पटरी पर पड़ा आदमी
व्यंग्य
गोपाल चतुर्वेदी जिला प्रशासन की व्यवस्था में कोई कमी नहीं है। जिलाधीश ने पत्रकार सम्मलेन बुलाकर घोषणा कर दी है कि रैन-बसेरों में रात बिताने का पूरा इंतजाम है। प्रशासन कंबल बँटवा रहा है, अलाव के लिए लकड़ी-कोयला भी। अव्वल तो शीत लहर आई नहीं है, यदि आई भी है तो क्या कर लेगी? हम उससे मुकाबले को पूरी तरह तैयार हैं। यही तो खासियत है भारतीय प्रशासन की। गर्मी, जाड़ा, बरसात चाहे कोई मौसम हो। बाढ़ आए, सूखा पड़े, लू चले, कागजी कुरुक्षेत्र में प्रशासन की व्यवस्था सबको मात देने में सक्षम है।यह दीगर है कि जुबानी जमा-खर्च और जमीनी हालात में ज्यादातर तालमेल नहीं बैठ पाता है। कभी कोयला सिर्फ फाइल में आता है, कभी लकड़ी केवल रजिस्टर में और कंबल कलेक्टर के घर में। उसके बाद उनके पैर लगते हैं और वह कहाँ टहल आए, कोई नहीं जानता है। यह जरूर है कि उनका लक्ष्य हर अभावग्रस्त और बिना छत ठंड में ठिठुरते निर्धन आम आदमी को राहत देना है। क्या इतना ही काफी नहीं है कि कलेक्टर ने बोला, प्रेस ने गंभीरता से सुना और छापा, तत्पश्चात शीत-लहर शहर से पलायन कर गई, बिना कोई शिकार किए।इन सब तैयारियों के बावजूद जाने कैसे पटरी पर पड़ा एक अकड़ा प्राणहीन आदमी संवाददाता को नजर आ गया। भुवन भास्कर, निर्धन की किस्मत की तरह, कोहरे और धुंध में गुम थे। लोगों की ठिठुरती भीड़ खुद-ब-खुद जमा हो गई। ए.डी.एम. सिटी साहब को खबर लगी। वह भी नीली बत्ती चमकाते पधारे, टी.वी. के कैमरामेन भी । बड़े अफसर इधर बिना सुरक्षा के घर से बाहर नहीं निकलते हैं। शायद राजनीतिक दल के विधायक से पिटें तो पिटें, जनता से तो सुरक्षित रहें।साहब ने अपने सुरक्षाकर्मी को उपदेश दिया, 'हम तो हमेशा कहते हैं। भारत तमाशबीनों का देश है। सड़क पर कोई लड़की छेड़े, दुर्घटना हो तो भीड़ बेसाख्ता जमा होगी। जैसे करना-धरना कुछ भी हमारा काम है, तमाशा देखना इनका।' उन्होंने जाकर लावारिस लाश पर एक उड़ती-उड़ती नजर फेंकी। शासकीय भाषा में मौका मुआयना किया और फौरन उसे पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया। दरअसल, बड़े संवेदनशील हैं साहब! उन्हें अधमरे लोगों से परहेज नहीं है, बस लाश हो तो उनका कोमल मन क्लांत हो जाता है। वैसे कई बार उन्होंने फाइरिंग के ऑर्डर भी दिए हैं। जब-जब जनता व्यर्थ में अनुशासनहीनता पर उतरी है। उन्होंने एक परिचित संवाददाता को पास बुलाया और बताया, 'यार ! शहरों में इतने गँवई-गँवार घूमने-फिरने आते हैं। मौत का कोई भरोसा तो है नहीं। कब कौन अस्पताल में टें बोले या अनाथालय में अथवा पुल पर या पटरी पर किसे पता है ?' उनकी आवाज में करुणा का कंपन था। उन्होंने संवाददाता को देखा। उसने सवाल किया, 'हमने तो सुना है कि कंबल व अलाव के अभाव में गरीब सर्दी से दम तोड़ रहे हैं। रैन-बसेरे में इतनी बदइंतजामी है कि किसी को शरण मिलना नामुमकिन है।' साहब ने सिर हिलाया और बोले, 'यार ! कंबल तो हमने और एक एम.एल.ए. साहब ने खुद बाँटे हैं। अलाव भी रोज जलते हैं। हमने तो स्वयं निरीक्षण किया है रैन-बसेरे का। वहाँ तिल रखने की जगह नहीं है।'संवाददाता बिना किसी प्रतिक्रिया के चला गया। साहब को याद आया। कंबल उन्होंने बड़े साहब और अपने चहेतों को खुद बांटे थे। सप्लायर ने कमीशन भी 'पे' किया था। अखबारों में छपा, टीवी में दिखा कि सर्दी से सैकड़ों मरे। प्रशासनिक जाँच हुई। पाया गया कि लोग मर तो रहे हैं। हर मौसम में मरते रहते हैं। सच्चाई यह है कि भूख, गरीबी, बीमारी से मरे हैं मरने वाले, सर्दी से नहीं।