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Written By राम यादव
Last Updated : बुधवार, 1 अक्टूबर 2014 (19:32 IST)

प्रकाश की गति को न्यूट्रीनों की चुनौती

आध्यात्म की सीढ़ी चढ़ रहा है विज्ञान

Neutrinos faster than light | प्रकाश की गति को न्यूट्रीनों की चुनौती
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हो सकता है कि गुरुवार 22 सितंबर 2011 की रात विज्ञान जगत के लिए एक ऐतिहासिक रात बन जाये। इसी रात एक ऐसा समाचार आया, जो भौतिक विज्ञान के आँगन में बम-धमाके के समान फूटा -यूरोपीय शोधकों के एक दल ने पाया है कि लेशमात्र भार वाले न्यूट्रीनो कणों की गति भारहीन प्रकाश-कणों से भी अधिक हो सकती है! तभी से तहलका मचा हुआ है कि क्या यह संभव है कि ब्रह्मांड में कोई चीज़ प्रकाश की गति से भी तेज़ हो सकती है और आइंस्टीन के सापेक्षवाद को झुठला सकती है?

बात यह है कि हमारी आँखों ही नहीं, संसार के सबसे शक्तिशाली दूरदर्शी के लिए भी पूरी तरह अदृश्य न्यूट्रीनो परमाणु के ऐसे परमसूक्ष्म मूलकण हैं, जो लंबे समय से वैज्ञानिकों को छलते और छकाते रहे हैं। जर्मन भौतिकशास्त्री वोल्फ़गांग पाउली ने 1930 में पहली बार उनके अस्तित्व की कल्पना की थी। उन्होंने उन्हें 'न्यूट्रोन' (Neutron) नाम दिया था, जिसे बाद में बदल कर 'न्यूट्रीनो'
(Neutrino) कर दिया गया, ताकि उनके नाम और परमाणु के नाभिक में रहने वाले बहुत पहले से ही ज्ञात 'न्यूट्रॉन' (Neutron) के उच्चारण को लेकर कोई भ्रम न रहे।

चमत्कारिक अदृश्य कण : न्यूट्रीनो इतने सूक्ष्म और अदृश्य कण हैं, कि वैज्ञानिकों की गणनाओं के अनुसार, हमारे शरीर के प्रति वर्ग सेंटीमीटर पर प्रति सेकंड, अकेले हमारे सूर्य से आ रहे 65 खरब न्यूट्रीनो कणों की अनवरत बौछार होती रहती है और हमें रत्ती भर भी पता नहीं चलता। ऐसा सौ वर्षों में कभी एक ही बार होता है कि इन असंख्य न्यूट्रीनों कणों में से कोई एक हमारे शरीर की किसी कोशिका के किसी परमाणु-नाभिक से टकराता है और उसे किसी दूसरे परमाणु में बदल देता है।

सूर्य ही नहीं, सारे ब्रह्मांड से हमारे ऊपर इन कणों की बौछार हो रही है। वे न केवल रात-दिन हमारे शरीर के ही, बल्कि पृथ्वी पर की हर चीज और स्वयं ठोस पृथ्वी के भी आर-पार आ-जा रहे हैं, तब भी दशकों तक वैज्ञानिकों की पकड़ में नहीं आ रहे थे। दशकों तक वे इस तरह चकमा देते रहे कि कुछ वैज्ञानिकों को शक होने लगा कि उनका अस्तित्व है भी या नहीं!

पहली पुष्टि भारत में हुई : इन ब्रह्मांडीय न्यूट्रीनों के अस्तित्व की पुष्टि पहली बार 1965 में भारत में हुई। उस साल मुंबई के 'टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़ंडामेंटल रिसर्च', जापान के ओसाका विश्वविद्यालय और ब्रिटेन के डरहम विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों की एक मिलीजुली टीम ने दक्षिण भारत में स्थित कोलार की स्वर्ण खानों में बनी एक भूगर्भीय प्रयोगशाला में ब्रह्मांडीय न्यूट्रीनो कणों के अस्तित्व को प्रमाणित किया था। स्वयं पृथ्वी पर वे रेडियोधर्मी तत्वों के प्राकृतिक विघटन से पैदा होते हैं। हमारे परमाणु रिएक्टर और परमाणु परीक्षण मानव निर्मित न्यूट्रीनो के मुख्य स्रोत हैं।

