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Last Updated : बुधवार, 22 अक्टूबर 2025 (16:01 IST)

कई साफ संकेत दे रहे हैं बिहार के चुनाव

Bihar election
बिहार विधानसभा चुनाव की घोषणा के पहले ही राजनीतिक दलों ने करो या मरो जैसा प्रश्न बनाने की राजनीति की है। राहुल गांधी ने‌ महीनों पहले से ही चुनाव आयोग पर भाजपा के पक्ष में काम करने का आरोप लगाना शुरू किया। उन्होंने डर पैदा किया कि महाराष्ट्र में चुनाव आयोग ने भाजपा को जीताने के लिए मतदाताओं के नाम हटाए और जोड़े तथा मतदान के दौरान आंकड़ों तक में हेरा फेरी की और यही बिहार में दोहराया जाएगा। बड़ी तैयारी से दो बड़ी पत्रकार वार्ताएं आयोजित हुई। 
 
स्वयं उन्होंने बिहार में वोटर अधिकार यात्रा निकाली। इन सबका एक उद्देश्य यह था कि किसी तरह बिहार के लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार और भाजपा तथा चुनाव आयोग के विरोध में आएं, विद्रोह करें, सड़कों पर उतरें और आगामी चुनाव में उसे पराजित किया जा सके।

चुनाव आयोग द्वारा पूरे देश के लिए निर्धारित विशेष मतदाता परीक्षण अभियान या एस आई आर की शुरुआत बिहार से करने के कारण भी यह चुनाव शीर्ष राष्ट्रीय मुद्दा बना रहा। हालांकि अंतिम सूची में सारे आरोप धराशायी हुए, किंतु इसका एक परिणाम यह हुआ कि बिहार विधानसभा चुनाव पिछले चुनावों से इस मायने में काफी भिन्न हो गया है कि देश ही नहीं भारत में रुचि रखने वाले दुनिया की भी दृष्टि यहां लगी हुई है। 
 
बिहार के जमीनी हालात स्पष्ट करते हैं कि राहुल गांधी, कांग्रेस और अन्य पार्टियों के प्रचंड शोर के बावजूद धरातल पर तथाकथित वोट चोरी मुद्दा बिल्कुल नहीं है। पिछले दो वर्षों से ज्यादा समय से बिहार में यात्रा कर तीसरी शक्ति के रूप में खड़े होने की कोशिश कर रहे जन सुराज पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर ने इसका संज्ञान तक नहीं लिया।

चुनाव प्रबंधक होने के कारण उन्हें मतदाता सूचियों, चुनाव की प्रवृत्तियों और परिणाम की अन्य अनेक नेताओं से ज्यादा अधिकृत जानकारी है। उनके एसआईआर के प्रति निरपेक्ष भाव का संदेश लोगों में यही गया कि राहुल गांधी, तेजस्वी यादव या गठबंधन के उनके अन्य साथी जानबूझकर चुनाव आयोग के साथ भाजपा के वरुद्ध लोगों के अंदर आक्रोश पैदा करने की रणनीति पर चल रहे हैं। इस रणनीति का विपक्ष के लिए सबसे बड़ी क्षति हुई कि चुनाव पूर्व के एक महत्वपूर्ण काल में बिहार सरकार के विरुद्ध संभावित मुद्दे भी उभर नहीं सके।
 
जो मुद्दे है नहीं उसे बड़े-बड़े झूठ के आधार पर आप आरोप लगाते हैं, उत्तेजना पैदा करते हैं तो आम लोगों में विरुद्ध प्रतिक्रिया होती है और जमीन पर आपकी विश्वसनीयता कमजोर होती है। बिहार में एसआईआर को लेकर लोगों के अंदर यही भाव है और इसका चुनाव पर भी न्यूनाधिक असर पड़ना है। राजद और तेजस्वी यादव को इसका भान हुआ तो उस यात्रा के बाद बिहार अधिकार यात्रा में निकलें।

