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Written By ND

रेलवे : एक अनुभव

सुबोध कुमार श्रीवास्तव

Literature | रेलवे : एक अनुभव
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घर से जानकारी ली थी तो पूछताछ कार्यालय ने ट्रेन के सही समय पर चलने की बात कही थी। चालीस मिनट बाद स्टेशन पहुँचा तो गा़ड़ी एक घंटा लेट हो चुकी थी। होता है, ऐसा होता है। यदि ट्रेन एक घंटा लेट है तो भी यात्री उसे सही समय पर ही मानते हैं। यदि कभी चमत्कार हो जाता है और ट्रेन सही समय पर आकर छूट जाती है तो सैकड़ों यात्रियों की यात्रा टल जाती है।

इस मुद्दे को लेकर कि ट्रेन सही समय पर क्यों आई, देश में कभी कोई आंदोलन-प्रदर्शन नहीं हुआ। गनीमत है। बिहार प्रांत को, जो महत्वपूर्ण आंदोलनों का नेतृत्व कर चुका है, इस पर विचार करना चाहिए। वहाँ के प्रमुख नेता लगभग फुरसत में हैं।

मैं यूँ ही प्लेटफॉर्म पर टहल रहा हूँ। भी़ड़ है पर ख़ड़े रहने की और धक्के खाते हुए टहलने की गुंजाइश निकाली जा सकती है। कुछ बेंचें भी हैं, लेकिन उन पर वे लोग पसरे हुए हैं जिनका ठिकाना प्लेटफॉर्म ही होते हैं। प्रतीक्षालयों में भी इन्हें पाया जाता है और ये पुलिस के प्रिय होते हैं।

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हमेशा की तरह ट्रेन दो घंटे लेट हो चुकी है। हम इसके आदी हैं। समय बिताना है, तो टी स्टॉल पर रुककर एक चाय माँगता हूँ। स्टेशन की चाय भारतीय एकता का प्रतीक है। देश के किसी भी स्टेशन पर पी लीजिए, रहेगी पनीली और बेस्वाद ही। इस बीच दो-चार भिखारी मेरे सामने हाथ फैला चुके हैं। प्लेटफॉर्म हो और भिखारी न हों, यह असंभव है। यह भिखारियों की शरणस्थली है।

हमेशा की तरह गा़ड़ी दो घंटे पैंतालीस मिनट लेट हो चुकी है और मैं प्लेटफॉर्म पर टहल रहा हूँ। ऊपर कुछ पंखे हैं, जो धीरे-धीरे घूम तो रहे हैं पर हवा कहाँ फेंक रहे हैं, वे खुद भी नहीं जानते। ट्यूबलाइट ईमानदारी से टिमटिमा और लपलपा रही हैं, पर इतनी रोशनी तो है ही कि प्लेटफॉर्म पर बिखरी गंदगी दिख जाती है।

प्लास्टिक की खाली थैलियों को कुत्ते सूँघ रहे हैं, केले के छिल्कों पर पैर प़ड़ने से कुछ लोग फिसले भी हैं। जगह-जगह पान की पीक, गुटखों के खाली पाउच और बच्चों के पेट व मुँह से निकली गंदगी हमेशा की तरह प्लेटफॉर्म की पहचान को बयान कर रहे हैं। कभी-कभी सफाई कर्मचारी भी प्लेटफॉर्म पर सफाई करते हुए, झा़ड़ू लगाते हुए दिख जाते हैं, पर यात्री गंदगी फैलाने के अपने धर्म से नहीं चूकते। हमेशा की तरह। मैंने भी गुटखे का पाउच प्लेटफॉर्म पर ही फेंक दिया।

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मैं यूँ ही प्लेटफॉर्म पर टहल रहा हूँ। इस बीच चार-छः गाडि़याँ विभिन्न प्लेटफॉर्मों से कई दिशाओं को छूट चुकी हैं। जंक्शन जो है। पर ससुरी कोई भी सही समय पर नहीं रही। ...घंटे विलंब से चल रही है ...सुनते-सुनते कान सुन्न हो गए। 'देर' हमारा राष्ट्रीय चरित्र हो रहा है। फिर मानसून और रेल को तो देर से आना ही है। मानसून के देर से आने पर किसान रोते और व्यापारी हँसते हैं, पर रेल के देर से आने पर यात्री न रोते हैं न हँसते हैं। वे सिर्फ प्लेटफॉर्म पर टहल सकते हैं।

आश्चर्य! मेरी ट्रेन के शीघ्र आने की सूचना दे दी गई है, पर निष्ठुर अब दो की जगह पाँच नंबर पर आएगी। प्लेटफॉर्म बदल दिया गया है। होता है, ऐसा होता है। मैं अपनी अटैची लेकर प्लेटफॉर्म नंबर पाँच की ओर भाग रहा हूँ।