वैसे, न्यूट्रीनो हैं बड़े रहस्यमय और चमत्कारिक मूल कण। जैसा कि नाम ही बताता है, उन पर कोई विद्युत-आवेश (इलेक्ट्रिकल चार्ज) नहीं होता, इसलिए वे सामान्य पदार्थ (परमाणु) के साथ कोई पारस्परिक क्रिया नहीं करते और उसके नाभिक से टकराए बिना उसके आर-पार निकल जाते हैं। उन पर विद्युतचुंबकीय (इलेक्ट्रोमैग्नेटिक) शक्तियों का भी कोई असर नहीं पड़ता।

भार इतना कि भारहीन जितना : 1990 वाले दशक के अंत में पता चला कि न्यूट्रीनो बिल्कुल भारहीन नहीं होते, पर यह भार इतना क्षीण है कि वस्तुतः भारहीनता के ही समान है। वे परमाणु रिएक्टरों में होने वाले नाभिकीय विखंडन से भी पैदा होते हैं और सूर्य में चल रही नाभिकीय संगलन जैसी क्रियाओं से भी बनते हैं। इतना तय है कि वे शून्य-भार (जीरो मास) वाले कण नहीं हैं, पर यह तय नहीं है कि उनका भार कितना है। उनकी तीन किस्मे हैं-इलेक्ट्रॉन न्यूट्रीनो, म्यूओन न्यूट्रीनो और टाऊ न्यूट्रीनो। मज़ेदार बात यह है कि वे अपनी उड़ान के दौरान अपने आप को एक क़िस्म से दूसरी क़िस्म में बदल सकते हैं। इस रूप-परिवर्तन को 'न्यूट्रीनो ऑसिलेशन' कहा जाता है। इन तीनों प्रकारों के विलोम, यनि एन्टी न्यूट्रीनो के भी उन्हीं के जैसे तीन प्रकार होते हैं।

'ऑपेरा' शोध-परियोजना : यह सिद्ध करने के लिए कि 'न्यूट्रीनो ऑसिलेशन' के द्वारा तीनो प्रकार के न्यूट्रीनो कण आपस में अदलते-बदलते और एक-दूसरे का रूप धारण करते रहते हैं, 13 देशों के वैज्ञानिकों के बीच सहयोग से 2006 में 'ऑपेरा' (OPERA) नाम की एक शोध-परियोजना शुरू की गयी। इटली की राजधानी रोम के पास 'ग्रान सास्सो' पहाड़ के नीचे एक भूमिगत प्रयोगशाला में 'ऑपेरा' नाम का सात मीटर ऊँचा, उतना ही लंबा-चौड़ा और 1800 सौ टन भारी एक न्यूट्रीनो डिटेक्टर बनाया गया। प्रयोगशाला को ग्रेनाइट चट्टानों वाले एक ऊँचे पहाड़ के नीचे काफी गहराई पर इसलिए बनाया गया है, ताकि उसके डिटेक्टर द्वारा किए गए मापन हर तरह के बाहरी प्रभावों से अछूते रह सकें।

डिटेक्टर में न केवल ढेर सारे अतिसंवेदनशील उपकरण लगे हैं, सीसे (लेड) की बहुत-सी मोटी-मोटी प्लेटें भी लगी हैं। परमाणु-नाभिकों से टकराने से बचने का परम माहिर होते हुए भी कभी-कभी कोई न्यूट्रीनो कण सीसे के किसी परमाणु-नाभिक से टकरा ही जाता है। जब भी ऐसी कोई टक्कर होती है, तो उससे पैदा होने वाले म्यूओन डिटेक्टर की अतिसंवेदनशील फ़ोटोफ़िल्म पर अपनी छाप छोड़ जाते हैं। इस डिटेक्टर की सहायता से वैज्ञानिक यह भी जानना चाहते थे कि न्यूट्रीनों के तीनों अलग-अलग प्रकारों के क्या भार हैं और ब्रह्मांड के आरंभिक दिनों में पदार्थ (अर्थात परमाणु) की रचना में उनकी क्या भूमिका रही हो सकती है।

