भारत सरकार और सरकारी विभागों के बीच ही तालमेल की कमी और तनातनी खुल कर दिखने लगी है और बहुत से लोगों के मन में यह सवाल उठ रहा है कि क्या इतिहास दोहराया जा रहा है।
भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल के अचानक इस्तीफे ने सरकार और कारोबार जगत से जुड़े कई लोगों को हैरान किया। हालांकि पटेल ने यह फैसला कई महीनों से सरकार और बैंक के बीच चली आ रही तनातनी के बाद लिया। विशेषज्ञ इस्तीफे को इस बात का संकेत मान रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार देश के इस प्रमुख संस्थान से जो कराना चाहती थी वह उसके लिए तैयार नहीं था। सरकार ने रिजर्व बैंक से मांग की थी कि वह कर्ज की सीमा घटाए और अतिरिक्त कोष में से हिस्सा दे।
उर्जित पटेल को मोदी सरकार ने ही नियुक्त किया था लेकिन उन्होंने इन मागों को पूरा करने से मना कर दिया। पटेल चले गए हैं और उनकी जगह एक पूर्व नौकरशाह को लाया गया है, तो शायद प्रधानमंत्री की मुराद पूरी हो सकेगी। दूसरे संस्थान भी इन बातों का मतलब खूब समझते हैं। हिदू राष्ट्रवादियों की सरकार के साथ आमना सामना करने वालों में सीबीआई, सांख्यिकी विभाग, ब्यूरोक्रैट, सरकारी मीडिया और यहां तक कि खुद मोदी कैबिनेट भी है। इन सभी विभागों से जुड़े सूत्र बताते हैं कि उन सबके काम में राजनीतिक दखल दिया जा रहा है। उन पर 2019 में होने वाले आम चुनाव से पहले नतीजे दिखाने का दबाव बनाया जा रहा है। उत्तर भारत के अहम राज्यों में बीजेपी को मिली हार से यह दबाव और ज्यादा बढ़ गया है।
समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने प्रधानमंत्री कार्यालय से जब इस बारे में बात करनी चाही तो कोई जवाब नहीं आया। सरकार के मुख्य प्रवक्ता ने भी इस पर प्रतिक्रिया देने से इनकार कर दिया। प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी ने अपने कार्यकाल में कोई प्रेस कांफ्रेंस नहीं की है। उन्होंने इंटरव्यू भी बहुत कम ही दिए हैं। वह संवाद के लिए ट्विटर का इस्तेमाल करते हैं और देश को हर महीने रेडियो के जरिए अपने 'मन की बात' सुनाते हैं।
कुछ राजनीतिक विश्लेषक और सरकारी अधिकारी उन्हें निरंकुश बताते हैं। उनका कहना है कि जटिल रूप से नस्ली, धार्मिक और जातीय तौर पर विभाजित 1।3 अरब की आबादी वाले भारत के लिए यह निरंकुशता खतरनाक हो सकती है। वित्त मंत्रालय के पूर्व अधिकारी मोहन गुरुस्वामी का कहना है, "आप चीन की तरह यहां शासन नहीं चला सकते।" भारत की आजादी से पहले के दौर की ओर संकेत करते हुए गुरुस्वामी ने कहा, "आपको लगातार सहमति बनानी पड़ती है। यहां तक कि ब्रिटिश भी लोगों की राय लेते थे और मुगलों ने तो स्थानीय राजाओं को अपनी सेना में शामिल किया था।"
कुछ दूसरे लोगों का कहना है कि दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादियों ने बीजेपी से गठजोड़ कर लिया है और दूसरी तरफ उदार बौद्धिक वर्ग भारत के कानूनी तंत्र, शैक्षिक वर्ग और अंग्रेजी मीडिया पर अब भी हावी है। रिजर्व बैक इन्हीं दो गुटों के बीच एक बड़ी सांस्कृतिक लड़ाई का नया मैदान बना। नई दिल्ली के ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन से जुड़े राजनीतिक विश्लेषक हर्ष वी पंत कहते हैं, "दक्षिणपंथी मानते है कि इन संस्थाओं का वामपंथियों ने अनुचित इस्तेमाल किया है।"
मोदी का नियंत्रण
