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प्यारा बचपन,निराले खेल [भाग 3] : देसी और जुगाड़ के खेल-खिलौनों का अपना मजा है...

प्यारा बचपन,निराले खेल [भाग 3] : देसी और जुगाड़ के खेल-खिलौनों का अपना मजा है... - childhood games
खिलौने वही सच्चे होते हैं जिनके साथ खेलते समय उनके टूटने का भय न हो।नए युग के अधिकांश महंगे खिलौनों के साथ ये डर मुफ्त में चला आता है। खेलने से ज्यादा इन्हें सम्हालकर खेलने की हिदायत का जोर आनंद में बाधा बना रहता है। बच्चे निडर भाव से खेलें, आनंद लें, खुल कर खुशियां बटोरें तभी तो खेल हुआ। खिलौने हुए।
 
यहां जो भी हमारे खेल-खिलौने हुआ करते थे सभी ज्यादातर- कागज, गत्ते, गुब्बारे, स्केल, माचिस, सिगरेट की डब्बी, तार, डंडियां, बांस की पट्टियां, लिफाफे, रबरबेंड, मिट्टी, पत्ती, टहनी, सरकंडा, बोतल के ढक्कन , पॉलिश की डिब्बियां, मोटा धागा, डोरियां, इमली के बीज, नाड़ी, साबुन, रंग, रस्सी, बोतल, रेती, कंकड़, पत्थर, धागे की खाली रील, लकड़ी की रील, पुराने कपड़े, मोज़े, सेल, पुराने पेपर, रंगीन पेपर, पेन्सिल के टुकड़े, कॉर्क, पुराने दीपक, पुरानी पतंगों की लकड़ी की ताड़ी, मोती, बटन, परमल, धानी, पुरानी किताबों के चित्र अन्य कई सामान जो काम में न आ रहे हों उन्हीं से ये खेल और खिलौने तैयार हो जाते हैं।

न टूटने का डर न गुम हो जाने की चिंता। फिर से बन जाए, किसी नए रूप, नए जुगाड़ के साथ। यहां तक कि गेंदें भी कपड़ों की पोटलियों से बना ली जातीं थी। और गत्ते से बेट, रेकेट।
 
पॉलिश की डिब्बी को एक डंडी में जिसकी लम्बाई हाथ से जमीन तक की हो, ले कर बारीक़ कील से डंडी में ठोक लेते। ध्यान रखते की डिब्बी निर्बाध रूप से गोल घूम पा रही हो। फिर पूरे अभी तो केवल घर में ही,(लॉक डॉउन जो है) पूरे मोहल्ले को गाड़ी चला कर नाप लिया करते थे। इसी डिब्बी से घूमने वाला झुनझुना भी बना लिया करते।
 
बचपन बड़ा सुहाना हुआ करता है। दीन-दुनिया से बेखबर। कोई मन में खोट और ऊंच-नीच की भावना नहीं। इससे निर्मल उदाहरण और क्या होगा कि एक पटिये पर चार पहिये जोड़ लेते। ये पहिये गाड़ी की दशा के अनुरूप डब्बे के ढक्कन या डब्बों के भी हो सकते या सेल के भी। आगे एक नकुचा लगा लेते। जिसमें रस्सी या कपड़े का बड़ा सा चिन्दा जो गाड़ी को आसानी से खींच ले जा सके। एक बच्चा उस गाड़ी पर बैठ कर आसानी से सवारी कर ले।

दूसरा उसे खींचता हुआ ले चले। उस दौर में कुष्ठ रोगी ऐसी गाड़ियों का इस्तेमाल करते थे जो भिक्षा मांगने के लिए निकला करते। पर बच्चे तो होते ही निष्पाप हैं। सारे दुर्गुण तो बड़े होने पर आते हैं जो जीवन की सहजता को बेरहमी से निगल जाते हैं। उस समय ये गीत बड़ा पापुलर हुआ था। यही गीत गा कर वे भी भिक्षा मांगने निकलते थे सो - “दे दाता के नाम तुझको अल्ला रखे, तुझको रखे राम तुझको अल्लाह रखे...” और “गरीबों की सुनो वो तुम्हारी सुनेगा, तुम एक पैसा दोगे वो दस लाख देगा...” जैसे गीतों को गा-गा कर हम उनकी नकल से अपनी गाड़ी घुमाया करते।

बारी-बारी से सवारी का आनंद उठाते। जब तक कि घर का कोई सदस्य हमारी इस हरकत पर हंसते हुए, खिल्ली उड़ाने के भाव से चपत न लगा दे। पर हम तो आनंद में सराबोर होते। इन सामाजिक खाइयों से कोसों दूर। काश ये खाइयां कभी भी इंसानियत के बीच न होतीं तो दुनिया कितनी अलग होती।
 
हम धरती निवासी तरह-तरह की आवाजों-ध्वनियों के प्रति बड़ा आकर्षण भाव रखते हैं। पशु-पक्षियों से लेकर पानी, बारिश, बादल, पेड़, हवा की सरसराहटों आदि तक की आवाजें हमें अपने मोहपाश में जकड़ती हैं। इन आवाजों से हमारा अनादि काल से नाता है।

आज इन्हीं सबकी बात करते हैं। हम आम की गुठलियों को फोड़ कर उसका गीर(पल्प) निकालते, उसे किसी सीमेंटेड या खुरदुरे सरफेस पर बड़ी कुशलता से पानी के छींटे दे कर घिसते।

इस काम में थोड़ी कुशलता या किसी माहिर की जरुरत लगती। इस तरह एक बाजा तैयार होता जो आम्बशंख कहलाता। फूंक मारने पर ये शंख सी ध्वनि निकालता। पीपड़ी/पिपाड़ी भी बना ली जातीं कई प्रकार के पत्तों से। ध्यान रखा जाता कि पत्ते जहरीले न हों। कीड़े न लगे हों।