'सेर्न' से मिलते हैं 'ऑपेरा' को न्यूट्रीनो : 'ऑपेरा' प्रयोगशाला को अपने लिए आवश्यक न्यूट्रीनो स्विट्ज़रलैंड में जेनेवा के पास सेर्न (CERN) नाम की उसी यूरोपीय परमामु भौतिकी प्रयेगशाला से मिलते हैं, जहाँ परमाणु के मूलकणों को भार (द्रव्यराशि / मास) प्रदान करने वाले और संभावित 'ब्रह्मकण' समझे जाने वाले हिग्स-बोसोन के अस्तित्व का पता लागाने के प्रयोग चल रहे हैं। लेकिन, सेर्न का 21 किलोमीटर लंबा 'लार्ज हैड्रन कोलाइडर' (LHC) कहलाने वाला भूमिगत महात्वरक (एक्सिलरेटर) नहीं, करीब सवा सात किलोमीटर लंबा एक दूसरा, लघुत्वरक 'सुपर प्रोटोन सिंक्रोटोन' (SPS) ग्रेफ़ाइट यानी कार्बन की पतली-सी शीट (पन्ने) पर तीव्रगति प्रोटोन कणों की बौछार द्वारा आवश्यक न्यूट्रीनो कृत्रिम रूप से पैदा करता है।

हर बाधा बादल समान : इस बौछार से, पहले तो 'पायोन' (Pion) कहलाने वाले ऐसे अल्पजीवी अंतरिम कण बनते हैं, जिन्हें एक चुंबकीय लेंस की सहायता से संकेंद्रित कर 5.6 % झुकाव पर इटली की दिशा में साधा जाता है। एक किलोमीटर लंबी एक सुरंग से गुज़रते हुए ये 'पायोन' विघटित हो कर म्यूओन-न्यूट्रीनों में बदल जाते हैं, और तब, एक अदृश्य किरण के समान सीधी रेखा में, भूपर्पटी के नीचे- नीचे, आल्प्स पर्वतों की कई ऊँची-ऊँची चोटियों को कुछेक हज़ार मीटर की गहराई पार से करते हुए, 732 किलोमीटर दूर ग्रान सास्सो की भूमिगत प्रयोगशाला में लगे 'ऑपेरा' डिटेक्टर को छूते हैं। दृश्यमान प्रकाश की किरणें तो हर ठोस बाधा से टकराकर तुरंत परावर्तित हो जाती हैं, लेकिन चमत्कारिक न्यूट्रीनों वाली अदृश्य किरण किसी भी मोटाई वाली ठोस-से-ठोस बाधा के ऐसे आर-पार चली जाती है, जैसे हर बाधा उसके लिए मात्र कोई बादल हो। जेनेवा से चलने और 732 किलोमीटर दूर रोम के पास ग्रान सास्सो तक पहुँचने में उसे केवल 2.43 मिली सेकंड का समय लगता है।

प्रकाशक की गति से 7.49 किलोमीटर तेज : वैज्ञानिक, वास्तव में, देखना तो यह चाहते थे कि एक क़िस्म के न्यूट्रीनो दूसरी क़िस्म में कैसे बदल जाते हैं और नगण्य ही सही, कितने भारी होते हैं। लेकिन, जब पिछले दो वर्षों के आँकड़ो और मापनों का उन्होंने बारीक़ी से विश्लेषण किया, तो यह भी पाया कि जेनेवा में सेर्न से चले म्यूओन-न्यूट्रीनो जितने समय में ग्रान सास्सो पहुँचे, वह समय 16 111 मापनों में, प्रकाश को लगने वाले समय की अपेक्षा 60 नैनो सेकंड (सेकंड के 60 अरबवें भाग) के बराबर कम रहा है। दूसरे शब्दों में, म्यूओन-न्यूट्रीनो की गति प्रकाशक की प्रति सेकंड गति से 7.49 किलोमीटर अधिक, यानी तीन लाख किलोमीटर से मुश्किल से 200 किलोमीटर कम निकली। यह अंतर व्यावहारिक दृष्टि से भले ही तिल को ताड़ बनाने जैसा लगे, विज्ञान की दृष्टि से किसी भूकंप से कम नहीं है।

