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Written By DW
Last Updated : गुरुवार, 4 फ़रवरी 2021 (09:31 IST)

नजरिया : म्यांमार में सेना की चाल नहीं समझ पाईं सू की

Aung San Suu Kyi | नजरिया : म्यांमार में सेना की चाल नहीं समझ पाईं सू की
राहुल मिश्र
 
म्यांमार में कुछ दिनों से उड़ रहीं तख्तापलट की अफवाहें आखिरकार सच साबित हुईं। रिटारटमेंट की तरफ बढ़ रहे सेना प्रमुख का सत्ता बने रहने का लालच अंत में लोकतंत्र पर भारी पड़ा। अब इसकी कीमत पूरा देश चुकाएगा।
 
1 फरवरी की रात को हुए नाटकीय घटनाक्रम के बीच स्टेट काउंसलर आंग सान सू की और सत्तारूढ़ नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) के तमाम नेताओं को म्यांमार की सेना ने गिरफ्तार कर लिया। राष्ट्रपति विन मिन और कई प्रांतों के मुख्यमंत्रियों और बड़े नेताओं को भी सेना ने बंधक बना लिया और सुबह होते ही देश में आपातकाल की घोषणा कर दी।
 
प्रमुख सेनाध्यक्ष जनरल मिन आंग लाई के वक्तव्य के साथ सेना ने देश में राजनीतिक तख्तापलट को अंजाम दे दिया। आनन-फानन में मिन स्वे को राष्ट्रपति बना दिया गया और उन्होंने सत्ता जनरल मिन आंग लाई को सौंप दी। अपनी बातों में वजन और गंभीरता लाने के लिए सेना ने यह भी कहा है कि आपातकाल सिर्फ 1 साल के लिए है और संवैधानिक हालात में सुधार होते ही आम चुनाव करा दिए जाएंगे। वैसे म्यांमार में सेना किसी दूसरे पक्ष को सत्ता हस्तांतरित करेगी, यह बात फिलहाल तो नामुमकिन ही लगती है।
 
हैरत की बात यह है कि सेना के मुताबिक देश में राष्ट्रीय आपातकाल और तख्तापलट संवैधानिक मूल्यों की रक्षा और चुनावों में तथाकथित धांधली की निष्पक्ष जांच के लिए जरूरी था। सेना का कहना है कि सू की की पार्टी ने चुनावों में 80 लाख वोटों की धांधली की है। इसके संदर्भ में उन्होंने संघीय चुनाव आयोग से शिकायत भी की थी, लेकिन आयोग ने इस मांग को खारिज कर दिया। देश की सुप्रीम कोर्ट में भी यह मामला अभी लंबित है।
 
जो भी हो, अपनी हार से झुंझलाई सेना ने सोची-समझी रणनीति के तहत लोकतंत्रिक व्यवस्था को ही उखाड़ फेंका और नतीजा सबके सामने है। इसके बावजूद सेना संवैधानिक तौर पर गलत नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 417 के तहत सेना राष्ट्रहित में यह कदम उठा सकती है।
 
सत्ता का मोह
 
म्यांमार दुनिया के उन देशों में से एक है, जहां एक आम इंसान के लिए अभिव्यक्ति की आजादी और लोकतंत्र जैसी बातें अधूरे सपने जैसी लगती रही हैं। 1962 से सैन्य तानाशाही का झेल रहे म्यांमार में सिर्फ 8 साल पहले सत्ता के गलियारों में प्रशासनिक सुधारों और लोकतंत्र की बात चली। पूर्व सेनाध्यक्ष थीन सीन ने 2011 में सुधारों की शुरुआत की और अप्रैल 2012 के उपचुनावों में नोबेल शांति पुरस्कार विजेता आंग सान सू की और उनकी पार्टी एनएलडी को बहुत अच्छा समर्थन और सीटें मिलीं।
 
इसके बाद 8 नवंबर 2015 को हुए आम चुनावों में तो मानो कमाल ही हो गया। कमाल यह नहीं कि सू की और उनकी पार्टी की जीत हुई, बल्कि कमाल यह कि सेना और उसकी प्रॉक्सी पार्टी और रिटायर्ड फौजियों के क्लब यूनियन सॉलिडैरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी (यूएसडीपी) ने अपनी हार को सम्मानपूर्वक स्वीकार कर लिया।
 
इसके 5 साल बाद फिर 8 नवंबर 2020 को आम चुनाव हुए और एक बार फिर एनएलडी को भारी बहुमत हासिल हुआ। अपने पक्ष में लगभग 83 प्रतिशत कुल वैध वोटों के अलावा निचले सदन की 440 में से 315 सीटें और ऊपरी सदन की दो-तिहाई से ज्यादा सीटें हासिल करने के बाद सू की की सत्ता में वापसी सुनिश्चित थी। यूएसडीपी की हार के बाद सेनाध्यक्ष आंग मिन लाई का भविष्य भी तय ही लग रहा था।
 
