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शफीक़ माँ है !
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अहमद कलीम फैज़पुरी मिरी निगाह इतनी मोतबर कहाँ थी ? कि देखता मैं तुझको तेरे अदँर चेहरगी का वो आईना भी कि शफ्फाक सा रहा है अज़ल से अब तक । वो इक तक़द्दुस कि लम्स जिसका उँगलियों की हर एक पोर में निहाँ था गुमाँ को मेरे आवाज़ दे रहा था। मैं अपने अँदर नहीं था कुछ भी कहाँ था मैं इसकी ख़बर नहीं थी। जगाया मुझको फिर सूरजों ने दरीचें दिल के जो वा हुए हैं तो मैंने जाना कि तू मिरी शफीक़ माँ है !