सबको लगता है कि सोशल मीडिया की वजह से लोग एक-दूसरे से अधिक जुड़ सके…यह एक सत्य है लेकिन दूसरा सत्य यह भी है कि वह एक सैलाब था, लोग बहुत तेजी से एक-दूसरे से जुड़े थे और उतनी ही तेज़ी से उससे विकर्षित भी होने लगे, उसे आभासी दुनिया कहने लगे। अबके लोग फिर जुड़े, माध्यम तो सोशल मीडिया ही था लेकिन वजह बनी न भूतो, न भविष्यति ऐसी यह महामारी, जिसने लोगों को घर बैठने पर मजबूर कर दिया।
भाग-दौड़, दौड़-भाग, थियेटर-मॉल्स के ग्लैमर को भुला लोगों ने घर बैठकर पुराने दिनों की जुगाली की, पुराने एलबमों को खंगाला और पुराने दोस्तों को तलाशा…ऐसे तलाशा जैसे एक-दूसरे को फिर खोना न चाहते हों।
अपना शहर इंदौर हम सहेलियां भी आपस में ऐसे ही मिलीं…एक से दूसरे से संपर्क साधते हुए। कुछ सहेलियों से कुछ मित्र जुड़े थे और उन मित्रों ने इन सहेलियों को सोशल मीडिया के समूह में जोड़ लिया…यह उन दोस्तों का समूह था जिन्होंने अपनी प्राथमिक पढ़ाई एक विद्यालय, एक कक्षा में की थी। सबकी बातों में उनके अपने शहर इंदौर से जुड़ी यादों का कारवां चल पड़ा। सहेलियां तो फ़ोन पर एक-दूसरे से बतियाने लगी थीं लेकिन आज से लगभग तीस साल पहले के माहौल में लड़के-लड़कियां इतनी खुलकर बात नहीं करती थीं तो वह झिझक अब भी कायम थी।
अपने शहर इंदौर से हम मित्र भौगोलिक अर्थों में दूर हो गए थे, इसका लाभ भी था, नई दुनिया ने सोच के नए किवाड़ खोले थे। नई सोच के साथ सबसे पहला फ़ोन दूर देश अमेरिका से सॉफ्टवेयर इंजीनियर अमित जोशी का आया। उसके कुछ दिनों बाद वियतनाम-थाईलैंड तक अपना व्यापार फैला चुके ललित गुरबानी का फोन आया और फिर बैंगलुरू की आईटी कंपनी से जुड़े भुवन सरवटे का।
हतप्रभ, प्रसन्न, संतुष्ट
सबकी बातों में इंदौर था, पुराने मोहल्ले की पुरानी गलियां थीं, तीस सालों में इनमें से किसी से मुलाकात नहीं हुई थी लेकिन बातों का सिलसिला जब चल पड़ा तो ग्रुप कॉल भी होने लगीं और गूगल मीट भी। बातों-बातों में ही एक दिन भुवन सरवटे ने कहा कुछ अलग करना है। मैंने तपाक् से कह दिया मेरी कविताओं को संगीतबद्ध कर दें। यह बहुत ही सामान्य-सी बातचीत थी। इन वर्षों में न उसने मेरी कविताओं को पढ़ा था, न मैंने उसके संगीत को सुना था…
बस दोनों को इतना पता था कि स्कूली दिनों में वो गाता था और मैं लिखती थी लेकिन दोनों ओर से विश्वास इतना पक्का था जैसे दोनों जानते थे कि दोनों कुछ अच्छा ही कर सकते हैं। बात आई-गई भी हो जाती। मैंने उसे कुछ कविताएं ई-मेल कर दीं पर उन कविताओं को गीतबद्ध करना कठिन था। तभी एक नई रचना ने औचक मुंह बाहर निकाला और तुरत-फुरत में वो भी उसे भेज दी। कुछ दिनों बाद उसने मुझे और अमित को उसकी धुन बनाकर सुनवा दी…मैं हतप्रभ थी, अमित प्रसन्न और भुवन संतुष्ट।
