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Last Modified: मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024 (08:46 IST)

जर्मनी में मैरिटल रेप कैसे बना अपराध, भारत में क्या रोड़ा

जर्मनी में मैरिटल रेप कैसे बना अपराध, भारत में क्या रोड़ा - marital rape comparative analysis of germany and india
रितिका
जर्मनी में 1997 से ही 'मैरिटल रेप' अपराध के दायरे में आता है। आज करीब 27 सालों बाद भारत उसी बहस से गुजर रहा है कि मैरिटल रेप को अपराध घोषित किया जाना चाहिए या नहीं।
 
साल 1983 में जर्मनी की ग्रीन पार्टी की नेता पेट्रा केली ने संसद में मैरिटल रेप का मुद्दा उठाया था। उनका सवाल था कि क्या संसद के बाकी सदस्य शादी के रिश्ते में होने वाले बलात्कार को अपराध के तौर पर शामिल किए जाने के पक्ष में हैं? फ्री डेमोक्रैटिक पार्टी (एफडीपी) के नेता डेट्लेफ क्लाइनेर्ट ने तपाक से कहा, "नहीं!" इसके बाद पूरी संसद में केली के सवाल पर ठहाके लगे थे। केली, ग्रीन पार्टी की संस्थापक सदस्यों में से एक थीं। यह पहला मौका था, जब जर्मन संसद में मैरिटल रेप पर बहस हुई थी।
 
जर्मनी में 1997 से मैरिटल रेप एक अपराध है। हालांकि, इसे अपराध मानने में जर्मन संसद में करीब दो दशक तक लंबी बहस चली। मैरिटल रेप पर बहस के दौरान तर्क दिए गए थे कि एक अजनबी जब किसी महिला का बलात्कार करता है और जब एक पति अपनी पत्नी पर सेक्स के लिए दबाव डालता है, इन दोनों स्थितियों को एक ही चश्मे से नहीं देखा जा सकता।
 
मैरिटल रेप को अपराध की परिधि में लाए जाने के ठीक एक साल पहले 1996 में एक संसदीय बहस के दौरान ग्रीन पार्टी की ही नेता इरमिनगार्ड शिवे गियरिक ने कहा कि जर्मनी की दो करोड़ महिलाएं संसद से उम्मीद लगाए बैठी हैं। उन्होंने कहा कि संसद को चुनाव करना होगा कि महिलाओं के यौनिक अधिकारों के दायरे में उनके पति भी आते हैं या फिर संसदीय प्रतिनिधि महिलाओं के अधिकारों को और घटाने का फैसला करते हैं। इस बहस के बाद 15 मई 1997 को मैरिटल रेप, जर्मनी में अपराध घोषित किया गया था।
 
पार्टी लाइन को किनारे कर साथ आईं कई नेता
मैरिटल रेप को कानूनी रूप से अपराध घोषित किए जाने का श्रेय जर्मनी की अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों की महिलाओं के गठबंधन को दिया जाता है। इसमें ग्रीन पार्टी, सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (एसपीडी), क्रिश्चियन डेमोक्रैटिक यूनियन (सीडीयू) जैसी राजनीतिक पार्टियों की नेता शामिल थीं। 1997 में जब मैरिटल रेप के खिलाफ कानून बना, तो संसद की 90 फीसदी महिला नेताओं ने इसके पक्ष में वोट किया।
 
इस प्रस्ताव के पक्ष में 470 सांसदों ने और इसके खिलाफ 135 नेताओं ने वोट किया था। वहीं, 35 सांसदों ने इस प्रस्ताव से खुद को दूर रखा। पेट्रा केली, इर्मिनगार्ड शेवे-गेरीक, ऊला श्मिट, वेरा लेंग्सफेल्ड, जाबीने लॉएथहॉएसर श्नारनबेर्गे जैसी नेताओं के नेतृत्व में यह सुधार मुमकिन हुआ था।
 
नारीवादी अधिकार कार्यकर्ताओं का मानना था कि इन नेताओं ने अपने-अपने दलों के हित और पार्टी लाइन को परे रखते हुए महिला अधिकारों को प्राथमिकता दी। कानून बनने से पहले जर्मन मंत्रियों के सामने भी ये सवाल आए थे कि शादी के रिश्ते में बलात्कार को कैसे परिभाषित किया जा सकता है। तब महिला अधिकारों को सर्वोपरि रखते हुए इस कानून को पास किया गया। 
 
व्यापक नारीवादी आंदोलनों का असर
समाज, राजनीति और कानून के स्तर पर यह एक लंबी यात्रा का हासिल था। पहले की स्थितियों से तुलना करें, तो 1966 में दिया गया जर्मनी के सर्वोच्च न्यायालय का एक निर्णय तत्कालीन रुझानों और संवेदनशीलताओं का संकेत देता है। कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा था कि अगर पत्नी की इच्छा ना भी हो, तो भी उसे उदासीनता के साथ सेक्स संबंध नहीं बनाने चाहिए।
 