कनेर या ऐसे ही अन्य किन्हीं पत्तों की पिट-पिट भी बना लेते। दो लम्बी पत्तियां दोनों हाथों में पकड़ कर उन्हें पास-दूर, एक रिदम में जल्दी-जल्दी करते। कागज की, पेन के ढक्कनों की, कांच की बोतलों की, पतली भोंग्लियों की भी सिटी बना डालते। कठपुतली के खेलों में बजने वाली तीखी तेज आवाज निकालने वाली पिपड़ी किसे याद नहीं होगी? वह भी दो प्लेन चिकनी लकड़ी की पट्टी से बना लेते।

गुब्बारे में कंकड़ भर कर फुला लेते, झुनझुना हो जाता, खिलौने बना लेते, बंदर, चिड़िया, हिट-मी,मूंछों वाला बादशाह। साथ ही उसे फुला कर, फुग्गे को मुंह की ओर से इस एंगल से पकड़ कर हवा निकालते कि एक मधुर आवाज निकलने लगती। अगर उसे हवा में छोड़ देते तो वही गुब्बारा भटकती आत्मा सा बेतरतीब घूमता फिरता। यदि फूट/फट जाते तो उसी को चिकोटी में (छोटी-छोटी जीरो बल्ब सी फुगियां) बदल लेते।

आखिर तक उपयोग में लाते उसकी पत्तियों से फिर से पीपड़ी बना डालते। है न मजा। किसी भी चीज की कोई फिजूल खर्ची नहीं। आनंद की कोई सीमा नहीं। न ही कोई टूटने फूटने का डर। बस यही है कि सावधानी रखनी होती थी की कहीं गले में अटक/चिपक/फंस ना जाएं।
 
इनके अलावा कागज के पटाखे फोड़ा करते थे। कोई भी लिफाफा, जो बाद में प्लास्टिक की थैली में बदल गया, को फुला कर जोर से फोड़ देना, किसी भी गोल आकार या जैसे भी हो बस एक रिंग के शेप में बन जाए ऐसे कई सारे डिब्बे (थोड़े नर्म, ज्यादा कड़क नहीं) के ढेर लगा लेते और अपने पैर मोड़ कर घुटनों पर रख-रख कर जो फट-फट फोड़ना शुरू करते तो लगता जैसे दीपावली आ गई हो।

वैसे ये सिगरेट के डिब्बे से ज्यादा बढ़िया तरीके से होता था। मुट्ठी को गोल कर अंगूठे की ओर बने रिंग के ऊपर किसी पत्ते को रख के जोर से दूसरे हाथ से मार कर फोड़ने से भी जोर की आवाज निकलती। कागज को बारीक़ फोल्ड करके बीच में से दो हिस्से कर के अंग्रेजी के ‘वाय’ की तरह बना कर जोर जोर से दो ऊंगलियों के बीच में से निकालने पर तेज आवाज कौन भूल सकता है।

अपने स्कूली जीवन में सभी इस शैतानी को चलती क्लास में करते, साथ ही कागज के पन्ने के बने पटाखे तो अभी भी याद होंगे। उसे तो पोल्यूशन फ्री दीपावली के लिए विज्ञापनों में भी इस्तेमाल किया है। दीपावली से याद आया फुलझड़ी के तारों को ठंडा होने के बाद साल भर तक संभाल कर रखा जाता था...
 
इनसे खिलौने बनने में सहायता तो मिलती ही पर घरेलू मरम्मतों में भी उपयोगी होते। बड़े वाले दीपकों के खिलौने कौन भूल सकता है? ढब-ढब गाड़ी, जो उन बड़े दीपकों पर कागज से टेबल की तरह कवर कर के ट्रेंगल सरकंडे पर कस देते। डंडियां भी जो एक घिर्री से लगी होतीं। डंडियों में आगे की ओर उस भाग में जो दीपक के ऊपर लगे कागज पर टकराएंगे, मिटटी के गोले माप के हिसाब से लगा दिए जाते। ऐसे ही सरकंडों के ट्रेंगल में मिटटी के या किसी और चीज के पहिये लगा दिए जाते। गाड़ी बन कर तैयार। 
 
इसी तरह सारंगी भी बना ली जाती। आज भी ग्रामीण अंचलों में और शहरों में कभी कभी ये देखने को मिल जातीं हैं। पर तेजी से विलुप्त हो रही है। महान फ़िल्मकार वी.शांताराम जी की फिल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’ के प्रसिद्ध गीत ‘सैय्यां झूठों का बड़ा सरताज निकला...’ को अभिनेत्री संध्या पर फिल्माने के लिए इन्हीं दोनों चीजों का बहुत सुंदर उपयोग भी किया है। फुर्सत में हों तो इन्हें बनाएं, बच्चों के साथ मिल कर बनवाएं।

आज की बातें यहीं रोकते हैं। जब तक हो सके तो इन खेल-खिलौनों का आनंद लीजिए। कुछ नया, कुछ अच्छा कीजिए जो आपको सुकून दे। जो आप इस जीवन की भागमभाग में न कर पाए हों।

नकारात्मकता को सकारात्मकता में बदल देने का जादू है अपने इन देसी कबाड़-जुगाड़ खेल-खिलौनों में। घर में रहें, सुरक्षित रहें, कोरोना को हराना है का मंत्र जाप कीजिए और पूरी शिद्दत से इसे सपरिवार हराने के लिए वचनबद्ध रहिए।
 
फिर मिलेंगे अगली कड़ी में कुछ आनंददायक खेल-खिलौनों के साथ...जो थोड़े समय के लिए ही सही पर हमें एक नई दुनिया की सैर करा लाते हैं...