पहला गीत
गीत संगीतबद्ध हो गया था लेकिन अब उसका क्या किया जाए, मित्र द्वय ने सलाह दी मेरे नाम से ही यू-ट्यूब पर डाला जाए। अब सवाल था कि गीत स्त्री की ओर से था और स्त्री स्वर की आवश्यकता थी, वह कहां से लाया जाए। भुवन की सहधर्मिणी सोनाली ने तुरंत सहमति दिखाई कि वह साथ देगी, बस फिर क्या था, बातें नाम से वो पहला गीत 4 नवंबर 2020 को यू-ट्यूब के चैनल #AMelodiousLyricalJourney पर आ गया। लोगों ने उसे बहुत सराहा, हमें बिल्कुल उम्मीद नहीं थी कि वह लोगों की ज़ुबान पर इस तरह चढ़ जाएगा लेकिन ऐसा हुआ और व्यूज़ दो हज़ार पार हो गए। उत्साह जगा और मूलतः इंदौर के और अब मुंबई में बसे निखिल मांदले ने भुवन का साथ दिया बातें का पियानो कवर बना, पियानो पर भुवन और गिटार पर निखिल इस तरह बातें निःशब्द आया।
फ्रैंड इनडीड
लोगों की उम्मीदें बढ़ रही थीं, वैसे हमारा उत्साह भी। अगला गीत लिखकर तैयार था, पहली बार गीत को गीत की तरह लिखा गया था, गीत था सार्वकालिक, लेकिन फिर दिक्कत थी कि उसे गाएगा कौन? भुवन वन मैन आर्मी की तरह जुटा हुआ था, वो ही गायक था, संगीतकार भी, वीडियो एडिटिंग भी उसके जिम्मे था, पर उसका कहना था कि किसी और को भी गायिकी में लेना चाहिए। मेरे दिमाग में अमित का नाम कौंधा, अमित और मैं स्कूल में साथ-साथ बैठते थे, जाने कब उसे गुनगुनाते हुए सुना था और वह याद हो आया। जैसा कि पहले बताया अमित अमेरिका में होने से टाइम जोन में अंतर एक समस्या थी लेकिन अ फ्रैंड इन नीड, अ फ्रैंड इनडीड, अंग्रेजी कहावत को सही ठहराते हुए अमित ने अपनी आवाज़ देने का वचन दिया और निभाया। ख़ास बात यह कि बचपन के दिनों के बाद से अब तक प्रत्यक्ष न मैं भुवन से मिली हूं, न अमित से लेकिन बचपन की दोस्ती एकदम पक्की दोस्ती की तरह है, जिसने इस गीत को लगभग डेढ़ हज़ार व्यूज़ तक पहुंचा दिया।
वीडियो भी
अब तक दोस्ती-यारी में होने वाली बातें अब गंभीर जिम्मेदारी का एहसास भरने लगी थी, लोगों की उम्मीदें बढ़ रही थीं और हमसे अपेक्षाएं भी। कितनी बार छोटी-छोटी बातों के लिए सुदूर अमित को परेशान किया और भुवन के साथ बड़ी-बड़ी बहसों को अंजाम दिया, सबका उद्देश्य एक ही था कि यू-ट्यूब पर जाने वाले वीडियो अच्छे होने चाहिए। उसके बाद हे नीलकंठ आया, जिसकी रचना भुवन ने राग को आधार बनाकर की। हम चित्रों का उपयोग अपने चैनल के लिए कर रहे थे, इंदौर के फोटोग्राफ़र मित्र भी सहायता कर रहे थे लेकिन ऐसा लगा कि वीडियो होना चाहिए और अगली ग़ज़ल आरज़ू में ज्योति भावे ने मित्रता निभाई। अन्य मित्र सुदेश पुरी ने तकनीकी सहायता देने का बीड़ा उठा लिया, जो अब तक जारी है।
