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प्रेरक संस्मरण : यादों में मुस्कुराती एक मां, जिन्होंने मुझे जन्म नहीं दिया पर....

प्रेरक संस्मरण : यादों में मुस्कुराती एक मां, जिन्होंने मुझे जन्म नहीं दिया पर.... - Happy Mothers Day A Motivational Memory
यह संसार रंग-बिरंगे फूलों से सजी बगिया है। जिस तरह हम मनुष्य बाग के सबसे सुंदर फूल को तोड़ते हैं, वैसे ही इस संसाररूपी बगिया से सबसे सुंदर, सबसे सुगंधित और सबसे कीमती फूल को ईश्वर बहुत जल्दी तोड़ लेता है और जब वह ऐसा करता है तो मानव समाज में इस प्रक्रिया को मृत्यु कहा जाता है।
 
मेरी मम्मी की मामीजी जब असमय चली गईं तो मुझे सदमा ज्यादा लगा। कारण कि मुझे उनके करीब रहने का सुअवसर मिला था। जीवन के अनगिनत रहस्यों, सीख और कौशल को समेटे वे अपने आप में संपूर्ण नारी थीं। उनसे जुड़ी तमाम बातें और यादें ऐसी हैं, जो सभी अपने आप में विशिष्ट हैं। लेकिन एक ऐसी घटना है जिसे मैं ताउम्र अपने स्मरणदीप में संजोकर दैदीप्य रखना चाहूंगी।
 
बात उन दिनों की है, जब मैं इंदौर के स्थानीय समाचार-पत्र में प्रशिक्षु के रूप में कार्यरत थी। उज्जैन मेरा गृहनगर है, अत: आना-जाना लगा ही रहता था। मुझे मामीजी को बहुत करीब से जानने-समझने का मौका तब मिला, जब उन्होंने मुझे अपने घर पर ही रहने का आदेश दिया।
 
चूंकि प्रेस का माहौल मेरे लिए बिलकुल नया और असहयोगी था इसलिए अक्सर शाम को जब मैं लौटती तो मेरा चेहरा तनावग्रस्त रहा करता था। रोज ही मैं पैर पटकती हुई आती और प्रेस को लेकर भुनभुनाती। वे मुझसे मुस्कुराते हुए कहतीं, 'जब ऑफिस से बाहर निकलो तो एकदम भूल जाया करो कि दिनभर वहां क्या हुआ?' मैं संकोच से दोहरी हो जाती कि अपने तनाव से मैं इन सबको परेशान क्यों करती हूं और फिर माहौल हंसी-खुशी का बनाते हुए वे कई अच्छी-अच्छी बातें बतातीं।
 
उस दिन मातृ दिवस था। प्रेस में किसी वरिष्ठकर्मी से मेरी झड़प हो गई। जब मैं घर पहुंची तो मेरा चेहरा देखकर मामीजी समझ गईं कि आज फिर कुछ गड़बड़ हुई है। उन्होंने मुझसे कहा 'चलो, जल्दी से तैयार हो जाओ, दर्शन करने चलेंगे।' मैंने भी स्वीकृति में सिर हिला दिया।
 
हम दोनों रास्तेभर मौन रहे। जब हरसिद्धि मंदिर में दर्शन किए तो थोड़ी राहत महसूस की। उन्होंने मेरे चेहरे के बदलते भाव पढ़ लिए और कहा, 'अब तुम मुझसे बातें कर सकती हो।' मैं फिर चुप। वे बोलीं, 'देखो, यहां मैं तुम्हें इसलिए लाई हूं ताकि अपनी बात को कहने की तुम्हें शक्ति प्राप्त हो।' मैं उनकी बातें सुनकर अभिभूत हो गई और धाराप्रवाह सारी बातें उन्हें बता दीं।
 
