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पुष्टि मार्ग में मकर संक्रांति

पुष्टि मार्ग में मकर संक्रांति -
- गोपालदास व. नीमा

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सूर्य के उत्तरायण प्रवेश के साथ स्वागत-पर्व के रूप में मकर संक्रांति का उत्सव मनाया जाता है। वर्षभर में बारह राशियों मेष, वृषभ, मकर, कुंभ, धनु इत्यादि में सूर्य के बारह संक्रमण होते हैं और जब सूर्य धनु राशि को छोड़कर मकर राशि में प्रवेश करता है, तब मकर संक्रांति होती है। सूर्य का उत्तरायण प्रवेश अत्यंत शुभ माना गया है। महाभारत में उल्लेख मिलता है कि भीष्म शरशैया पर लेटे हुए तब तक देह त्याग को रोके रहे जब तक उत्तरायण का आरंभ नहीं हुआ। वेदों में वर्णित भगवान आदित्य तेजस्वी हैं, तांबई रंग के हैं और सात घोड़ों के रथ पर सवार हैं।

इस दिन पुष्टि संप्रदाय में ठाकुरजी का 'भोगी के दिन अभयंग स्नान कर साज सिंगार श्याम सुभग तन। पुण्य काल तिलवा भोग घर के प्रेम सों बीरी अरोगावत निज जन ॥1॥ मोहन श्याम मनोहर मूरति करत विहार नित व्रज वृंदावन। 'परमानंददास' को ठाकुर राधा संग करत रंग निश दिन॥2॥' चूँकि राज भोग में पुण्य काल में तिल की सामग्री भोग में आती है। यही तिल की सामग्री शक्कर एवं गुड़ की धराई जाती है।

शीतऋतु के अनुसार ठाकुरजी का सुख विचार कर अर्थात गुड़ तथा तिल व शक्कर की सामग्री जो कि उष्ण होती है वह ठाकुरजी के लिए शीतकाल में लाभप्रद है। इसलिए इसका भोग लगता है। फिर ऋतु अनुसार राग, भोग एवं श्रृंगार पुष्टि संप्रदाय में श्री श्रीनाथजी को किया जाता है।
  मकर संक्रांति उत्सव के बाद प्रथम आने वाली षट्तिला एकादशी का भी विशेष महत्व है। इस दिन भी तिल की सामग्री ठाकुरजी को एकादशी के भोग में आती है एवं इस दिन भी दान का विशेष महत्व है। तिल को पीसकर इसका उबटन भी शरीर पर लगाकर स्नान किया जाता है।      


तिल की सामग्री में एक तिल दूसरे तिल से जितना निकट है उतने ही प्रभु अपने निजजन को निकटता प्रदान करते हैं।

मकर संक्रांति पर पुष्टि संप्रदाय में ठाकुरजी के सन्मुख संध्या आरती एवं सेन दर्शन में पतंग उड़ाने के पद गाए जाते हैं। 'कान्ह अटा चढ़ि चंग उड़ावत हो। अपुने आँगन हू ते हेरो। लोचन चार भए नंदनंदन काम कटाक्ष भयो भटु मेरो ॥1॥ कितो रही समुझाय सखीरी हट क्यो नमानत बहुतेरो। 'नंददास' प्रभु कब धों मिले हैं ऐंचत डोर किधों मन मेरो ॥2॥' इस प्रकार पूरी भारतीय संस्कृति में मकर संक्रांति का विशेष महत्व है। भगवान सूर्य का उत्तरायण इसी दिन होता है। उत्तरायण में प्राण त्यागने वाले की उर्धगति होती है। उसे गोलोकवास की प्राप्ति होती है।

भारतीय परंपरा में प्रत्येक उत्सव का तथा इससे जुड़े व्यंजनों का भी अपना महत्व है। चूँकि तिल की सामग्री, (गुड़ तथा शक्कर के साथ बनी) उष्ण होती है। अतः शीत ऋतु में इसका सेवन स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभप्रद है। अतः मकर संक्रांति तिल की सामग्री का एवं खिचड़ी (मूँग की दाल तथा चावल आखा नमक) का विशेष रूप से दान देने का पर्व माना जाता है।

मकर संक्रांति उत्सव के बाद प्रथम आने वाली षट्तिला एकादशी का भी विशेष महत्व है। इस दिन भी तिल की सामग्री ठाकुरजी को एकादशी के भोग में आती है एवं इस दिन भी दान का विशेष महत्व है। तिल को पीसकर इसका उबटन भी शरीर पर लगाकर स्नान किया जाता है।

साथ ही गाय को गुड़, दलिया विशेष प्रकार से बनाकर खिलाया जाता है। तीर्थ स्थानों एवं पवित्र नदियों (गंगा, यमुना, त्रिवेणी संगम, नर्मदा आदि) में स्नान कर दान देकर, श्राद्ध भी किए जाते हैं। इस प्रकार यह उत्सव धर्म, अर्थ, काम एवं पुष्टिमार्गीय मोक्ष को प्रदान करने वाला है।