प्रकाश गति ही सबसे अक्षुण स्थिरांक : अंतरिक्ष जैसी शून्यता में प्रकाश की एकदम सही गति 2 99 792. 458 किलोमीटर प्रति सेकंड है। बीसवीं सदी के सबसे महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने 1905 में प्रकाशित अपने 'विशिष्ट सापेक्षवाद सिद्धांत' (स्पेशल रिलेटिविटी थीअरी) में स्थापित किया था कि इस ब्रह्मांड में प्रकाश की गति ही सबसे तेज़ गति है। कोई दूसरी ची़ज़ उससे तेज़ नहीं हो सकती। प्रकाश की गति ही पूरे ब्रह्मांड में हर पल, हर क्षण हमेशा एक-जैसी रहती है। वही सबसे सतत अक्षुण स्थिरांक (स्थिर-अंक/ Constant) है। बाक़ी सब कुछ उसके सापेक्ष है।

'ऑपेरा' परियोजना से जुड़े वैज्ञानिक स्वयं भी अपनी खोज पर पूरी तरह विश्वास नहीं कर पा रहे हैं। परियोजना-प्रमुख और स्विट्ज़रलैंड की राजधानी के बेर्न विश्वविद्यालय में उच्च ऊर्जा भौतिकी के प्रोफ़ेसर अंतोनियो एरेदितातो ने अपनी प्रथम प्रतिक्रिया में कहा, 'यह बात, कि न्यूट्रीनो प्रकाश की गति की अपेक्षा 60 नैनो सेकंड पहले ही अपने गंतव्य पर पहुँच जाते हैं, एक भरपूर आश्चर्य है।... इस का आज की मान्यताप्राप्त भौतिकी पर इतना निर्णायक असर पड़ सकता है कि उसके बारे में अभी से कुछ कह सकना बहुत कठिन है। इन आँकड़ो की पुष्टि के लिए हर हालत में नए प्रयोग होने चाहिये।'

GPS उपग्रह प्रणाली से ली मापन सहायता : 'ऑपेरा' परियोजना से जुड़े वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि उन्हों ने हर संभव भूल-चूक या तकनीकी त्रुटियों की स्वयं भी काफ़ी छान-बीन की। पृथ्वी पर सही-सही दूरियाँ नापने और किसी चीज की सही अवस्थिति (पोज़िशन) बताने वाली GPS उपग्रह प्रणाली की सहायता से उन्हों ने न्यूट्रीनो कणों के 732 किलोमीटर भूमिगत रास्ते को इतना सही-सही नापा है कि उस में केवल 10 सेंटीमीटर की तकनीकी चूक होने की गुंजाइश है।

इसी तरह उन के यात्राकाल को भी हर बार सेर्न और ग्रान सास्सो में लगी अत्यंत सटीक परमाणु-घड़ियों से इस तरह मापा गया है कि उस में एक सेकंड के 10 अरबवें हिस्से (10 नैनो सेकंड) के बाराबर ही इधर-उधर हो सकता है। दूसरे प्रयोगों में भी 'यदि इन मापनो की पुष्टि हो जाती है,' सेर्न के वैज्ञानिक शोध निदेशक सेर्जियो बेत्रोलूची ने कहा, 'तो भैतिक विज्ञान के प्रति हमारी नज़र बहुत बदल सकती है। लेकिन, पहले हमें यह भी देखना होगा कि हमने जो विसंगति पाई है, उसकी और कोई व्याख्या नहीं है। इसका पता केवल दूसरे निष्पक्ष मापनों से ही चल सकता है।'

निष्पक्ष परीक्षा के केवल दो ही रास्ते : इस समय संसार में केवल दो ही ऐसी जगहें हैं, जहाँ 'ऑपेरा' मापनों का निष्पक्ष ढंग से खंडन- मंडन हो सकता है। लेकिन, इस में काफ़ी समय लगेगा। एक है अमेरिका की फ़र्मी लैब और दूसरी है जापान में तोकियो के पास की T2K प्रयोगशाला।