जर्मनी के गैर-सरकारी नारीवादी संगठन 'फ्राउएन मीडिया टर्म' के मुताबिक, अप्रैल 1976 में स्टर्न पत्रिका में एक सर्वे प्रकाशित हुआ था। इसके अनुसार उस समय हर पांच में से एक शादीशुदा महिला को सेक्स के लिए पति द्वारा मजबूर किया जाता था। इसी सर्वे में हर पांच में से एक महिला का यह भी मानना था कि एक पत्नी को अपने पति के साथ सेक्स के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए।
 
1960-70 के दशक में नारीवादी मुहिम की दूसरी लहर सक्रिय थी, जो बराबरी और भेदभाव जैसे मुद्दों पर केंद्रित थी। जर्मनी और अमेरिका समेत पश्चिमी देशों में महिलाओं के शारीरिक और यौनिक अधिकारों को लेकर आंदोलन हो रहे थे। इन्हीं आंदोलनों के बाद ज्यादातर पश्चिमी देशों में 1980-90 के दशक में मैरिटल रेप को अपराध घोषित किया गया था।
 
क्या कहता है अंतरराष्ट्रीय कानून?
कन्वेंशन ऑन दी एलिमिनेशन ऑफ ऑल फॉर्म्स ऑफ डिस्क्रिमिनेशन अगेंस्ट विमिन (सीईडीएडब्ल्यू), महिलाओं के खिलाफ हर तरीके की हिंसा के उन्मूलन पर बना अंतरराष्ट्रीय कानून है। इसके अनुच्छेद 1 से 3 और 5 (ए) के तहत, वैवाहिक बलात्कार को यौन हिंसा की श्रेणी में रखा गया है। यह अपराध महिलाओं के शारीरिक और यौनिक अधिकारों का हनन माना गया है।
 
संयुक्त राष्ट्र (यूएन) ने भी 1993 में महिलाओं के खिलाफ हिंसा संबंधी अपने घोषणपत्र में मैरिटल रेप को शामिल किया था। यूएन ने सभी देशों से कहा था कि इसे महिलाओं के साथ हिंसा के तौर पर ही देखा जाए। साथ ही, इससे जुड़े कानून बनाने की भी गुजारिश की थी। विश्लेषकों के अनुसार, चूंकि यह अपराध घर के बंद कमरों में होता है, इसलिए इसे लेकर समाज में शुरू से ही एक तरह की मौन स्वीकृति रही है।
 
सबसे बड़ी चुनौती यह है कि ये मामले निजी रिश्तों और घर के भीतर होते हैं। ऐसे में इन्हें हमेशा घर के बाहर होने वाली यौन हिंसा के मामलों से अलग देखा जाता है। यौन हिंसा को लेकर बड़े स्तर पर अलग-अलग देशों के कानून में प्रगतिशील बदलाव देखे गए हैं। वहीं, पति द्वारा किए जाने वाले "वैवाहिक बलात्कार" को आज भी एक टैबू की तरह देखा जाता है। मैरिटल रेप को अपराध के दायरे में लाने की कोशिशों का बड़े स्तर पर विरोध भी होता है।
 
अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों का मानना है कि सामाजिक विरोध और इच्छाशक्ति की कमी के कारण कई सरकारें आज भी मैरिटल रेप को यौन हिंसा के दायरे में नहीं लाना चाहतीं। यूएन के ही आंकड़ों के मुताबिक, साल 2018 तक दुनियाभर में केवल 42 फीसदी देशों में ही मैरिटल रेप के खिलाफ कानून बना। दुनियाभर की करीब 300 करोड़ लड़कियां और महिलाएं उन इलाकों में रह रही हैं, जहां मैरिटल रेप को अपराध नहीं माना जाता।
 
क्या भारत में बनेगा मैरिटल रेप के खिलाफ कानून?
भारत उन देशों में शामिल है, जहां मैरिटल रेप के खिलाफ कानून बनने की राह में कई अड़चनें हैं। हाल ही में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में इस विषय पर एक हलफनामा दायर किया। इसमें कहा गया कि शादीशुदा जोड़े के बीच असहमति से बने संबंध को बलात्कार नहीं माना जा सकता। यहां सरकार ने वैसी ही दलील दी, जो 1990 के दशक में जर्मनी में कुछ राजनीतिक पार्टियों ने दी थी।
 
भारत सरकार ने कहा कि शादी एक अलग श्रेणी है, जिसे दूसरे मामलों की तरह नहीं देखा जा सकता। साथ ही, ऐसा करना विवाह की संस्था में कई मुश्किलें पैदा करेगा। यह भी कहा गया कि मैरिटल रेप कानून से अधिक समाज से जुड़ा है, इसलिए इस पर नीतियां बनाने का फैसला संसद पर छोड़ देना चाहिए।
 