1975 में तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गाधी ने नागरिक स्वतंत्रता को निलंबित कर दिया और करीब दो साल तक देश में आपातकाल लगा रहा। तब इंदिरा गांधी ने कहा था कि देश के भीतर देश को तोड़ने की कोशिश हो रही है जिसे रोकना होगा। पंत कहते है, "यह इंदिरा गाधी 2.0 सरकार है। उनके जाने के बाद इतनी ताकतवर और कोई सरकार नहीं रही।"
प्रसार भारती के पूर्व सीईओ जवाहर सरकार बताते हैं कि इस प्रसारण बोर्ड में राज्यों के 70 फीसदी पद 2-3 साल से खाली पड़े है क्योंकि प्रधानमंत्री के दफ्तर में फाइलें रुकी पड़ी हैं। उनका कहना है, "भारतीय गणतंत्र के हर अधिकारी की नियुक्ति को सिर्फ एक ही इंसान तय कर रहा है।"
ज्यादा दिन नहीं बीते जब मोदी सरकार में एक क्षेत्रीय पार्टी के मंत्री ने यह कह कर इस्तीफा दे दिया कि वह बिना अधिकार के मंत्री हैं और मोदी सरकार ने उनकी पार्टी की चिंता की अनदेखी की है। पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा ने मोदी को लिखे पत्र में कहा है, "केंद्रीय मंत्रिमंडल को महज एक रबर स्टैम्प बना दिया गया है जो फैसलों पर बिना किसी विचार विमर्श के मुहर लगा देती है। मंत्री महज नाम भर के हैं क्योंकि सारे फैसले आप और आपका विभाग ले रहा है।"
वाशिगटन के कार्नेगी इंडोमेंट फॉर इटरनेशनल पीस में भारत पर रिसर्च कर रहे मिलन वैष्णव कहते हैं, "एक केंद्रीकृत सरकार जिसमें प्रधानमंत्री का दफ्तर सर्वोच्च नियंत्रण रखता है, वहां कैबिनेट पिछली सीट पर चली जाती है और संस्थागत नियंत्रण और संतुलन को उसके गुण की बजाय बीमारी के रूप में देखा जाता है।"
सीबीआई की लड़ाई
इसी साल अक्टूबर में सरकार ने सीबीआई के प्रमुख और उनके डेपुटी को पद से हटा दिया। दोनों अधिकारी एक दूसरे पर सार्वजनिक रूप से आरोप लगा रहे थे। सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर कहा कि इस कदम ने, "संस्था की स्वतंत्रता को खत्म कर दिया है" और साथ ही अधिकारियों के मनोबल को भी।
अधिकारियों का कहना है कि यह लड़ाई सामने आने के पहले से भी सरकार के साथ तनातनी चल रही थी। एक अधिकारी ने बताया कि सीबीआई सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ जांच शुरू नहीं कर पा रही है क्योंकि एक प्रमुख कानून में हेरफेर कर दिया गया है।
कुछ आलोचक तो यहां तक कहते हैं कि सरकार के आर्थिक आकड़ों में भी राजनीति घुस गई है। पिछले महीने बीजेपी को जीडीपी के ऐतिहासिक आंकड़े दोबारा जारी करने के लिए आलोचना झेलनी पड़ी। इन आंकड़ों में कांग्रेस शासित वर्षों में विकास को काफी कम दिखाया गया। सांख्यिकी विभाग के पुराने आंकड़ों में कांग्रेस के दौर में ज्यादा विकास दिखाया गया था। उस दौर में विभाग के लिए काम कर चुके सुदीप्तो मुंडले कहते हैं कि भारत के आर्थिक आंकड़ों में राजनीति को लाना "बहुत चिंताजनक" है।
सरकार के सामने सिर्फ एक ही सस्थान है जो सीना ताने खड़ा है और वो है सुप्रीम कोर्ट। हालाकि वकीलों और जजों का कहना है कि उसे भी चुनौतियां झेलनी पड़ रही है। सर्वोच्च अदालत ने समलैंगिक सेक्स और विवाहेत्तर रिश्तों को लेकर जो फैसले दिए हैं उनसे हिदू परंपरावादियों के कान खड़े हो गए हैं। इतना ही नहीं, निजता के अधिकार को बुनियादी बता कर कोर्ट ने बायोमेट्रिक पहचान पत्र को अनिवार्य बनाने के सरकार के कार्यक्रम को भी धक्का पहुंचाया है।
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण का कहना है कि सरकार सर्वोच्च अदालत को प्रभावित करने के तरीके लगातार ढूंढ रही है। प्रशांत भूषण का कहना है, "दबाव बना हुआ है, सरकार न्यायिक नियुक्तियों में बाधा डाल कर अदालत को नीचा दिखाने की कोशिश कर रही है।"
एनआर/एके (रॉयटर्स)