सारे मित्र
काम कुछ ऐसा हो रहा था कि इंदौर के बाल मित्रों ने भी अपनी आशाएं व्यक्त कीं। इंदौर में एडवोकेट अवधेश शर्मा ने सबसे पहले कहा कि सारे मित्रों का एक साथ वीडियो आना चाहिए। समय का चक्र उल्टा दौड़ पड़ा, सब राजी-खुशी तैयार हुए और बैक टू बचपन आ गया, उसके बाद यादों का झरोखा खुला। दूर देश के अमित के लिए इंदौर लौटना संभव नहीं था, उसने वहाँ से वीडियो बनाकर भेजा, हर्षा पुराणिक विखे इंदौर में ही थी लेकिन स्कूल एक
कोने में था और उसका घर दूसरे कोने में सो उसने भी अपना वीडियो अलग से भेजा। हालाँकि चंद्रभान सिंह और विनया बर्डे उपासनी इंदौर में थे लेकिन उनके लिए भी स्कूल जाना संभव नहीं था, सो उन्होंने भी अपने वीडियो भेजे। इंदौर में ही रहने वाली रश्मि राजवैद्य साकल्ले ने अपनी आवाज़ दी तो दूसरी आवाज़ स्कूल के मित्र और अब पुणे में रहते हिमांशु तारे की थी। इंदौर के मित्रों ने एक साथ पुराने स्कूल में जाकर वीडियो बनाया। इंदौर की रानू जैन ने जैसे नेतृत्व संभाला और इंदौर के ही पंकज डोंगरे ने उसका साथ दिया। ललित और कमल सिंह राजी-खुशी तैयार हो गए, भालचंद्र खुंटे और रत्नेश खंडेलवाल भी आ गए।
देश-दुनिया
कहते हैं दोस्त जब मिलते हैं तो कमाल होता है, इस कथन का अनुभव होने लगा है। यह हमारा पेशा नहीं है लेकिन बहुत व्यावसायिक दृष्टिकोण रखते हुए हम काम कर रहे हैं। कुछ ट्रेलर्स, कुछ शॉर्ट्स भी हम बना चुके हैं। भुवन और मैंने अगले गीत के लिए ऑनलाइन ऑडिशन भी लिए और ट्रैक पर गाने गाकर भी मंगवाए। भारत में जब रात होती है तब वीडियो अपलोड होता है, पुणे में बैठी मैं अपलोड करती हूं, नेटवर्क की समस्या आती है तो
बैंगलुरू में बैठा भुवन वहां से साथ हौसला अफज़ाई करता है, तब अमेरिका में दिन हो चुका होता है, यदि वीडियो अपलोड के बाद कुछ त्रुटि रह जाती है तो अमेरिका से अमित उसे तुरंत देख संदेश करता है, फिर जब अमेरिका में रात हो चुकी होती है और यहां दिन मैं सुबह उठकर उसे तुरंत सुधार देती हूं, जब तक कि बाकी लोग उसे देखें।
सुदामा के पोहे
इंदौर में एक वाक् प्रचार बहुत चलता है- हमें कहां उनके यहां खीर खाने जाना है, सच में हम मित्रों को भी कहां एक-दूसरे के यहां खीर खाने जाना है, बिना किसी अपेक्षा के यह मित्रता है और इसका स्वाद खीर की तरह ही मीठा है, बिल्कुल सुदामा के पोहे की तरह तृप्त करता हुआ, कोई हो सुदामा, कोई हो कृष्ण, मित्रता में रूप-रंग, धन-दौलत, पद-ओहदा सच कुछ आड़े नहीं आता है। यह इंदौर से दूर रहते हम लोगों को इंदौर से जोड़ता है, इंदौर के
पोहो की याद दिलाता है…