नाम में अधिकार यात्रा शब्द रहा लेकिन वोटर की जगह बिहार आ गया। इसमें उन्होंने सामान्य मुद्दे अवश्य उठाएं। वोटर अधिकार यात्रा के बारे में राजद की प्रमुखता वाले गठबंधन के समर्थकों की टिप्पणी यही है कि जितनी ऊर्जा, संसाधन उसमें लगाए गए उससे वास्तव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को ही लाभ हुआ।
 
अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय वातावरण ने भी विधानसभा चुनाव को हमेशा प्रभावित किया है और बिहार में इसका असर दिख रहा है। कुछ समय से दुनिया ऐसे मोड़ पर है जहां भारत के हर व्यक्ति के अंदर राजनीतिक निर्णय को लेकर सतर्कता बढ़ी है।

नेपाल की हिंसक उथल-पुथल के बाद आयोजित होने के कारण बिहार चुनाव इससे बिल्कुल अप्रभावित नहीं हो सकता। उसके पूर्व बांग्लादेश तथा श्रीलंका और इसी तरह आंदोलन में भारत के अंदर ऐसे ही करने के साफ दिखते प्रयासों के कारण बहुत बड़े वर्ग को शांति, स्थिरता, विकास और सुरक्षा पर ज्यादा संवेदनशील बनाया है। ऑपरेशन सिंदूर और उसके बाद कुछ देशों के भारत विरोधी रवैये से राष्ट्रवाद का भाव ज्यादा प्रखर हुआ है। 
 
बिहार क्षेत्रवाद की सोच से राजनीतिक व्यवहार करने वाला राज्य नहीं रहा। पूरे देश में हिंदुत्व के आधार पर भाजपा का एक ठोस वोट बैंक बन चुका है और चुनावों में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वक्फ संशोधन कानून पर मुस्लिम संगठनों के साथ राजद, कांग्रेस आदि के खड़ा होने तथा मुस्लिम कट्टरपंथ की घटनाओं पर उनकी चुप्पी के विरुद्ध गैर मुसलमानों के बड़े वर्ग में प्रतिक्रिया है।

कांग्रेस के कारण विपक्ष जहां एसआईआर में फंसा रहा वहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा और केंद्र सरकार ने ऑपरेशन सिंदूर से लेकर, अपनी विदेश नीति, रक्षा नीति को लोगों तक पहुंचाने के अभियान चलाएं, प्रधानमंत्री ने लाल किले से लोगों को सीमा के साथ धार्मिक और नागरिक स्थलों की सुरक्षा के प्रति सचेत करते हुए सुदर्शन चक्र की योजना रखी, सरकार जीएसटी में कटौती का बड़ा कर सुधार लेकर आ गई जिससे परिवारों को खर्चे में थोड़ी राहत मिल रही है। भाजपा इसे लेकर जनता के बीच गई जिसमें बिहार भी शामिल है। हालांकि भाजपा-जदयू और राजग केवल इन्हीं मुद्दों पर केंद्रित नहीं है। 
 
सच कहें तो विपक्ष के अभियान के समानांतर प्रधानमंत्री लगातार रेल, सड़क, हवाई अड्डा, अस्पताल, कॉलेज, स्कूल सहित आधारभूत संरचना एवं विकास परियोजनाओं का लोकार्पण व शिलान्यास करते रहे तो दूसरी ओर कई योजनाओं में महिलाओं, किसानों, मजदूरों आदि के खाते में सीधे रकम स्थानांतरित हुई।

इनमें मुख्यमंत्री रोजगार योजना के तहत करीब 1 करोड़ महिलाओं के खाते में भेजे गए 10 हजार रुपए तथा रोजगार में निवेश करने के प्रमाण पर भविष्य में दो लाख देने के वायदे से भी वातावरण बनाया है। यह कितना उचित है अनुचित इस पर बहस हो सकती है किंतु महिलाओं के बड़े वर्ग का वोट इससे राजग की ओर आने की संभावना बढ़ गई है। इसी तरह जीविका दीदी ने भी राजग के पक्ष में महिलाओं का सुदृढ़ीकरण किया है।
 