इस वक्त सुप्रीम कोर्ट में मैरिटल रेप के मुद्दे पर आठ याचिकाएं लंबित हैं। यह पहली बार नहीं है, जब भारतीय अदालतों में मैरिटल रेप के मुद्दे पर बहस छिड़ी है। इससे पहले जनवरी 2022 में दिल्ली हाई कोर्ट में इस मुद्दे पर सुनवाई हुई थी। तब हाई कोर्ट की बेंच ने बंटा हुआ फैसला सुनाया था। उस समय दिल्ली हाई कोर्ट में भी भारत सरकार ने यही तर्क दिए थे और कहा था कि मैरिटल रेप शायद पतियों के उत्पीड़न का एक हथियार बन जाए। इसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट गया। 
 
भारत सरकार का रुख उसके अपने ही आंकड़ों का विरोधाभास नजर आता है। भारत के नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 के मुताबिक, हर तीन में से एक महिला के साथ उसके पति ने शारीरिक या यौन हिंसा की थी। सबसे अधिक महिलाओं ने इस बात की शिकायत की कि इनकार करने के बावजूद पति उनके साथ जबरन यौन संबंध बनाते हैं।
 
इसके अलावा 2012 में दिल्ली में हुए गैंगरेप के बाद बनी जस्टिस जेएस वर्मा कमेटी की रिपोर्ट में भी यह सुझाव दिया गया था कि भारतीय कानून में मैरिटल रेप से जुड़े अपवाद को हटा देना चाहिए। शादी के रिश्ते को "यौन गतिविधि" के लिए ऐसी सहमति के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, जिसे बदला ना जा सके। भारतीय न्याय संहिता के इस अपवाद के मुताबिक, एक पति का अपनी पत्नी के साथ किसी भी तरीके का यौन कृत्य स्थापित करना अपराध नहीं है, बशर्ते पत्नी की उम्र 18 साल से कम ना हो।
 
मैरिटल रेप पर जर्मन नीति क्या भारत के लिए कारगर
जर्मनी में जब मैरिटल रेप पर बहस शुरू हुई थी, तब कमोबेश वही तर्क पेश किए गए थे जो अभी भारत सरकार ने दिए हैं। हालांकि, इस अपराध के खिलाफ कानून बनाने में जर्मन संसद की भूमिका अहम रही। अलग-अलग पार्टियों की महिला सांसदों की एकजुटता और नेतृत्व ने यह मुमकिन किया था। रूढ़िवादी विचारधारा से तालुक्क रखने वाले लोगों, नेताओं और संगठनों ने इसका विरोध किया था।
 
भारत में भी इसे लेकर नीति निर्माताओं का यही पक्ष सामने आया है। 2016 में तत्कालीन महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने मैरिटल रेप को एक विदेशी अवधारणा बताते हुए कहा था कि अशिक्षा, गरीबी, सामाजिक और धार्मिक मूल्यों को देखते हुए इसे भारत में लागू नहीं किया जा सकता। इसके बाद 2022 में केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने संसद में एक सवाल के जवाब में कहा कि महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा सरकार की प्राथमिकता है, लेकिन हर शादी को हिंसक या हर पुरुष को बलात्कारी नहीं करार दिया जा सकता।
 
भारत में पुरुषों के अधिकारों के लिए सक्रिय संगठन भी मैरिटल रेप पर कानून बनाने के खिलाफ हैं। आज दौर सोशल मीडिया का है, तो जब भी मैरिटल रेप पर कानून बनाए जाने पर बहस गर्म होती है, एक नया ट्रेंड शुरू हो जाता है, उदाहरण के तौर पर #MarriageStrike। इस हैशटैग में शामिल लोग पैरोकारी करते हैं कि अगर मैरिटल रेप पर कानून बना, तो पुरुषों को शादी ही नहीं करनी चाहिए। 
 
मैरिटल रेप का मसला सीधे तौर पर महिलाओं की शारीरिक स्वायत्तता से जुड़ा है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की 2021 की रिपोर्ट के मुताबिक, दुनियाभर के 57 विकासशील देशों में आधे से अधिक ऐसे हैं, जहां महिलाओं के पास गर्भनिरोध लेने या अपने साथी (शादी से पहले या बिना शादी किए) के साथ यौन संबंध बनाने का अधिकार नहीं है।
 
अमेरिकी थिंक टैंक प्यू रिसर्च के एक सर्वे के मुताबिक, हर 10 में से 9 भारतीय का यह मानना है कि पत्नियों को पतियों की बात माननी चाहिए। बात ना मानने की सूरत में और महिलाओं की शारीरिक स्वात्तता के हनन का नतीजा अक्सर हिंसा के रूप में सामने आता है। अब भी दुनिया के एक बड़े हिस्से में इस अवधारणा को सामाजिक स्वीकृति मिली हुई है कि शादी के रिश्ते में सेक्स के लिए सहमति का कोई महत्व नहीं है।