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Written By ND

बापू के विचारों से प्रसन्न हुए साधु

Mahatma Gandhi | बापू के विचारों से प्रसन्न हुए साधु
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महात्मा गाँधी के आश्रम में एक प्रसिद्ध संन्यासी आए। आश्रम के वातावरण, बापू के कार्यक्रम और विचारों से वे साधु बड़े प्रसन्न हुए और वहाँ ठहर गए। उनको आश्रम में मेहमान की तरह रखा गया।

एक दिन साधु बापू से मिले और प्रार्थना करते हुए बोले- 'महात्मा गाँधीजी मैं भी आपके आश्रम में रहकर जीवन बिताना चाहता हूँ। इस जीवन का सदुपयोग राष्ट्रहित में हो तो यह मेरा महान सौभाग्य होगा।'

बापू ने उनकी बातें सुनकर कहा- 'यह जानकर हमें बड़ी प्रसन्नता है। आप जैसे विरक्त साधु पुरुषों के लिए ही तो आश्रम होते हैं, किंतु यहाँ रहने से पूर्व आपको इन गेरुए वस्त्रों का त्याग करना पड़ेगा।'

ND
गाँधीजी की बातें सुनकर स्वामीजी मन ही मन बड़े क्रोधित हुए। अपने क्रोध पर संयम रखते हुए बोले- 'महात्माजी! ऐसा कैसे हो सकता है, मैं संन्यासी जो हूँ।'

'आप अपने संन्यास को कभी न छोड़ें, इसमें दिनोंदिन प्रगति करें। मैंने तो आपको गेरुए वस्त्र छोड़ने के लिए कहा है। उनको छोड़े बिना सेवा नहीं हो सकती।'

बापू ने उन्हें समझाते हुए कहा- 'स्वामीजी, इन गेरुए वस्त्रों को देखते ही हमारे देशवासी इन वस्त्रों को पहनने वाले की ही सेवा, पूजा शुरू कर देते हैं। इन वस्त्रों के कारण अन्य लोग आपकी सेवा को स्वीकार नहीं करेंगे। जो वस्तु हमारे सेवाकाल में बाधा डाले उसे छोड़ देना चाहिए। फिर संन्यास तो मानसिक वस्तु है। पोशाक के छोड़ने से संन्यास नहीं जाता। गेरुए वस्त्र पहनकर आपको सफाई का काम कौन करने देगा?'

गाँधीजी की बातें सुनकर उस साधु ने तत्काल गेरुए वस्त्र त्याग दिए।