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अमेरिका की फ़र्मी लैब ने वहाँ के मिनेसोटा राज्य में इस बीच बंद हो चुकी लोहे की एक पुरानी खान में ज़मीन से 714 मीटर नीचे एक विशालकाय भारी-भरकम न्यूट्रीनो डिटेक्टर लगा रखा है, जिसे 'मीनोस' (MINOS) कहा जाता है। वहाँ पहले भी न्यूट्रीनो की सही गति मालूम करने के प्रयोग हो चुके हैं। 2007 में वहां भी पाया गया कि न्यीट्रीनो की एक क़िस्म 3-GeV की उड़ान-गति प्रकाश की गति से कुछ थोड़ी-सी ज़्यादा है, लेकिन दूसरी क़िस्मों की गति प्रकाश की गति से मेल खाती पाई गयी, इसलिए इसे गंभीरता से नहीं लिया गया और न कोई सनसनी फैली।

दोनो रास्ते फिलहाल बंद : 'मीनोस' इटली के 'ऑपेरा' जैसा ही न्यूट्रीनो डिटेक्टर है। वह भी क़रीब 700 किलोमीटर दूर शिकागो की फर्मी लैब से आने वाले कृत्रिम न्यूट्रीनो कणों को जाँचता-परखता रहा है। लेकिन, रखरखाव और परिष्करण (अपडेटिंग) कार्यों के लिए उसे आगामी मार्च में बंद कर दिया जायेगा। वहाँ नये परीक्षण करने के लिए बेचैन जर्मन भौतिकशास्त्री अल्फोंस वेबर का कहना है कि 'मीनोस' को समय मापने वाले वैसे ही या उन से बेहतर GPS उपकरण इत्यादि चाहियें, जैसे इस समय 'ऑपेरा' परियोजना के पास हैं। मार्च में 'मीनोस' को एक साल के लिए बंद कर दिया जायेगा, क्योंकि उसे न्यूट्रीनो भेजने वाले शिकागो स्थित मूलकण त्वरक का नवीकरण शुरू होने जा रहा है।

बची जापान की T2K प्रयोगशाला। तोकियो के पास की यह प्रयोगशाला अपने कृत्रिम न्यूट्रीनो 300 किलोमीटर दूर के पहाड़ों के नीचे पानी के एक विशालकाय टैंक में भेजा करती थी, ताकि वहाँ लगे डिटेक्टर पानी के परमाणुओं के साथ न्यूट्रीनो कणों की कभी-कभार होने वाली टक्कर को पकड़ सकें। किंतु, दुर्भाग्य ऐसा कि यह प्रयोग इस समय फूकुशिमा वाले उस भूकंप की मार से पीड़ित है, जिसने गत 11मार्च को जपान को दहला दिया था। इस बात की संभावना बहुत कम है कि T2K वाले प्रयोग 2011 बीतने से पहले शुरू हो पाएंगे।

आइंस्टीन को गिराना है लोहे के चने चबाना : यानी, आइंस्टीन को उनकी महानता के सिंहासन से गिराने में अभी देर है। यह काम वैसे भी लोहे के चने चबाने जैसा होगा, क्यों कि आइंस्टीन अपने विशिष्ट सापेक्षवाद सिद्धांत में आज से 107 वर्ष पूर्व जो कुछ कह गए हैं, वे आज तक अकाट्य सिद्ध हुए हैं। सामान्य भौतिकी, मूलकण भौतिकी या खगोल विज्ञान की आज तक की सारी खोजें उन की किसी भी स्थापना का खंडन करने के बदले मंडन ही करती रही हैं। उन का एक ही समीकरण E=mc2 पदार्थ, ऊर्जा और ब्रह्मांड के बारे में इतना कुछ कहता है कि उस में हर दरार पूरे भौतिक विज्ञान को दरका सकती है। इस समीकरण में E ऊर्जा है, m द्रव्यमान (मास) औरc प्रकाश-गति का स्थिरांक। यह समीकरण ऊर्जा, द्रव्यमान और प्रकाश की गति के बीच अंतरंग संबंधों को दिखाते हुए कहता हैः

