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Last Modified: बुधवार, 10 अक्टूबर 2018 (15:00 IST)

भारत में बैंकों का डूबा पैसा कितनी बड़ी समस्या है

भारत में बैंकों का डूबा पैसा कितनी बड़ी समस्या है | Indian banks
विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे नामों ने बैंकिंग सिस्टम में बढ़ते एनपीए की समस्या से आम लोगों को भी रुबरु करा दिया। रिजर्व बैंक समेत सरकारें भी अब एनपीए को एक बड़ी समस्या मानने लगे हैं।
 
 
देश का बैंकिंग तंत्र इन दिनों गैर निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) के बोझ से जूझ रहा है। एनपीए मतलब बैड लोन (खराब कर्ज)। ब्लूमबर्ग के एक सर्वे के मुताबिक दुनिया में इटली के बाद, भारत में सबसे ज्यादा एनपीए हैं। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के मुताबिक देश में कुल एनपीए का 90 फीसदी हिस्सा सरकारी बैंकों के खाते से गया है। ऐसे में समय रहते अगर इस समस्या से छुटकारा नहीं पाया गया तो देश की बैंकिंग व्यवस्था चरमरा सकती है।
 
 
क्या है एनपीए
बैंक की ओर से दिए गए ऋण का लेनदार की ओर से समय सीमा के भीतर भुगतान ना करना या भुगतान करने में देरी करना ही एनपीए कहलाता है। ऐसे ऋणों को "बैड एसेट" भी कहा जाता है। भारत में अगर लेनदार 90 दिन या इससे अधिक समय तक कर्ज की किश्त ना चुकाए तो उस ऋण को एनपीए की श्रेणी में डाल दिया जाता है।

 
कैसे होता है एनपीए
मशहूर अर्थशास्त्री मिंस्की के मुताबिक किसी भी अर्थव्यवस्था में आने वाली अस्थिरता का कारण उसकी स्थिरता में छिपा होता है। कुछ ऐसा ही एनपीए के मामले में भारत के साथ हुआ है। साल 2002-2006 के बीच का समय भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए काफी अनुकूल रहा।

अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत थी कि साल 2007-08 में आए वैश्विक आर्थिक संकट का असर प्रत्यक्ष रूप से देश के बैंकिंग सिस्टम पर नहीं दिखा। देश के बैंकिंग तंत्र की इसी मजबूती ने ना केवल विदेशी निवेशकों को बल्कि घरेलू निवेशको को भी भारत में निवेश करने के लिए उत्साहित किया। जिसके चलते बैंकों ने खूब ऋण बांटा, लेकिन बैंकों के कारोबार में वृद्धि उम्मीद के मुताबिक नहीं रही और ये कर्ज समय पर नहीं चुकाए गए। जिसके चलते देश में एनपीए की समस्या खड़ी हो गई।
 
 
हाल में भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने संसदीय समिति को एनपीए के संदर्भ में दिए अपने जबाव में कहा था कि अर्थव्यवस्था में तेजी हमेशा उम्मीद मुताबिक नहीं होती। उन्होंने कहा, "बैंकों ने अति आशावादी रुख अपनाते हुए कर्ज दिए, इसके बाद जब बैंक कर्ज में फंसने लगे तब भी कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया।" राजन के मुताबिक, "ऐसा दुनिया के अन्य देशों में भी देखने को मिला है कि जब अर्थव्यवस्था अच्छा कर रही होती है तो बैंक कर्ज देने को प्राथमिकता देते हैं। लेकिन ऐसी स्थिति में बैंकों को अधिक सजग रहने की जरूरत होती है नहीं तो ऋण भुगतान न होने के चलते अर्थव्यवस्थाएं कमजोर पड़ सकती हैं।"
 
 
कितना बड़ा है संकट
इकोनॉमिक टाइम्स के मुताबिक, कुल जीडीपी में एनपीए की हिस्सा तकरीबन 9.6 फीसदी का है, जो साल 2018 के आम बजट का आधा है। मई 2018 में जारी आंकड़ें में सरकार ने कहा कि देश में सभी बैंकों की कुल सकल गैर-निष्पादित संपत्ति (एनपीए) दिसंबर 2017 में 8,40,958 करोड़ रुपये थी। इसमें सबसे बड़ा हिस्सा स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (2,01,560 करोड़) का है। इसके बाद पंजाब नेशनल बैंक (55,200 करोड़), आईडीबीआई (44.542 करोड़), बैंक ऑफ इंडिया (43.474 करोड़), यूनियन बैंक ऑफ इंडिया( 38,047 करोड़), केनरा बैंक(37,794 करोड़), आईसीआईसीआई (33,849 करोड़) का है। इसके अलावा सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया, यूको बैंक, इंडियन ओवरसीज बैंक, इलाहाबाद बैंक, कॉरपोरेशन बैंक भी एनपीए की चपेट में हैं।
 
