मध्याह्न भोजन के वीरों का सम्मान
व्यंग्य
जगदीश ज्वलंत मध्याह्न भोजन के उबलते पतीले में कूदकर अपने प्राणों की आहुति दे चुके प्राणियों के सम्मान में आज समाज के जीव-जतुंओं ने मरणोपरांत परमवीर-सम्मान देने हेतु समारोह का आयोजन किया था। मेंढक, चूहे, छिपकली, कॉकरोच आदि कीटनाशकों में मिलावट के चलते भारी संख्या में यहाँ आज एकत्रित हुए थे। एक मेंढक टर्रा-टर्रा कर रो रहा था, ताकि यह सिद्ध हो सके कि मृतक का यही एकमात्र वारिस है। उसे समझा दिया गया था कि भूलकर भी यह मत बताना कि तेरे पिताजी को मोतियाबिंद था। यही कहना कि 'संस्कृति-बचाओ-मंच' के एक कुत्ते ने हमला कर उनकी आँखों को क्षति पहुँचाई थी। फिर भी उन्होंने उबलते पतीले में आत्मदाह कर शासकीय व्यवस्था की पोल खोल दी। हमें उन पर बहुत गर्व है। यही कहना।दूसरी ओर एक छिपकली के पाँच अनाथ बच्चों को लेकर मुआवजे में कुछ परसेंट के लालच में पड़ोस की छिपकली स्वयं आई थी। सिसक रहे पाँचों अनाथों को वह हिम्मत बँधाकर स्वयं को उनका संरक्षक सिद्ध कर रही थी। मृतका के पीछे भी एक कहानी है। उसे भ्रम था कि छत उसी ने थाम रखी है। छोड़ते ही छत भर-भराकर गिर जाएगी, यही सोच, कर बैठी नवाचार। धम्म से आ गिरी खिचड़ी के पतीले में। रसोइया बाहर समूह के अध्यक्ष के साथ गप्पे मार रहा था। गप्प के साथ रसोइया और अध्यक्ष दोनों मारे गए।उधर कोने में जो चुहिया बैठी है, क्या बताएँ शादी को चार दिन भी नहीं हुए कि चूहा चुहिया के लिए खीर की खुरचन लेने गया था। पतीले का ढक्कन तो हट गया, लेकिन निकलते समय ढक्कन धोखा दे गया। अंत में सारी खुरचन खुद खाकर ऊपर वाले को प्यारा हो गया। कॉकरोच, कॉकरोची से शर्त लगा बैठा। देखना पतीले के इस छोर से उस छोर तक उड़कर एक झटके में छलाँग मार दूँगा। छलाँग नहीं लग पाई। खुद मर गया। सरकारी माल को खेल-तमाशा समझ रखा है। कहते हैं न माले-मुफ्त, दिले बेरहम। आज यही असावधानियाँ, नासमझी एवं मूर्खताएँ योग्यताएँ बन गई थीं। मरणोपरांत समाज द्वारा सम्मान जो मिलने वाला था। एक आलोचक किस्म के छछूंदर ने कह ही दिया- 'इनके मरने से समाज कैसे गौरवान्वित हुआ? ये तो अपनी मूर्खताओं से मरे हैं।' तभी एक मोटा मेंढक टर्राया,'देखिए, ये जितने प्राणी दिवंगत हुए हैं, इनके मरने के पश्चात ही पता चला है कि ढोल में कितनी बड़ी पोल है। पतीले में चींटी, मक्खी, कीड़ें निकले। पता चला? नहीं न। जब हम निकले तब व्यवस्था जागी। तहलका मचा। मर तो हम यूँ भी रहे थे- झाडू, डंडे, कीटनाशक-स्प्रे से, लेकिन ऐसे मरना भी कोई मरना है? मरना वह है, जिससे व्यवस्था जाग जाए। इन्होंने वही किया है। आम से लेकर खास तक को जगाया है। संसद में जो विपक्ष नहीं कर पाया वह हमने किया। आग थी हममें, हम जले। हो कहीं भी आग लेकिन आग जलना चाहिए...।"तभी एक मरे हुए साँप की पूँछ पकड़कर खींचते हुए दूसरा साँप आया। बोला, 'इसे दो सम्मान। यह दलिया के थैले में से निकला है।' छछूंदर ने हिम्मत जुटाकर पूछ ही लिया, 'लेकिन साँप तो दलिया नहीं खाता?" सुनते ही उस साँप का पारा सातवें आसमान पर 'आ बताऊँ तुझे, खाता है कि नहीं। थैले में तेरे बाप को ढूँढने गया था।' सुनते ही छछूंदर छू-मंतर। उधर सभी चूहों की सिट्टी-पिट्टी गुम। सभी कानाफूसी करने लगे। हमें अपने वालों से अधिक इनसे खतरा है, जो अन्न की जगह हमें खाते हैं। क्यों न हम सभी मिलकर विष-वान का सम्मान करें। सम्मान त्याग का नहीं शक्ति का होता है। साँप के सम्मान में सर्वसम्मति से सारे ही दौड़ पड़े। धन्य है आप, धन्य हैं आपके ये दिवंगत जनाब। जो निस्वार्थ त्याग की मिसाल आपने पेश की वह अनुकरणीय है। 'माइक थामें खड़े छछूंदर ने आगे कहा, 'आपका मरणोपरांत सम्मान करके हम अपने जीवन को सार्थक मान रहे हैं। 'सदन मौन है' लोकतंत्र में ऐसी खामोशी प्रायः देखी जाती है।