- ऊर्जा और पदार्थ (द्रव्य) एक-दूसरे में परिवर्तनीय हैं।
-किसी गतिशील स्रोत से निकल रहे प्रकाश की गति उस स्रोत की अपनी गति के सापेक्ष घटती-बढ़ती नहीं, बल्कि हमेशा एक जैसी रहती है।
-इस संपूर्ण ब्रह्मांड में केवल प्रकाश की गति ही एकमात्र सदैव स्थिर संख्या (स्थिरांक) है।
-प्रकाश की गति ही भूत और भविष्य के बीच की सीमारेखा है।

सापेक्षवाद सिद्धांत है गति बढ़ने की सीमा : सापेक्षवाद सिद्धांत का यह भी अर्थ है कि हर चीज़ का द्रव्यमान उसकी गति बढ़ने में लग रही ऊर्जा के साथ इस तरह बढ़ता जायेगा कि प्रकाश की गति के बराबर पहुँचने तक असीम और अनंत हो जायेगा। ऐसा क्योंकि हो नहीं सकता कि ब्रह्मांड के भीतर की कोई चीज ब्रह्मांड से भी असीमित बड़े द्रव्यमान वाली हो जाये, इसलिए वह प्रकाश की गति की कभी बराबरी नहीं कर सकती।

न्यूट्रीनो कणों का- भले नगण्य ही सही- पर कुछ न कुछ भार (मास) प्रतीत होता है, इसलिए त्वरण द्वारा गतिविद्धि के अनुपात में द्रव्यमान अनंत की दिशा में बढ़ते जाने का नियम उन पर भी लागू होगा। इसका केवल एक ही काल्पनिक अपवाद हो सकता है कि वे ही शायद अब तक अज्ञात ऐसे 'टैकियोन' हैं, जो बिना किसी त्वरण के, हमेशा ही, अतिप्रकाशीय (सुपरल्यूमिनर) गति से चलते होंगे। दूसरी ओर, अतिप्रकाशीय गति का यह भी अर्थ है कि ऐसी हर चीज़ चलने से पहले ही अपने गंतव्य पर पहुँच जायेगी और इस तरह कारण-कार्य-संबंध (हेतुवाद / कॉजैलिटी) के इस नियम का भी उल्लंघन करेगी कि बिना कारण, या कारण से पहले, कोई कार्य नहीं होता। ऑक्फोर्ड विश्वविद्यालय के सुबीर सरकार कहते हैं कि 'कारण कार्य के बाद नहीं आता, यह एक अटल नियम है।'

झुठलाने वाले खुद झूठे बनते रहे आइंस्टीन के विशिष्ट सापेक्षवाद का यह भी कहना है कि सारा ब्रहमांड लचीला है। काल और दिक (टाइम और स्पेस) एक अखंडता हैं। उन्हें खींच कर बढ़ाया और एक-दूसरे में बदला जा सकता है। साथ ही इस सारे ब्रह्मांड में न तो कोई विशिष्ट जगह है, न कोई केंद्र है, न कोई किनारा है और न कोई ऊपर-नीचे।

पिछले 107 वर्षों में उनकी इन स्थापनाओं को झुठलाने के प्रयासों की कमी नही रही है, पर सारे प्रयास स्वयं ही झूठे सिद्ध हुए। इसलिए, कोई भी धीर-गंभीर वैज्ञानिक तुरंत यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि प्रकाश से भी तेज़गति न्यूट्रीनो कणों का अस्तित्व यदि सिद्ध भी हो जाता है, तो वह आइंस्टीन को हीरो से ज़ीरो बना सकता है।

एक सदी से वैध है आइंस्टीन का सिद्धांत : पहली बात, आइंस्टीन ने विशिष्ट सापेक्षवाद का सिद्धांत जब गढ़ा था, तब न्यूट्रीनो नाम का न तो कोई शब्द होता था और न उसकी किसी ने कल्पना ही की थी। यह कल्पना उनके समकालीन वोल्फ़गांग पाउली ने 25 साल बाद की थी। 1905 तक इतना ही पता था कि हर सजीव या निर्जीव चीज़ मूल रूप से परमाणुओं की बनी हुई है और परमाणु केवल इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और न्यूट्रॉन के बने होते हैं। इस बीच सभी जानते हैं कि परमाणु के ये तीनो घटक भी मौलिक नहीं हैं, उनमें और भी कई छोटे-छोटे घटक छिपे होते हैं और हर छोटे से छोटे घटक का एक विलोमरूपी प्रतिघटक भी होता है।