 
आरबीआई और सरकार
ऐसा भी नहीं है कि भारत में एनपीए की समस्या कोई पहली बार खड़ी हुई है। एक बार पहले भी साल 1997-2002 के दौरान अर्थव्यवस्था में एनपीए समस्या सामने आई थी। लेकिन आर्थिक सुधारों और बुनियादी परियोजनाओं की तेजी ने उस वक्त इसे संकट बनने नहीं दिया। आरबीआई की भूमिका एनपीए को लेकर हमेशा ही अहम रही है।
 
 
केंद्रीय बैंक ने बैंकों की बैलेंस शीट सुधारने के लिए साल 2015 में एसेट क्वालिटी रिव्यू (एक्यूआर) करना शुरू किया। इसके पहले तक बैंक बैलेंस शीट को अच्छा दिखाने के लिए एनपीए को कभी सामने आने नहीं देते थे लेकिन साल 2015 के बाद से इसमें बदलाव आया। एसेट क्वालिटी रिव्यू की वजह से जब एनपीए सामने लगे, तब आरबीआई ने कर्ज पुनर्गठन करने के निर्देश दिए। इस प्रक्रिया को आसान बनाने और उससे शुरू होने वाले विवादों को निपटाने के लिए कंपनियां को नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) में सुनवाई की सुविधा दी गई।
 
 
साथ ही बैंकों को निर्देश दिए गए कि वो ऐसे एनपीए जिनकी वसूली की संभावना ना के बराबर है उसे घाटे की तरह पेश करते हुए अपनी बैलेंस शीट से हटा लें। बैंकों को ये भी निर्देश दिए गए कि वे एनपीए से निपटने के लिए दो साल का एक्शन प्लान बना कर दें। विवादों को निपटाने के लिए कंपनियों को "इनसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड" (आईबीसी) 2016, को कानून बनाकर एनसीएलटी में सुनवाई का प्रावधान भी दिया गया। हालांकि एनसीएलटी में आने वाले मामले बहुत अधिक थे, जिनकी जल्द सुनवाई होना मुश्किल था। फिर इस मुश्किल से निपटने के लिए आया "प्रोजेक्ट सशक्त"।
 
 
प्रोजेक्ट सशक्त
बैंकों ने एनपीए की उगाही के लिए पंजाब नेशनल बैंक के चैयरमेन सुनील मेहता की अध्यक्षता में प्रोजेक्ट सशक्त तैयार किया है। इसके तहत 50 करोड़ रुपये तक के एनपीए को बैंक अपने स्तर पर 90 दिनों के भीतर सुलझाएंगे। इसके बाद 50-500 करोड़ तक के एनपीए को इंटर-क्रेडिटर एग्रीमेंट के तहत सुलझाया जाएगा।

जिस बैंक का कर्ज सबसे अधिक होगा वह मामले की अध्यक्षता करते हुए 180 दिनों के भीतर इस एनपीए को सुलझाने की योजना तैयार करेगा या इन मामलों में फंसी परिसंपत्तियों को एनसीएलटी के पास भेज दिया जाएगा। वहीं 500 करोड़ से अधिक के एनपीए के लिए एक एसेट मैनेजमेंट कंपनी (एएमसी) बनाई जाएगी जो लंबे समय से अटके पड़े एनपीए के लिए वित्तीय उगाही करेगी। ये एएमसी उस एनपीए के लिए सारी नीतियां तैयार करेगी।
 
 
यूपीए-एनडीए
भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र की मौजूदा मोदी सरकार हो या कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार, दोनों ही देश में बढ़ते एनपीए को लेकर एक-दूसरे को कटघरे में खड़ा करती रही हैं। लेकिन पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन का बयान दोनों सरकारों को बराबर का जिम्मेदार ठहराता है। राजन ने कहा कि अधिकतर खराब कर्ज साल 2006-2008 के बीच बांटे गए थे साथ ही यूपीए और एनडीए दोनों ही सरकारें फैसला लेने में देरी करती रहीं हैं, जिसके चलते यह समस्या बड़ी होती रही।
 
 
रिपोर्ट अपूर्वा अग्रवाल
 
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