वे बोली, 'यदि तुम्हें लगता है कि किसी ने तुम्हारा अपमान किया है तो इसका मतलब है, तुमने अपने आपको पहचाना ही नहीं है। कोई तुम्हारा अपमान कैसे कर सकता है? जब तक तुम्हारी अपनी दृष्टि में तुम्हारा सम्मान बरकरार है, तब तक किसी की हिम्मत और हैसियत नहीं कि तुम्हें अपमानित कर दे। जिस व्यक्ति से तुम्हारी तकरार हुई है, तुम अपने आपको उसकी दृष्टि से देख रही हो। उस व्यक्ति को यह भ्रम है कि उसने तुम्हारा अपमान किया है और इसी भ्रम को तुम सच मान बैठी हो।'
 
मैं सब कुछ भूलकर उन्हें सुनती रह गई। उलझन, बेचैनी और तनाव की सारी चट्‍टानें पिघलने लगीं। अपने अंतर में मैंने शीतल जल का झरना बहता हुआ-सा महसूस किया। कुछ देर पहले जिस अपमान को सोच-सोचकर मेरी मस्तिष्क शिराएं चटक रही थीं, अब उन्हीं में मैंने एक अनोखा ठंडापन महसूस किया।
 
हम घर लौटे तो रात को खाना खाने के बाद मुझे उन्होंने 'सर्वोत्तम' (रीडर्स डाइजेस्ट) का एक अंक दिया। मैंने देखा कि कुछ प‍ंक्तियां उन्होंने 'अंडरलाइन' कर रखी थीं और वे पंक्तियां थीं 'यदि किसी ने तुम्हारा अपमान किया है, तो तुम इसे मन-मस्तिष्क से निकाल फेंको। यदि फेंक नहीं सकते, तो उसे छुपा दो। यदि छुपा नहीं सकते, तो उसे ढंक दो। यदि ढंक नहीं सकते, तो उस पर हंस दो और यदि हंस नहीं सकते तो समझो तुम इसी के लायक हो।'
 
और यकीनन मैं मुस्कुरा उठी। जिंदगी में न जाने कितने मोड़ पर न जाने कितने और कैसे-कैसे अनुभव हुए लेकिन हर बार मामीजी के शिक्षाप्रद वचन और ममत्व छलकाती गहरी आंखों ने अपार शक्ति और अटूट आत्मविश्वास का संचार किया। मामीजी के बचपन के बारे में मुझे उनकी माताजी द्वारा पता लगा, वह भी तब, जब वे इस दुनिया से जा चुकी थीं।
 
मामीजी जब मात्र 5 दिन की थीं तब उनके पिताजी चल बसे। उनकी माताजी ने अपनी सारी वेदना और छटपटाहट नन्ही-सी बच्ची पर उतारते हुए उनका परित्याग कर दिया। करीब 3 महीने तक उनका पालन-पोषण एक रिश्तेदार के यहां हुआ। उनकी माताजी के अनुसार, 'जब मैं उसे (मामीजी) सामने देखती तब-तब अपने पति की याद में मैं तड़प उठती। यही वजह है कि बचपन में 'इसे' प्रताड़ित करने का कोई मौका नहीं छोड़ती।'
 
मुझे आश्चर्यमिश्रित दु:ख हुआ कि इतना कष्टमय बचपन और युवावस्था में वैधव्य की अपार पीड़ा सहने के बावजूद मामीजी के चेहरे पर आखिरी दम तक किसी ने उदासी या मायूसी नहीं देखी। उनके होंठों पर सदैव आत्मीय मुस्कान थिरकती रहती थी। वह दिव्य आत्मसम्मान और स्वभाव उनके सभी बच्चों में दिखाई देता है।
 
मुझे दु:ख है तो सिर्फ इस बात का कि उनके सान्निध्य में रहने का बहुत कम मौका मिल सका। वे आज इस दुनिया में नहीं हैं। लेकिन सिर्फ शरीर से, आत्मिक रूप में उन्हें मैं आज भी अपने आसपास, बहुत पास महसूस करती हूं। उनका सौम्य और खिलखिलाता व्यक्तित्व मेरे अंत:स्थल में सदैव मुस्कुराता रहेगा। उनका मातृत्व मैं कभी नहीं भूलूंगी।