरत है। बाबरी विध्वंस के बाद से अल्पसंख्यकों ने कांग्रेस को अभी तक स्वीकार नहीं किया है। उनकी सियासी बिसात पर अभी भी कांग्रेस एक पीटा हुआ प्यादा ही है। और कांग्रेस है कि इस वोट-समुदाय को अभी तक मनाने पर आमदा है। इसका नतीजा यह हो रहा है कि अल्पसंख्यक तो नहीं ही आ रहे, बहुसंख्यक की भी नाराजगी कांग्रेस को झेलनी पड़ रही है। कांग्रेस को अपनी नीति में अल्पसंख्यकों के लिए किसी अतिरिक्त प्रेम के इजहार से बचना होगा। 60-70 के दशक के अल्पसंख्यक मतदाता और आज के मतदाता में काफी अंतर है। अब अल्पसंख्यक वोट भी मुद्दों पर मिल रहा है न कि रेवड़ियों पर।
बहरहाल, चुनावी-दंगल का खेल लगातार चलता रहता है। इस खेल का 'द एंड' कभी नहीं होता और न ही बड़ी से बड़ी चुनावी सफलता अगले चुनाव में सफलता की गारंटी देता है। 1984 में कांग्रेस को 414 सीटें मिली थीं जो अगले 1989 के चुनाद में 197 पर आकर रुक गई थी। 1977 में जनता पार्टी की लहर औऱ ढाई साल बाद 1980 में ही इंदिराजी की वापसी। नि:सदेह यह संभावनाओं का खेल है। और इन संभावनाऔं को हमें जीवित रखना होगा, क्योंकि देश और लोकतंत्र के लिए कांग्रेस का मजबूत होना बहुत जरूरी है।