बिहार में पिछले विधानसभा चुनाव के समय तेजस्वी यादव की जबरदस्त लोकप्रियता थी, किंतु उपमुख्यमंत्री बनने के बाद जबसे विपक्ष में आए हैं वैसे स्थिति बिल्कुल नहीं है। बार-बार पाला बदलने और बीच के काल में तिलमिलाहट भरे वक्तव्यों और व्यवहारों से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की छवि कमजोर हुई थी।

एक बड़ा समूह उनसे छुटकारा भी चाहने लगा था। पिछले सात आठ महीना में स्थिति काफी बदली है। भाजपा की नीति इस समय दिल्ली तथा उसके पूर्व हरियाणा, महाराष्ट्र में मिली जीत को कायम रखने की है। इसलिए वह किसी किस्म का जोखिम नहीं लेना चाहती। नीतीश कुमार को लेकर भाजपा के स्वर पूरी तरह बदल गए। 
 
एक-एक नेता उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ने तथा पुनः उन्हें ही मुख्यमंत्री बनाए जाने का बयान दे रहे हैं। इसमें तेजस्वी यादव या अन्य नेताओं का यह कहना कि भाजपा चुनाव जीतने के बाद उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाएगी जनता के गले नहीं उतर रहा। प्रशांत किशोर ने लगातार अपनी यात्राओं , सभाओं और वक्तव्यों से बिहार से जुड़े अनेक आवश्यक, लोगों को स्पर्श करने वाली मुद्दे उठाए। इससे जन जागरण हुआ है।

उन्होंने लालू यादव परिवार से लेकर भाजपा के प्रमुख नेताओं पर भी तीखे हमले किए हैं। बावजूद बिहार का वर्तमान राजनीतिक समीकरण बदल जाने की संभावना जमीन पर बिल्कुल नहीं दिखती है। मतदाताओं के सामने प्रश्न है कि केंद्र में नरेंद्र मोदी और प्रदेश में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार को कायम रखकर राजनीतिक स्थिरता, सामाजिक न्याय, शांति, विकास, मुस्लिम कट्टरपंथ का सरकार द्वारा नियंत्रण और सुरक्षा के प्रति निश्चिंत रहें या कुछ स्थानीय मुद्दों के कारण उनके विरुद्ध जाएं? इस सोच में विपक्ष के पक्ष में बहुमत मत नहीं दे सकता। 
 
बिहार में जातीय सामाजिक समीकरण को प्रमुख कारक माना जाता रहा है। किंतु बिहार में हमने 2005, 2010, 2014 और 2019 में बहुत बड़ी संख्या में लोगों को जातीय सीमाओं से उठकर मतदान करते भी देखा है। वैसे अभी तक प्रदेश में नीतीश कुमार और केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले राजग के सामाजिक समीकरण में भी क्षरण के संकेत नहीं हैं तो दूसरी ओर राजग नेतृत्व वाले गठबंधन में नए प्रभावी सामाजिक वर्गों के जुड़ने का भी कोई प्रमाण नहीं। 
 
यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पिछले चुनाव में चिराग पासवान की लोजपा का राजग से बाहर आकर 137 सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करने के परिणामस्वरूप राजद गठबंधन को समतुल्य मत प्रतिशत एवं सीटें प्राप्त हुईं। लोजपा गठबंधन में है तथा जीतन राम मांझी के हम एवं उपेंद्र कुशवाहा के लोकतांत्रिक मोर्चा के कारण शक्ति बढ़ी है। राजद नेतृत्व वाले गठबंधन में पशुपति पारस, विकासशील इंसान पार्टी और झारखंड मुक्ति मोर्चा इसकी भरपाई करेंगे ऐसा नहीं लगता।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)