जनरल मिन लाई का सेनाध्यक्ष के तौर पर रिटायरमेंट नजदीक है। राजनीति में उनकी दिलचस्पी है और उन्हें एनएलडी से खासी नफरत भी है। थीन सीन की तरह संन्यास और वानप्रस्थ का उनका कोई इरादा भी नहीं है, लिहाजा उन्होंने संविधान को बचाने के नाम पर अपनी सत्ता को बचाने की ठानी। जनरल मिन लाई की महत्वाकांक्षा को सेना के कार्यरत और रिटायर्ड अधिकारियों का समर्थन भी है। इसलिए भी कि सेना को यह अंदेशा हो चला था कि सू की संविधान में बदलाव कर उसकी शक्ति को कम करने की फिराक में है। संसद में संख्या बल के आधार पर तो यह बहुत दूर की कौड़ी नहीं दिख पड़ रही थी।
 
राजनीतिक दांव-पेंच 
 
बहरहाल, 1 फरवरी को देश की नवनिर्वाचित संसद की पहली बैठक होनी थी। अगर सेना के लिहाज से देखें तो सत्ता परिवर्तन का इससे अच्छा तो कोई समय हो नहीं सकता था। अगर सेना की यही घोषणा संसद का सत्र शुरू होने के हफ्ते भर बाद होती तो शायद एनएलडी की स्थिति ज्यादा मजबूत होती और उसके कार्यकर्ताओं और नेताओं में ज्यादा समन्वय भी होता। लेकिन 5 साल सत्ता में रहने के बावजूद आज सू की और उनकी पार्टी फिर उसी जगह खड़े हैं, जहां से उन्होंने यह सफर शुरू किया था। यहां एक सवाल यह भी उठता है कि क्या सेना के इस कदम को रोका नहीं जा सकता था? या क्या वक्त रहते उसका प्रतिरोध नहीं किया जा सकता था? इस सवाल का जवाब हां ही है।
 
पिछले 5 साल में सू की और उनकी पार्टी की रणनीति यूएसडीपी से तालेमल बिठाकर और सत्ता का बंटवारा कर राज करने की रही थी। सेना की शक्ति से भला कौन नहीं डरता? सेना को मनाने और शांति से रहने की आस ने सू की की राजनीतिकि सूझ-बूझ को कुंद कर दिया। राजनीति कौटिल्य, मैकियावली और सुं जू के दिखाए रास्ते वाली शतरंज की चाल है, जहां अधमने मन से किया काम पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही है।
 
शांति से सत्ता पर काबिज रहने की कवायद सू की को इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस के दरवाजे भी ले गई जहां उन्हें सेना के अधिकारियों के ऊपर लगे रोहिंग्या अल्पसंख्यकों के नरसंहार के आरोपों पर बयान देना था। सू की ने कोर्ट में वही कहा जो पिछले 5 सालों से उनकी पार्टी कहती आई है।
 
संयुक्त राष्ट्र संघ और दूसरी सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं के कहने के बावजूद एनएलडी और म्यांमार की सेना यह मानने को तैयार नहीं हैं कि रोहिंग्या अल्पसंख्यक मुस्लिम और हिन्दुओं का नरसंहार हुआ है या लाखों की संख्या में वे देश छोड़कर भाग कर रहे हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था के रवायती मुद्दों को छोड़ दें तो पिछले 5 सालों में म्यांमार को सू की वह सब नहीं दे सकीं जिसकी उम्मीद की गई थी।
 
निंदा और आलोचना
 
बहरहाल, देश में तनाव और अनिश्चितता का माहौल है। अमेरिका की कड़ी आलोचनाओं के बीच कहीं-न-कहीं सेना को अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का डर भी सता रहा है, साथ ही ये चिंताएं भी कि आगे की चाल कैसे चली जाए कि सब कुछ निर्बाध चलता रहे। दूसरी ओर लोग सड़कों पर अपने-अपने तरीके से विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। देश के डॉक्टरों ने अनौपचारिक तौर पर एक असहयोग आंदोलन का बिगुल फूंक दिया है और अप्रवासी म्यांमारी नागरिक जहां भी हैं, वहां से म्यांमार के दूतावासों के सामने लोकतांत्रिक विरोध प्रदर्शनों में लगे हैं।
 
सोशल मीडिया पर विरोध की आग धधक रही है लेकिन यांगून और मांडले जैसे शहरों में गहरा सन्नाटा पसरा है। म्यांमार में लोकतंत्र के हर समर्थक को शायद यही डर है कि जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा, वैसे-वैसे इस चुनाव की जीत की प्रासंगिकता पर सवाल भी उठते जाएंगे और शायद लोकतांत्रिक व्यवस्था की ओर वापसी भी।
 
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं।)
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