सनसनी से नाम कमाने का चस्का : दूसरी बात, ऐसा लगता है कि जीववैज्ञानिकों और अंतरिक्ष वैज्ञानिकों को ही नहीं, परमाणु भौतिकी के वैज्ञानिकों को भी सनसनीखेज़ धमाके करने और मीडिया में नाम कमाने का चस्का लग गया है। कुछ उदाहरणः इस साल अप्रैल में अमेरिका की फंर्मी लैब के वैज्ञानिकों ने ख़बर दी कि उन्हें एक पाँचवीं-- अब तक की एक पूरी तरह अज्ञात रहस्यमय-- आदि शक्ति के अस्तित्व के संकेत मिले हैं। अगस्त में सेर्न के महात्वरक LHC के साथ प्रयोग कर रहे वैज्ञानिकों ने कहा कि उन्हें अब तक के अप्रमाणित उन हिग्स-बोसोन कणों के सचमुच होने के कुछ संकेत मिले हैं, जिन से यह रहस्य खुल सकता है कि परमाणु- नाभिक में रहने वाले वाले विभिन्न मूलकणों को अपना अलग-अलग भार कहाँ से और कैसे मिलता है।

4 सितंबर को इटली की ग्रान सास्सो प्रयोगशाला में ही जर्मन भागीदारी से चल रही क्रेस्ट ( CRESST) परियोजना वैज्ञानिक दल ने बताया कि उसने उस अदृश्य 'काले द्रव्य' (डार्क मैटर) का सुराग पा लिया है, जिस के बारे में खगोलविदों का अनुमान है ब्रहमांड में व्याप्त 23 प्रतिशत पदार्थ अदृश्य काला द्रव्य है। उन के डिटेक्टर ने 67 ऐसे मूलकणों के साथ टक्करें दर्ज की हैं, जिन के बारे में दस हज़ार में एक के बराबर संभावना है कि वे कोई ज्ञात मूलकण नहीं हैं। तीन ही सप्ताह बाद, 22 सितंबर की रात ग्रान सास्सो से ही यह ख़बर भी आई कि वहाँ के डिटेक्टर के अनुसार, न्यूट्रीनो की गति प्रकाश से भी तेज़ होनी चाहिए।

खोजों की त्सुनामी कर रही है बदनामी : विशेषज्ञों ने फ़र्मीलैब की पाँचवीं मूलशक्ति को इस बीच मृत मान लिया है। यानी, आगे भी विद्युतचुंबकत्व, गुरुत्वाकर्षण, परमाणु नाभिक में धनात्मक आवेश वाले प्रोटॉन कणों के बीच विकर्षण के बावजूद उन्हें एक साथ बाँधे रखने वाले प्रबल बल और प्रोटॉन तथा आवेशरहित न्यूट्रॉन कणों को इकठ्ठा रखने वाले क्षीण बल को ही मूलभूत शक्तियाँ माना जायेगा। हिग्स-बोसोन संबंधी सेर्न के समाचार को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है, क्योंकि वह बहुत जटिल अप्रत्यक्ष मापनों पर आधारित है। केवल काले द्रव्य वाले समाचार को कुछ गंभीरता से लिया जा रहा है, हालाँकि उसकी भी अन्य प्रयोगों से पुष्टि होनी बाक़ी है। यही बात न्यूट्रीनो की अतिप्रकाशीय गति पर भी लागू होती है।

काल्पनिक टैकियोन भी प्रकाश से तेज : हो सकता है कि न्यूट्रीनों के बारे में भी अंततः यही सिद्ध हो कि वे प्रकाश से अधिक गतिवान नहीं हैं। पर, यह भी नहीं भूल जाना चाहिये गणीतीय समीकरणों के आधार पर 'टैकियोन' कहलाने वाले ऐसे लगभग भारहीन मूलकणों की संभावना के बारे में लंबे समय से अटकलें लगाई जा रही हैं, जो बिना त्वरण के शुरू से ही प्रकाश से अधिक गतिवान हो सकते हैं। स्वयं भारत के दो वैज्ञानिकों देशपांडे और जॉर्ज सुदर्शन ने 1962 में ही लिखा था कि आइंस्टीन के विशिष्ट सापेक्षवाद वाले समीकरणों के हल की कई संभावनाएँ हो सकती हैं। भारत के ही जयंत विष्णु नार्लीकर ने भी 1978 में 'अमेरिकन साइन्टिस्ट' में 'कॉस्मिक टैकियोन- एन एस्ट्रोफ़िज़िकल एप्रोच' (ब्रह्मांडीय टैकियोन-एक खगोलभौतिकी दृष्टिकोण) नाम से इस विषय पर एक लेख लिखा था। अमेरिकी नागरिक बन गये गुरुत्वाकर्षण भौतिकी के भारतीय वैज्ञानिक अभय वसंत अष्टेकर के इस सिद्धांत को भी अब गंभीरता से लिया जाने लगा है कि हमारा ब्रहमांड ही कोई अकेला ब्रह्मांड नहीं है, असंख्य ब्रह्मांड हैं।

इतने मूलकण कि नामों का अकाल : वैज्ञानिकों को ऐसे- ऐसे नित नए सूक्ष्म कण मिल रहे हैं, जिनके वर्गीकरण के लिए उनके पास शब्द तक नहीं है। सब को सामूहिक रूप से मूलकण (एलीमेंट्री पार्टिकल) कहा जा रहा है। ऐसी ही एक संभावना ऐसे कणों की कल्पना हो सकती है, जो हमेशा ही अतिप्रकाशीय गति से चलते हों और कभी धीमे न पड़ते हों। सिद्धांततः उनकी ऊर्जा जितना अधिक 0 (शून्य) की दिशा में जायेगी, उनकी गति उतनी ही अंतहीन (आध्यात्मिक) होती जायेगी। उनका भार मात्र काल्पनिक होगा। दर्शक यदि उन्हें देख सकता हो, तो तभी देख पायेगा, जब वे उससे दूर जा चुके होंगे, ठीक उसी तरह, जिस तरह आजकल के पारध्वनिक (सुपरसॉनिक) विमानों की आवाज़ तभी सुनाई पड़ती है, जब वे हमारे सिर पर से होते हुए दूर चले गये होते हैं।

क्या न्यूट्रीनो ही 'टैकियोन' हैं : कुछ वैज्ञानिक 1980 से ही मान रहे हैं कि न्यूट्रीनो ही 'टैकियोन' हैं। यदि भावी प्रयोगों में भी यह प्रमाणित हो जाता है कि न्यूट्रीनो सचमुच प्रकाश से अधिक गतिवान हैं, तो इन वैज्ञानिकों की ही नहीं, उन सब की धारणा भी सही सिद्ध होगी, जो प्रकाश की गति को ही हर तरह की गति की अंतिम सीमा नहीं मानते। तब बात भौतिकता से आध्यात्मिकता की तरफ जाने लगेगी। प्रकाश दृष्टिमान है। न्यूट्रीनो नहीं। परमात्मा भी दृष्टिगोचर नहीं होता। न्यूट्रीनो हर चीज़ के आर-पार जा सकता है। कण-कण में बसे परमात्मा को भी क्या कोई बाधा रोक सकती है? क्या उनकी विचरणगति की भी कोई सीमा हो सकती है?

जरूरी नहीं कि न्यूट्रीनों का पद बढ़ने से आइंस्टीन का योगदान घटे। उन्हों ने भी न्यूटन के नियमों में सुधार किया था। इससे न्यूटन अपमानित या तरस्कृत नहीं हुआ। उसका आज भी सम्मान होता है। आइंस्टीन भी सदा सम्माननीय रहेंगे। सुधार और विकास ही प्रकृति का शाश्वत नियम है। मान-अपान केवल विषयगत भावनाएँ हैं। न्यूट्रीनो प्रकाश से अधिक गतिवान हैं या नहीं, संसार वैसे ही चलता रहेगा, जैसे तब चलता था, जब हम अणु-परमाणु और न्यूट्रोनों या न्यूट्रीनों के बारे में कुछ नहीं जानते थे।

(सभी चित्र सेर्न के सौजन्य से)